सरदार बल्लभ भाई पटेल

सन् १९४२ का विद्रोह -

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कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के भंग किये जाने के बाद देश में फिर सरकार विरोधी आंदोलन जोर पकड़ने लगा। अब कांग्रेस की शक्ति काफी बढ़ गई थी और अनेक लोगों की दृष्टि में वह भारत की अप्रत्यक्ष शासनकर्ता बन चुकी थी। भारतीय सरकारी कर्मचारियों का भी मनोभाव बदलता जा रहा था। वे जानते थे कि देश की जनता कांग्रेस के साथ है और वह किसी भी दिन शासन की बागडोर ग्रहण कर सकती है। इसलिए अब कांग्रेसीनेताओं के परामर्श और भावी कार्यक्रम इसी दृष्टिकोण को लेकर होते थे कि भारत का शासन भारतीय जनता के प्रतिनिधियों की दृष्टि से किस प्रकार चलाया जाए? उन्होंने माँग की कि भारत सरकार को अपने युद्ध संबंधी निर्णयों में भारतीय जनता के प्रतिनिधियों की सम्मति लेनी चाहिए अन्यथा हम युद्ध का विरोध करेंगे। जब ब्रिटिश सरकार ने इस बात पर कोई ध्यान न दिया तो कांग्रेस की कार्य- समिति ने 'युद्ध विरोधी सत्याग्रह' आरंभ कर दिया। इसमें गांधी जी द्वारा चुने हुए व्यक्तियों को एक- एक करके युद्ध विरोधी भाषण करके जेल जाना था। सबसे पहला सत्याग्रही होने का गौरव विनोबा भावे को दिया गया, क्योंकि गांधीजी की दृष्टि में वे आदर्श अहिंसावादी और सत्याग्रह के मर्म को समझने वाले व्यक्ति थे। इस संबंध में गुजरात और सौराष्ट्र को विशेष रूप से तैयार करने के लिए सरदार पटेल विभिन्न स्थानों का दौरा करने लगे और जनता को अपने जन्मसिद्ध अधिकार 'स्वराज्य' के लिए पूर्ण रूप से तैयार हो जाने को समझने लगे। उन्होंने कहा-

"राष्ट्रीय भावना को संसार की कोई शक्ति नष्ट नहीं कर सकती। ब्रिटिश सरकार पूछती है कि- "यदि वे इस देश को छोड़कर चले जायें तो हमारा क्या बनेगा?' निश्चय ही यह एक विचित्र प्रश्न है। यह ऐसा प्रश्न है जैसे चौकीदार अपने स्वामी से कहे कि 'यदि मैं चला जाऊँ तो आपका क्या होगा?" इसका उत्तर यही होगा कि- 'तुम अपना रास्ता नापो। या तो हम दूसरा चौकीदार रख लेंगे या हम अपनी रखवाली आप करना सीखजायेंगे।' पर हमारा यह चौकीदार जाता नहीं, वरन् मालिक को ही धमकाता है।"

सरदार पटेल ने भी १७ नवंबर १९४० को व्यक्तिगत सत्याग्रह करने की घोषणा की। पर पुलिस ने दिन निकलने से पहले ही उनको गिरफ्तार कर लिया। पर जेल में वे बीमार हो गये और उनका आँतों का रोग ऐसे भयंकर रूप में उभर आया कि मृत्यु की आशंका होने लगी। सरकारी डॉक्टरों ने इसका इलाज ऑपरेशन करना बताया। पर यह ऑपरेशन भी इतना भयंकर होने को था कि उसमें जान को जोखिम का प्रश्न था। सरकारी अधिकारियों ने इस जिम्मेदारी से बचने के लिए सरदार को नौ- दस महीने बाद ही जेल से छोड़ दिया। बाहर आने पर जब उनके निजी डॉक्टरों ने जाँच की तो उन्होंने ऑपरेशन के बजाय दवाओं का प्रयोग करने की सम्मति दी। कई महीने तक एलोपैथिक और होम्योपैथिक चिकित्सक दवाएँ देते रहे, पर किसी से विशेष लाभ न हुआ। तब गांधी जी ने उनको सेवाग्राम (वर्धा) बुलाकर प्राकृतिक चिकित्सा की सलाह दी। प्राकृतिक चिकित्सा से हालत में काफी सुधार हुआ, पर उस समय निरंतर बदलने वाली राजनीतिक परिस्थितियों के कारण उनका एक स्थान पर जमकर कई महीने तक रह सकना असंभव था। इसलिए दो महीने तक वर्धा में रहकर वे पुनः अपने कार्य क्षेत्र में आ गए।

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