प्रेरणाप्रद भरे पावन प्रसंग

संत तुकाराम

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सेवा और सहिष्णुता के उपासक- संत तुकाराम

    संसार में सभी मनुष्यों का लक्ष्य, धन, संतान और यश बताया गया है। इन्हीं को विद्वानों ने वित्तैषणा, पुत्रैषणा और लोकैषणा के नाम से पुकारा है। इन तीनों से विरक्त व्यक्ति ढूँढने से भी कहीं नहीं मिल सकता। संभव है किसी मनुष्य को धन की लालसा कम हो, पर उसे भी परिवार और नामवरी की प्रबल आकांक्षा हो सकती है। इसी प्रकार अन्य व्यक्ति ऐसे भी मिल सकते हैं कि जिनको धन के मुकाबले में संतान अथवा यश की अधिक चिंता न हो। पर इन तीनों इच्छाओं से मुक्त हो जाने वाला व्यक्ति किसी देश अथवा काल में बहुत ही कम मिल सकता है।

    इसका आशय यह नहीं कि इस प्रकार की आकांक्षा रखने वाला मनुष्य निश्चय ही दूषित समझा जाए। संसार में रहते हुए इन वस्तुओं की आवश्यकता मनुष्य को पड़ा ही करती है और यदि इस आवश्यकता को न्यायानुकूल मार्ग से पूरा किया जाये तो उसमें बुराई अथवा निंदा की कोई बात नहीं है। पर देखने में यह आता है कि बहुसंख्यक लोग इनके लिये गलत उपायों का अवलंबन करते हैं, इनकी लालसा में पड़कर अन्य उच्च श्रेणी के लक्ष्यों को त्याग देते हैं, इसीलिए इन तीनों एषणाओं की ज्ञानी व्यक्तियों ने निंदा की है।

      दूसरी बात यह भी है कि चाहे ये तीनों कामनायें सामान्य दृष्टि से बुरी या हानिकारक न हो, पर जब मनुष्य का ध्यान अधिकांश में इनकी पूर्ति में लग जाता है, तो वह परोपकार, सेवा आदि के अधिक श्रेष्ठ कार्यों की तरफ से प्रायः उदासीन हो जाता है। ऐसी दशा में यदि कोई व्यक्ति सांसारिक एषणाओं की तरफ से चित्त-वृत्तियों को बिल्कुल हटा ले और उनकी अपूर्ती में भी आनंद का अनुभव करे, तो उसको अवश्य ही सच्चा संत कहा जायेगा। तुकाराम इसी श्रेणी के मनुष्य थे। गृहस्थ जीवन के आरंभ में ही जब वह आकस्मिक विपत्तियों के फलस्वरूप सब सांसारिक वस्तुओं से वंचित हो गये, उन्होंने भगवान् को धन्यवाद देते हुए कहा-

    "भगवान् ! अच्छा ही हुआ जो मेरा दिवाला निकल गया। अकाल पडा़ यह भी अच्छा ही हुआ, क्योंकि कष्ट पड़ने से ही तेरा ध्यान आया और सांसारिक लालसाओं से पीछा छूटा। स्त्री और पुत्र भोजन के अभाव से मर गये और मैं भी हर तरह से दुर्दशा भोग रहा हूँ, यह तो ठीक ही है। संसार में अपमानित हुआ, यह भी अच्छा ही हुआ। गाय- बैल, द्रव्य सब चले गये, यह भी अच्छा ही है। लोक-लाज भी जाती रही यह भी ठीक है, क्योंकि इन्हीं बातों से अंत में तुम्हारी शरण में आया।"

    " सच तो यह है कि भगवान् अपने सेवक को संसारिक सफलता मिलने ही नहीं देते, वे उसे सब जंजालों से मुक्त रखते हैं। अगर वे उसको वैभवशाली बना दें तो उसमें अभिमान उत्पन्न हो जाय। अगर वे उसे गुणवती स्त्री दें तो मन में उसी की इच्छा लगी रहे। इसलिए वे उसके पीछे कर्कशा स्त्री लगा देते हैं। तुकाराम कहते हैं कि इन सबको मैंने प्रत्यक्ष देख लिया, अब मैं सांसारिक लोगों से क्या कहूँ ?"

  बाल्यावस्था में गृहस्थ संचालन-

      संत तुकाराम का जन्म पूना के निकट देहूँ गाँव में संवत् १६६५ वि० में एक कुनवी परिवार में हुआ था। इस जाति वालों को महाराष्ट्र में शूद्र माना जाता है और वे खेती-किसानी का धंधा करते हैं। पर तुकाराम के घर में पुराने समय से लेन-देन का धंधा होता चला आया था और उनके पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। इसलिए उनकी बाल्यावस्था सुखपूर्वक व्यतीत हुई। जब वे तेरह वर्ष के हुए तो उनके माता-पिता घर का भार उनको देकर स्वयं तीर्थों में भगवत् भजन करने के उद्देश्य से चले गये। तुकाराम उसी आयु में दुकान का हिसाब-किताब करने में होशियार हो गये थे और पिता ने उनका विवाह भी कर दिया था, पर वे स्वभाव से अत्यंत सरल, सेवाभावी और सत्यवादी थे। इसका परिणाम यह हुआ कि दुनियादार लोगों ने उनका कर्ज चुकाना बंद कर दिया और जैसे बने उन्हें ठगने की कोशिश करने लगे।

    लोगों की ऐसी मनोवृत्ति देखकर उनका चित्त सांसारिक व्यवहारों से विरक्त होने लगा। पर घर में कई प्राणियों स्त्री, भाई, बहिन आदि का निर्वाह करने का भार उनके ऊपर था, इसलिए फुटकर सामान की दुकान खोल ली। पर वे कभी झूठ नहीं बोलते थे, कभी किसी को ठगते नहीं थे, सबके प्रति उदारता का व्यवहार करते थे, इससे स्वार्थी लोग फिर उनके साथ धोखा और ठगी का व्यवहार करने लगे और दुकान में घाटा लग गया। जिन लोगों को उन्होंने उधार दिया था, वे तो देने का नाम ही नहीं लेते थे, पर जिनको लेना था वे फौरन नलिश करके घर में 'जब्ती' का हुक्म ले आये। ससुराल वालों ने एकाध बार सहायता भी की, पर सरलता के कारण लोग उनको किसी न किसी प्रकार ठगते ही रहे और उनकी आर्थिक दशा गिरती ही रही।

 

    कई बार उन्होंने माल ले जाकर बेचने का कार्य शुरू किया। एक बार मिर्च लेकर किसी दूर के स्थान में बेचने को गये। वहाँ जो भी रुपया मिला उसको लोगों ने नकली सोने के कड़े देकर ठग लिया। दूसरी बार स्त्री (द्वितीय पत्नी) ने दो सौ रुपया कर्ज दिलाकर व्यापार करने को भेजा। उसमें पचास रुपया लाभ भी हुआ। पर वहीं पर एक ब्राह्मण ने आकर अपना दुःख रोया और इतनी अधिक विनती की कि सब रुपया उसी को देकर चले आये। इस पर स्त्री ने उनको बहुत खरी- खोटी सुनाई और दंड दिया।

    जब उस प्रदेश में भयंकर अकाल पड़ा तो एक बूंद पानी मिलना कठिन हो गया, वृक्ष सूख गये, पशु बिना पानी के मर गये। तुकाराम के घर में अन्न का दाना भी न था। किसी के दरवाजे पर जाता तो वह खडा़ भी नहीं होने देता, क्योंकि दिवाला निकल जाने से उनकी साख पहले ही जाती रही थी। घर वाले भूखों मरने लगे। तुकाराम हद से ज्यादा परिश्रम करते पर तब भी पेट नहीं भरता। सब पशु और पहली पत्नी तथा बच्चे इसी में मर गये। इस प्रकार कष्ट सहन करते- करते तुकाराम का मन संसार में विरक्त होने लगा और वह अपना अधिकांश समय परमात्मा के ध्यान और भजन में लगाने लगे। उसकी दूसरी पत्नी जीजाबाई का स्वभाव बड़ा झगड़ालू और लडा़का था। इससे घर में रह सकना और भी कठिन हो जाता था। गाँव के लुच्चे- लफंगे व्यक्ति भी उनको अकसर छेड़ते रहते थे। वे उनको देखकर कहने लगते- और "भगवान का भजन करो, हरी के नाम ने तुझे निहाल कर दिया।"

 

वैराग्य और एकांतवास

       ऐसी परिस्थिति में भी तुकाराम घर छोड़कर साधू- संत नहीं बने, पर उन्होंने चित्त शुद्धि के उद्देश्य से कुछ समय एकांतवास करने का निश्चय किया। इसलिये वे निकटवर्ती 'भामनाथ' पर्वत पर चले गये और वहाँ पंद्रह दिन तक भगवान् का ध्यान ही करते रहे। जब यह खबर गाँव में फैली तो तुकाराम की पत्नि जीजाबाई बडी़ दुखी हुई। स्वभाव से वह लड़ा़का और झगड़ा करने वाली अवश्य थी, पर साथ ही पतिव्रता भी थी। उसने तुकाराम के छोटे भाई कान्हाजी को उन्हे ढूँढ लाने को भेजा। इधर- उधर फिरते- फिरते भामनाथ पर उसकी तुकाराम से भेंट हुई। वह उन्हे समझा- बुझाकर घर ले आया।

      अब तुकाराम ने संसार के झगडों को सदा लिए मिटाने का निश्चय किया। उन्होंने पिता के समय के सब दस्तावेज (ऋण- पत्र) निकाले, जो कर्ज लेने वालों ने लिखकर दिये थे। उन सबको वह गाँव के पास वाली इंद्रायणी नदी में डुबाने चले। यह देखकर छोटे भाई ने कहा- "आप तो 'साधू' हो गये।' परन्तु मुझे तो बाल- बच्चों का पेट पालना करना होगा। अगर आप इन सब रुपयों को इस तरह डुबा देंगे तो मेरा काम कैसे चलेगा ?? "" तुकाराम ने उत्तर दिया- "ठीक है, तुम उनमें से आधे दस्तावेज निकाल लो और अलग रहकर अपनी गृहस्थी चलाओ। मेरा सब भार तो विट्ठल भगवान् पर है। अब मेरा जीवन- क्रम सदा ऐसा ही रहेगा और मेरा जीवन निर्वाह भगवान् पांडुरंग ही करेंगे। पर मैं यह नहीं चाहता कि मेरे कारण तुमको किसी तरह की हानि पहुँचे। इसलिए तुम अपना भाग लेकर अलग हो जाओ और मेरी चिंत्ता न करो।" यह कहकर उसने आधे ऋण- पत्र कान्हाजी को दे दिये और अपने हिस्से के उसी समय नदी में प्रवाहित कर दिए। इस घटना का वर्णन करते हुए कुछ समय पश्चात् संत तुकाराम के एक शिष्य ने लिखा था-

    "जब तक अनुभव न हो तब तक पुस्तकों में लिखा ज्ञान प्रायः निरर्थक रहता है। इसी प्रकार हमारा जो धन दूसरों के कब्जे में है, वह भी व्यर्थ होता है। इससे मन में हमेशा खराबी पैदा होती रहती है। अमुक मनुष्य के पास से इतना लेना है, पर देगा या नहीं देगा ?? न जाने क्या होगा ?? इस प्रकार की तरह- तरह की चिंताएँ और दुराशा मन में लगी रहती हैं। इसलिए तुकाराम ने अपने सारे कागज- पत्र इंद्रायणी नदी में डाल दिये। इसके पीछे उन्होंने कभी द्रव्य का स्पर्श नहीं किया। दरिद्रता के सब प्रकार के दुःख उन्होंने सहन कर लिए, माँगकर भी निर्वाह कर लिया, पर द्रव्य को कभी न छूने का निश्चय करके वे धन के फंदे से सदा के लिए छुटकारा पा गये।"

जीवन को सुखी बनाने के लिए ऐसे कार्यों से बचना आवश्यक है, जिनमें अन्य लोगों से विवाद, झगड़ा और संघर्ष होने की विशेष रूप से संभावना रहती है। लेन- देन अथवा ब्याज पर रुपया उधार देने का पेशा प्रशंसनीय नहीं है। इसमें प्रायः अभावग्रस्थ व्यक्तियों के शोषण की भावना निहित रहती है और इसलिए इस पेशे को करने वाले व्यक्तियों में स्वार्थपरता की भावना बढ़ जाती है, साथ ही अन्य व्यक्तियों के प्रति उनमें सहानुभूति की भावना भी कम हो जाती है। तुकाराम की प्रवृति जन्म से ही इस कार्य के अनुकूल नहीं थी, इसलिए उन्हें इस पुश्तैनी पेशे में आरंभ से ही असफलता होने लगी। और बाद में तो उसके कारण वे नई- नई कठिनाईयों में फँसते चले गये। इसिलए दस्तावेजों को नष्ट करके अपने मन को इस उलझन से मुक्त कर लेना उचित ही था। अध्यात्म मार्ग के पथिक को जीवन निर्वाह का पेशा भी ऐसा चुनना चाहिए, जो अपनी आंतरिक प्रकृति के अनुकूल हो और जिसमें अन्य व्यक्तियों के अनहित की कोई संभावना न हो।

 

वाराणसी गया पाहिली द्वारका!

परि नये तुका पढरी च्या!!

 

अथार्त्- "काशीजी की यात्रा की और द्वारका भी देखी, पर हमको तो पंढरपुर ही सर्वोत्तम लगता है।"

सेवा मार्ग पथिक-

         सांसारिक उलझनों और व्यवसाय संबंधी कुटिलताओं के कारण तुकाराम का जीवन दुःखमय हो गया था और इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उनके मन में वैराग्य की भावना सुदृढ़ हो गई। यों तो संसार में अनगिनत लोगों का जीवन अभावपूर्ण और दुःखी होता है, असहाय कष्ट आ पड़ने पर उनको वैराग्य भी हो जाता है, पर यह वैराग्य क्षणिक होता है। ऐसे वैराग्य को ज्ञानियों ने 'शमशान-वैराग्य' कहा है। ऐसे वैराग्य शमशान-भूमि से बाहर आते ही समाप्त हो जाता है, क्योंकि वह ऊपरी होता है, चार आँसू गिरते ही ठंडा पड़ जाता है। तुकाराम दुनिया के तिकड़मों से केवल व्यथित ही नहीं हुए, वरन् उन्होंने इन झंझटो की वास्तविकता को समझकर उनकी जड़ ही काट दी। यद्यपि उन्होंने घर-गृस्थी को नहीं छोड़ा क्योंकि कर्तव्य पालन से वे विमुख होना नहीं चाहते थे, पर सांसारिक कार्यों को गौण और अध्यात्म-साधना को प्रमुख मानकर 'जीवन मुक्ति' के आदर्श को अपना लिया। सेवा-धर्म के मार्ग पर चलने वाले को इस प्रकार हानि-लाभ, प्रिय-अप्रिय, सुख-दुख में समत्व-भावना उत्पन्न करना अनिवार्य है।

     स्वार्थ- भाव के स्थान पर परमार्थ-पथ के पथिक बनने पर उन्होंने सेवाधर्म को ही ईश्वर-भक्ति का माध्यम बनाया। उनका सबसे पहला सेवा कार्य था- पूर्वजों द्वारा स्थापित विट्ठल मंदिर का जीर्णोद्वार। यह मंदिर विश्वंभर बुआ ने बनवाया था, जो तुकाराम से आठ पीढी़ पहले हुए थे। अब यह बहुत कुछ टूट-फूट गया था। तुकाराम के पास धन तो था नहीं, उन्होंने श्रमदान द्वारा इस कार्य को पूरा किया और इसी को भगवान् की 'कायिक-सेवा' मान लिया। अपने इस उदाहरण से उन्होंने प्रकट किया कि केवल कीर्तन और नाम जप ही भगवान् की भक्ति के चिन्ह नहीं है, वरन् किसी प्रकार की प्रत्यक्ष सेवा भी उसका एक आवश्यक अंग है।

   इसलिए तुकाराम ने स्वयं पहाड़ से पत्थर लाकर इकट्ठे किये, मिट्ठी भिगोकर गारा तैयार किया और दीवारें बनाई। यह सब काम उन्होंने अपना पसीना बहाकर किया। इस तरह मंदिर का जीर्णोद्वार करने से उनका स्वंय का भी जीर्णोद्वार हो गया। हृदय के अंतःस्थल में दबे हुए भाव उभरकर ऊपर आ गये, भक्ति जाग्रत् हुई और फिर इसी भक्ति ने उनको भगवान् के विराट रूप के दर्शन करा दिये। जिस मनोवृत्ति में भगवान् रहते हैं, जिस भाव से भगवान् मिलते हैं, उसी भाव को उन्होंने मंदिर के जीर्णोद्वार द्वारा अपने सामने मूर्तिमान किया। चित्त में ऐसे भाव का उदय होने पर, गारे और मिट्टी का काम करते हुए भी भगवान् की सेवा कैसे हो सकती है? इसे सच्चे भक्त ही जान सकते हैं। चंदन, धूप, नैवेद्य, आरती, प्रभाती, दंडवत्, भजन, पूजन, कीर्तन- ये सब उपासना के बहिरंग हैं। इनके साथ अगर चित्त में सच्चे भाव न हो तो ये बहिरंग बाहर के बाहर ही रह जाते हैं। चित्त में सच्चा भक्ति भाव होने पर ही ये बहिरंग आध्यात्मिक-प्रदेश में पहुँचाने का साधन बनते हैं।

   आत्मानुभव और शास्त्रीय सिद्धांत- आरंभिक जीवन में तुकाराम कुछ पढे़-लिखे थे और गृहस्थ हो जाने पर भी केवल दुकानदारी का बहीखाता कर सकने योग्य विद्या प्राप्त कर सके थे। पर उसके पश्चात् जब उनका झुकाव अध्यात्म-मार्ग की तरफ हुआ और उन्होंने एकांत में एकाग्र होकर दो-चार धार्मिक ग्रंथों का पारायण तथा मनन किया तो अनेक प्रकार के धार्मिक और शास्त्रीय तत्व स्वयमेव उन पर प्रकट हो गये। उनके अभंगों (मराठी कविताओं) में वेद, शास्त्र, पुराण, गीता, भागवत्- सबके उपदेशों का आभास मिलता है। एक 'अभंग' में वे कहते हैं-

विश्वि विश्वंभर बोले वेदांती चा सार ।

जगीं जगदीश शास्त्र बदती सावकाश।।

व्यापिलें हें नारायणें ऐसी गर्जती पुराणें ।

जनीं जनार्दन संत बोलती वचन ।

सूर्याचीया परी, तुका लोकीं क्रिडा करी।।

 

अर्थात्- "वेदांत का सार यही है कि समस्त विश्व में एक ही विश्वंभर व्यापत हैं। यह जगत जगदीशमय है, यह बात शास्त्रों से धीरे-धीरे विदित होती है, पुराण गर्जकर कह रहे हैं कि समस्त दृश्य जगत नारायण का ही रूप है। जनता में जनार्दन समाया है, यह संतो की वाणी है। इस प्रकार, जैसे भी विचार किया जाय, एक मात्र हरि ही समस्त लोक में क्रीडा़ कर रहे हैं।"

   संकीर्ण विचारों के व्यक्ति विभिन्न शास्त्रों के सिद्धांतो को लेकर जिस प्रकार दूसरों पर आक्षेप किया करते हैं, या अपने ही सांप्रदायिक विचारों को सत्य और दूसरों को निराधार बतलाया करते हैं वह धर्म-संबंधी ज्ञान का नहीं वरन् अज्ञान का द्योतक है। धर्म में सच्ची श्रद्धा, भक्ति, रखने वाला व्यक्ति तो सबमें एक ही तत्व को व्याप्त देखेगा। वेद, शास्त्र, पुराण, संतो की वाणी- यह समस्त साहित्य केवल इसी उद्देश्य से रचा गया है कि मनुष्य परमात्मा का बोध करके संशयरहित हो और जीवन-मरण के चक्र से छुटकारा पावे। जल तो एक ही है। जल, आब, नीर, वॉटर आदि उसके विभिन्न नाम है। कोई नदी के किनारे रहकर उसी जल से काम चला लेता है, कोई सरोवर के जल का व्यवहार करता है और कोई कुएँ के जल को सर्वोत्तम समझकर उसी को काम मे लाता है। नदी, कुआँ, सरोवर- इन सब का उद्देश्य एक ही है कि प्यासे जीव उनके द्वारा अपनी पिपासा को शांत करें। पर यदि कोई इस उद्देश्य की पूर्ति के बजाय इनके नामों (उपाधि) पर वाद-विवाद करने लगता है तो यह प्यास लगना नहीं माना जायेगा- इसे सच्ची जिज्ञासा नहीं कह सकेंगें। चोखामेला महार, रैदास चमार, सदन कसाई आदि बहुत नीच जाति के कहे जाते थे, पर वे सच्ची प्यास लगने से सत्संग द्वारा ज्ञानरूपी जल को पीकर कृतार्थ हो गये।

    तुकाराम को भी जन्म से शूद्र माना जाता था, इसलिए ब्राह्मण-धर्म की परंपरा के अनुसार उनको वेदाध्ययन का अधिकार नहीं था। उन्होंने कई अभंगों में स्पष्ट कहा है कि- "मुझे 'अक्षरों' के बाँचने का अधिकार नहीं है।" पर उन्होंने इस संबंध में कभी ब्राह्मणों के साथ झगड़ा नहीं किया। उनका मन इतना क्षुद्र नहीं था कि मूल तत्व को त्याग कर ऐसी निरर्थक बातों पर अपनी शक्ति लगायें। वे जानते थे कि ब्राह्मणों को वेदाधिकार होने पर भी सब ब्राह्मण वेदाध्ययन नहीं करते और जो करते हैं, वे सब संसार-सागर से पार नहीं हो जाते और अगर वे सब पार हो जाते हों तो भी इसमें हमारा क्या नुकसान है? इससे दूसरे लोगों के लिए ऊँचे उठने का रास्ता तो बंद नहीं हो जाता। भगवान् ने तो गीता ९-३ में स्पष्ट कह दिया है-

 

                      स्त्रियों वैश्या स्तथा शूद्रास्तेपि यान्ति परांगतिम् ।
इस शास्त्र-वचन के अनुसार वैश्य, शूद्र, स्त्री- सबके लिए मोक्ष का द्वार खुला है, जिनको वेदों का अधिकारी बतलाया जाता है, उनमें से थोडे़ उनका अध्ययन करने वाले थे और उनके अनुसार आचरण करने वाले तो नाम मात्र को ही थे। इसके सिवाय वेदार्थ अत्यंत गहन है, शास्त्र अपार है और मनुष्य का जीवन बहुत छोटा है। इसलिए धर्म और अध्यात्म का जो रहस्य पुराणों और भाषाग्रंथों में सुलभ रूप से मिलता है, उसी से लाभ क्यों न उठाया जाय? जिसके हृदय में सच्ची लगन है, वह विवाद में नहीं पड़ता। उसको तो जो साधन समीप में और सुलभ रूप में मिल जायेगा, उसी का अवलंबन लेकर अपना उद्देश्य सिद्ध कर लेगा। इसलिए तुकाराम ने पुराणों और संत- वाणी को ही अपने अध्ययन के लिये पसंद किया।

उन्होंने पहले ही कह दिया है-
पुंढिलांचे सोयी माभया मना चाली ।
मातेचीं आणिली नाहीं बुद्धि।।

अर्थात्- "पूर्व समय के संतो के मार्ग पर चलना, यही मेरी प्रवृत्ति है। मैंने अपनी बुद्धि से कोई नया मत ग्रहण नहीं किया है।" आगे चलकर अपनी विनयशीलता का परिचय देते हुए लिखा है- "मेरी वाणी तो मूर्ख की बकवाद है, बालक की तोतली बातों के समान है।" आप संतजनो का उचित सेवन करके, आपका आश्रय पाकर ही मेरे मुख से प्रसाद गुणयुक्त वाणी निकली है।" तुकाराम के इन उद्गारो को पढ़कर हमको गोस्वामी तुलसीदास जी की निम्न उक्ति याद आ जाती है-

 
भाषा भनिति भोरि मति मोरी।
हँसिवे जोग हँसे नही खोरी ।।
छमहहिं सज्जन मोर ढिठाई।
सुनहहिं बाल वचन मन लाई।।

 
इसमें संदेह नहीं कि तुकाराम ज्ञान के सच्चे अराधक थे, जिन्होंने बिना विशेष शिक्षा प्राप्त किये शास्त्र के मूलतत्व को ग्रहण किया, और उसे ऐसे लोकोपयोगी रूप में प्रकट किया, जिससे अभी तक लाखों व्यक्ति अध्यात्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं।

गुरू- महिमा-

 भारतवर्ष के साधकों का विश्वास है कि सद्गुरु की कृपा बिना किसी को अध्यात्म मार्ग में सफलता नहीं मिल सकती। अनेक लोग यही कहा करते हैं कि हमने ग्रंथों का अध्ययन कर लिया, अपनी बुद्धि से उनका रहस्य भी समझ लिया, अब गुरू की क्या आवश्यकता है? जो लोग इस प्रकार का विचार रखते हैं वे अंत में अहंकार के जाल में ही फँसे दिखाई पड़ते है। विद्या प्राप्त कर लेने पर भी बिना उपयुक्त मार्ग-दर्शन के उसे व्यवहार में लाना और पूरा लाभ उठा सकना बहुत कठिन होता है। श्रीमत् शंकराचार्य जैसे महान् मनीषी भी यही कह गये हैं-

 

षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या।
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति।।
गुरोंरघ्रिपद्मे मनश्चेन्न लग्नं।
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किं।।

 

अर्थात- "यदि तुमने छह अंग सहित वेद और शास्त्र कंठस्थ कर लिये और बढि़या काव्य तथा गद्य रचना करने लगे, पर गुरू के चरणों में तुम्हारा मन संलग्न नहीं हुआ तो सब निरर्थक है।"

   तुकाराम अध्यात्म-मार्ग के साधारण पथिक नहीं थे। इसलिए उन्होंने जो कोई मिल गया, उसे यों ही सहज में गुरू नहीं बना लिया। अनेकों को कसौटियों पर कसकर देखा और फिर दूर से ही प्रणाम करके विदा कर दिया। जहाँ-तहाँ ब्रह्मज्ञान की कोरी बातें सुनने में आई, पर उसके प्रत्यक्ष लक्षण कहीं देखने को नहीं मिले। उन्होंने बार- बार दीनतापूर्वक सदगुरू के लिये पुकार की, पर उनको सर्वत्र "दिखावटी पहाड़ और नींव रहित दीवारें" ही दिखलाई पडे़। तुकाराम चारों तरफ पाखंड और दंभ देखकर चिढ़ गये और उन्होंने ऐसे दंभी संतों की अपने 'अभंगों' में खूब खबर ली-

 

काम क्रोध लोभ चित्तीं, वारि-वारि दाविती विरक्ती।
तुका म्हणे शब्द-ज्ञानें जग नाडि़यलें तेणें ।।१।।
रिद्धि-सिद्धि चे साधक, वाचा सिद्ध होती एक ।।
त्यांचा आम्हासो कंटाला, पाहों नावड़ती डोलां।।२।।
दावुनि वराग्यची कला, भोगो विषययांचा सोहरणा।
ज्ञान सांगतो जनांसो, अनुभव नाहीं आपणोसी।।३।।

अर्थात- "चित्त में तो काम, क्रोध, लोभ भरा हुआ है, पर ऊपर से विरक्त का सा भाव प्रकट कर रहे हैं। ऐसे गुरू कोरे शब्द ज्ञान से दुनिया को धोका देते हैं।।१।।

 
कोई रिद्धि-सिद्धि के फेर में पडा़ है, कोई वाक्-सिद्ध बनता है। इन सबसे मेरा मन उपराम हो गया है, उनको मैं देखना भी नहीं चाहता।।२।। वैराग्य की 'चमक' दिखलाते हैं, पर स्वयं विषयों में लिप्त हैं। लोगों को ज्ञान सिखलाते हैं, पर स्वयं कुछ अनुभव नहीं रखते।।३।।
       ऐसे दंभी, अधकचरे और गुरू बनकर पेट भरने वाले 'संत' जगह-जगह बहुत-से मिल गये, पर तुकाराम के की शुद्ध और सूक्ष्म बुद्धि को सच्चे और झूठे की परख करते कितनी देर लगती थी? उन्होंने उसी समय कह दिया- "भजन और स्तुति रचने वाले संत नहीं हैं। संतो के परिवार वाले भी संत नहीं हैं। अपना घर भरकर दूसरों को वैराग्य का उपदेश करने वाले संत नहीं हैं। केवल कथा बाँचने वाले, कीर्तन करने वाले, माला-मुद्रा धारण करने वाले, भस्म लपेटने वाले, जंगलों में रहने वाले अथवा जप-तप करने वाले भी संत नहीं हैं। ये सब बाहरी लक्षण हैं, इनसे किसी की (आध्यात्मिकता) साधुता प्रकट नहीं होती।" अंत में तुकाराम ने किस प्रकार इस समस्या को हल किया, उस संबंध में अपना अनुभव वे इस प्रकार प्रकट करते हैं-

   "मैंने ज्ञानियों के यहाँ भगवान् को ढूँढ़ने की चेष्टा की, परंतु देखा कि उनके पीछे तो अहंकार पडा़ हुआ है। शास्त्र- परायण पंडितों को देखा तो वे एक-दूसरे को नीचा दिखलाने में लगे थे। आत्म-निष्ठा देखने का प्रयत्न किया, तो उनकी चेष्टाएँ उलटी ही दिखाई पडी़। योगियों को देखा तो उनमें भी शान्ति नहीं है, क्रोध के वशीभूत होकर एक दूसरे को घुड़की देते रहते हैं। इसलिए हे भगवान् ! अब मुझे किसी के सम्मुख विवश न कराओ। मैंने इन सब उपायों से थककर अब द्रढ़तापूर्वक आपके चरण ही पकड़ लिए हैं।"

    जब तुकाराम को ढूँढ़ने पर भी अपनी पसंद के माफिक सच्चा गुरू न मिला और संभवतः ब्राह्मणों ने शूद्र मानकर उनको दीक्षा का पात्र भी न समझा तो उन्होंने विठ्ठल भगवान् से ही गुरू बतलाने की प्रार्थना की। भगवान् ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके एक पुरातन संत 'बाबाजी चैतन्य' द्वारा स्वप्न में उनको 'मंत्र-दीक्षा' दिवालाई। इस संबंध में एक अभंग में कहा गया है-

   "गुरूदेव ने सचमुच मेरे ऊपर बडी़ कृपा की, पर मुझसे तो उनकी कोई सेवा न बन पडी़। स्वप्न में इंद्रायणी की तरफ स्नान के लिए जाते हुए मार्ग में वे मिले और मेरे मस्तक पर हाथ रख दिया। उन्होंने भोजन के लिए एक पाव घी माँगा, पर उसे लाना तो मैं भूल गया था। फिर कोई अनिवार्य आवश्यकता आ पड़ने से वे शीघ्र ही चले गये। और मुझे गुरू परंपरा का नाम इस प्रकार बतला गये कि प्रथम गुरू 'राघव चैतन्य' उनके शिष्य 'केशव चतेन्य' और फिर अपना नाम 'बाबाजी चैतन्य' बतलाया। मुझे 'रामकृष्ण हरि' मंत्र दिया। माह सुदी दशमी, गुरूवार को गुरू का वार समझकर मुझे स्वीकार कर लिया।"

    तुकाराम ने 'स्वप्न-दीक्षा' देने वाले अपने गुरू का जो परिचय दिया था वह काल्पनिक नहीं था मराठी के 'चैतन्य कथा कल्पतरू' नामक ग्रंथ में लिखा है कि राघव चैतन्य एक बडे़ तपस्वी हुए थे। उन्होंने मांडवी में पुष्पवती नदी के तट पर वर्षों तक घोर तपस्या की थी। उनके शिष्य कृष्ण चैतन्य हुए। एक बार किसी घटनावश इन्होंने हैदराबाद के निजाम को कुछ चमत्कार दिखाया, जिससे वह इनका भक्त हो गया और इनके सम्मानार्थ दो स्मारक बनवाए। इन्हीं 'केशव चैतन्य' के शिष्य 'बाबाजी चैतन्य' हुए, जिन्होंने तुकाराम को स्वप्न दीक्षा दी।
                                
 सिद्ध को भी साधना करने की आवश्यकता-

     कुछ लोग ऊपर लिखी घटना में यह शंका प्रकट करते हैं कि तुकाराम तो सिद्ध पुरूष थे और अपने अनुयायियों के मतानुसार संसार के कल्याणार्थ उनका आगमन बैकुंठ लोक से हुआ था, फिर उनको चित्त शुद्धि और अन्य साधनों की क्या आवश्यकता थी? उनके अभंगों में एकाध जगह कहा गया है कि "संसार को धर्म-नीति का मार्ग दिखलाने, भगवत्-भक्ति का डंका बजाने और संतों का रास्ता साफ करने के लिए मैं भगवान् का संदेश लेकर आया हूँ।" तो फिर सामान्यजनों की भाँति चित्त शुद्धि के उपाय ढूँढ़ने और उन साधनों को करके लोक-कल्यण का काम पूरा कर सकने का रहस्य क्या है? संसार का उद्धार करने के लिए ही जिनका आविभार्व हुआ है, उनका चित्त मलिन कैसे हो सकता है?

   इस शंका का समाधान यह है कि भगवान् के अंश स्वरूप अवतारों के भी जो चरित्र वर्णन किये गये हैं, वे सामान्य मनुष्यों के अनुरूप ही हैं। यदि वे अध्ययन, मनन, साधन, अभ्यास आदि के बिना ही महान् कार्यो को करके दिखला दें तो उनका उदाहरण सामान्य मनुष्यों के किस काम का? संभव है उनको कुछ विशेष दैवी विभूतियाँ बाद में प्राप्त हो जाती हों, पर मनुष्य देह धारण करने पर उनको मनुष्योचित व्यवहार ही करना चाहिए। महात्माओं के चरित्र के दो अंग होते हैं- एक दैवी और दूसरा मानुषी। दैवी अंग द्वारा वे कुछ विशेष कार्यो की पूर्ति करते हैं, जिनका कर सकना अन्य लोगों के लिए कठिन होता है, परंतु अपना सामान्य जीवन-क्रम वे अन्य सब लोगों के समान ही रखते हैं, जिससे उनका चरित्र हमारे लिए दृष्टांत, स्वरूप और अनुकरणीय हो सके। 'भगवत् गीता' के अनुसार भगवान् ने आवश्यकता पड़ने पर अर्जुन को विराट् रूप का दर्शन कराया, पर साथ में यह भी कह दिया-

 मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।(गी०३॰२३)

   इस कथन द्वारा उन्होंने वर्णाश्रम धर्म के पालन और लोक-संग्रह के आदर्श का अनुसरण करने का निर्देश किया है। तुकाराम के चरित्र में भी ये दोनों अंग दिखाई पड़ते हैं। उनहोंने बिना किसी विशेष प्रभाव के महाराज शिवाजी और ब्राह्मणतत्व के अभिमानी, सुप्रसिद्ध पंडित रामेश्वर को अपना अनुयायी बनाकर अपनी दैवी शक्ति का परिचय दे दिया। पर वैसे सदा बिलकुल सामान्य और गरीब गृहस्थ की तरह जीवन बिताया, शारीरिक परिश्रम करके उदर निर्वाह किया, आजन्म गृहस्थी की कठिनाईयों को सहन करते हुए स्त्री-बच्चों का भी पालन करते रहे। ये बातें उनकी बहुत बडी़ विशेषताएँ और महानता है। यदि वे संसार को त्यागकर साधु अथवा चमत्कारी बाबा बन जाते तो उनका चरित्र जन साधारण के लिए निरुपयोगी होता। लोग उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति रख सकते थे, पर उनका अनुकरण करके कोई लाभ नहीं उठा सकते थे। पर उन्होंने अध्यात्म मार्ग में उच्च कोटि की योग्यता प्राप्त करके भी अपना जीवन और रहन-सहन एक साधारण गृहस्थ के समान बनाये रखा, यही सबसे अधिक महत्व की बात है, जिससे सामान्य व्यक्ति भी शिक्षा ग्रहण कर सकते है।
मन को जीतना सबसे बडा़ पुरूषार्थ
     
    तुकाराम ने अपने मन को वश में करने के लिए बड़ा प्रयत्न किया था और उन्होंने अन्य अध्यात्म-प्रेमियों को यही उपदेश दिया है मनोजय के बिना आत्मजय की बात करना दंभ मात्र है। पर मन को जीतना सहज नहीं और यही कारण है कि सार्वभौम सम्राटों की अपेक्षा भी अपने मन पर विजय प्राप्त करने वाले एक लंगोटीधारी साधु को संसार में अधिक महत्व दिया जाता है। इस तथ्य को समझाते हुए तुकाराम ने कहा-

मन करा रे प्रसन्न, सर्व सिद्धि चे साधन।
मोक्ष अथवा बंधन, सुख समाधान इच्छातें।।

    अर्थात्- "भाईयों ! मन को प्रसन्न करो, जो कि सब सिद्धियों का मूल और बंधन तथा मोक्ष का कारण है। उसको स्वायत करके ही सुख की इच्छा की जा सकती है।"

      आगे चलकर वे कहते हैं "मन पर अंकुश रखना चाहिए कि जिससे जाग्रति का नित्य नवीन दिवस उदय होता रहे।" पर यह बात कहने में जितनी सहज है, उतनी ही करने में कठिन है, इस बात को भी तुकारम बहुत अच्छी तरह समझते थे। इसलिए उन्होंने भगवान् से बार-बार यही प्रार्थना की है कि वे उन्हें मन को वश में करने कि शक्ति दें। इस दृष्टि से वे निरंकुश मन की निंदा करते हुए कहते हैं- "मन को रोकने की इच्छा करें तो भी यह स्वेच्छाचारी नहीं रुकता। मेरा मन मुझे ही हानि पहुँचाता है। इसके भीतर सांसारिक प्रपंच भरा है, भक्ति तो बाहर ही दिखलाई पड़ती है। इसलिए हे भगवान् ! इस मन को मैं आपके चरणों में रखता हूँ। इस मन के कारण हे भगवान् मैं बहुत ही दुःखी हूँ। क्या मन के इन विकारों को आप भी नहीं रोक सकते? इसने मेरे मार्ग में काम, क्रोध के पर्वत खडे़ कर दिये हैं, जिससे भगवान् दूसरी तरफ ही रह गये। मैं इन पहाडो़ को लाँघ नहीं सकता और कोई रास्ता भी दिखलाई नहीं पड़ता। अब नारायण मेरे सुहृद कहाँ रहे? वे तो मुझे छोड़कर चल दिये। मन ऐसा चंचल है कि एक घडी़ या एक पल भी स्थिर नहीं रहता। इसको मैंने बहुत रोका, बाँधकर रखा, पर इससे ये और भी बिगड़ने लगता है
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