सरदार बल्लभ भाई पटेल

दो सच्चे और राष्ट्र- सेवक मित्र

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     नेहरू जी और सरदार पटेल के मतभेद की यह कहानी बडी दिलचस्प और साथ ही शिक्षाप्रद भी है। इसका विश्लेषण करने से हम जान सकते हैं कि 'गीता' में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को अनासक्त कर्मयोग का जो उपदेश दिया था, उसका पालन किस प्रकार किया जाता है। वास्तव में नेहरू जी और पटेल साहब दोनों ही इतने महान् व्यक्ति थे कि देश का शासन- संचालन करना उनके लिए कठिन न था। पर दोनों में एक- एक गुण की प्रमुखता थी, जिसे देखकर महामानव गांधी जी ने नेहरू जी को अंतर्राष्ट्रीय और पटेल जी को राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने के लिए अधिक उपयुक्त समझा। सरदार पटेल नेहरू जी से चौदह वर्ष बडे थे और राष्ट्रीय संग्राम में उनकी सेवाएँ भी कम न थीं, पर गांधी जी के भाव को समझकर उन्होंने नेहरू जी को प्रधानमंत्री और स्वयंउपप्रधानमंत्री रहना स्वीकार किया। इन दोनों का यह सहयोग भारतीय इतिहास में ही नहीं संसार के इतिहास में भी महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। यदि हम चाहें तो इसकी तुलना 'गीता' के धनुर्धन अर्जुन और सारथी कृष्ण से भी कर सकते है। तभी इसका जिक्र करते हुए 'भारतीय कांग्रेस' के इतिहास लेखक तथा सुप्रसिद्ध राजनीतिक नेता डॉ० पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा था-

      "इस बात पर प्रायः आश्चर्य प्रकट किया जाता है कि यदि हम इन दोनों विरोधियों का सहयोग इतना सुखदायक, इतना उपयुक्त और इतना एकाकार न होता तो दिल्ली की केंद्रीय सरकार की कैसी दशा होती? यदि दो मित्र एक- दूसरे की बात को हमेशा काटते रहें तो उनका सहयोग आदर्श नहीं हो सकता। यदि दो साथी एक- दूसरे के ऊपर सदा आक्रमण करते रहें तो वे कोई उन्नति नहीं कर सकते हैं और न कोई निर्णय कर सकते हैं। पर हमारे यह दोनों नेता बिल्कुल भिन्न प्रकार के हैं। अतएव हमको उनकी पृथक्- पृथक् विशेषताओं को समझना चाहिए, जिसके कारण वे एक- दूसरे को उपयोगी सहयोग देते रहें।"

      यह कहना तो अतिशयोक्ति होगी कि सरदार पटेल और नेहरू जी का दृष्टिकोण एक था, किंतु वे विभिन्नता में भी एकता के अद्भुत उदाहरण थे। एक हाथ की कोई भी दो अँगुलियाँ एक जैसी नहीं होतीं। एक माता- पिता की संतान कोई दो भाई एक जैसा न तो सोचते, न अनुभव करते और न कार्य करते हैं। एक- दूसरे से मतभेद रखना और भिन्न- भिन्न मार्ग पर चलना स्वाभाविक है। हमारे इन दोनों नेताओं के मतभेद केवल अपनी- अपनी प्रकृति के कारण ही नहीं थे, वरन् भारत सरकार में अपने- अपने विभागों के कारण भी थे। गृहमंत्री को आंतरिक सुरक्षा तथा शांति की उच्चतम भावना को बनाये रखना पड़ता है, जबकि प्रधानमंत्री को किसी विशेष मामले या स्वीकृत नीति के संबंध में विदेशों की प्रतिक्रिया को ध्यान में रखना पड़ता है। पर हमारे पूज्य सरदार और प्यारे नेहरू दोनों ने ही सहयोग कला में अपनी उच्च योग्यता का परिचय दिया।"

     इन दोनों महान् नेताओं का सहयोग व्यावहारिक रूप में किस प्रकार प्रकट हुआ, यह कांग्रेस के एक उच्च कार्यकर्ता तथा सभी नेताओं से संपर्क रखने वाले श्री हरिभाऊ उपाध्याय के इस लेखांश से विदित हो सकता है-

    पं० जवाहरलाल नेहरू तथा सरदार के मिजाज में बहुत अंतर था। यहाँ तक कि उन दोनों की कार्यप्रणाली भी एक- दूसरे से भिन्न प्रकार की थी, किंतु भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात् सरदार नेहरू जी को अपना नेता मानने लगे थे। इसके बदले नेहरू जी सरदार को अपना परिवार का सबसे वृद्ध पुरुष मानते थे। दोनों के मतभेद के विषय में प्रायः अफवाहें फैल जाती थीं और विभेदात्मक नीति वाले अत्यंत प्रसन्न होकर उनमें फूट पड़ जाने की आशा करने लगते थे, किंतु सरदार ने कभी पानी को सिर से ऊपर नहीं निकलने दिया। यदि कोई उन दोनों में से किसी की भी नीति पर आक्रमण करता तो उक्त आलोचक को वह दोनों फटकार देते। वे दोनों एक- दूसरे के कवच थे। एक कांग्रेसी कार्यकर्ता ने, जिसे सरदार का विश्वस्त समझा जाता था, बतलाया कि- "सरदार ने मुझसे अपनी मृत्युशैय्या पर गुप्त रीति से कहा था कि हमको नेहरू जी की अच्छी तरह देखभाल करनी चाहिए, क्योंकि मेरी मृत्यु से उनको बहुत दुःख होगा।" इसी प्रकार की घटना नेहरू जी की भी है। सरदार पटेल अपने व्यंग के लिए प्रसिद्ध थे और एक दिन नेहरू जी भी उनके व्यंग के शिकार हो गये।

उस समय उपस्थित मित्र ने इसका जिक्र नेहरू जी से कर दिया, तो नेहरू जी ने उत्तर दिया- "इसमें क्या बात है? आखिर एक बुजुर्ग के रूप में उनको हमारी हँसी उडाने का पूर्ण अधिकार है। वे हमारी चौकसी करने वालेहैं।" नेहरू जी के उत्तर से लाजवाब होकर वे सज्जन शीघ्र ही वहाँ से चले गये। 

     भारतीय राष्ट्र का निर्माण करने वाले इन दोनों महापुरुषों की महिमा इतनी अधिक है कि बहुत वर्ष बीत जाने पर भी लोग उनका स्मरण करते रहेंगे। आज भी किसी राष्ट्रीय संकट के समय जनता सरदार पटेल को याद करती है। इसी प्रकार अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के गंभीर हो जाने पर लोग नेहरू जी को याद करते रहते हैं। वर्तमान समय के खाने- कमाने वाले नेताओं से उनकी कोई तुलना नहीं की जा सकती। उनको राजनीतिक नेता के बजाय राजनीतिक तपस्वी कहना अधिक उचित होगा। उन्होंने देश के लिए कितना त्याग और कष्ट सहन किया, इसे सब कोई जानते हैं।

उनका 
बडे से बडा विरोधी यह नहीं कह सका कि, उन्होंने इन कार्यों से किसी प्रकार का निजी लाभ उठाया। यदि अन्य व्यक्तियों की तरह ये भी अपना धंधा करते रहते तो सहज मे धनीमानी बनकर खूब आराम का जीवन बिता सकते थे। पर इसके बजाय उन्होंने दिन- रात कठिन परिश्रम करके बदले में जेल का जीवन व्यतीत किया और जान- बूझकर हर तरह की हानि उठाई। प्रत्येक 'नेता' कहे जाने वाले को इस कसौटी पर किसी हद तक खरा उतरना ही चाहिए। 

  सरदार पटेल राष्ट्रभक्त होने के साथ ही भारतीय संस्कृति के भी महान् पृष्ठपोषक थे। वे सदा अत्यंत सादी देशी ढंग की वेशभूषा में रहते थे और घर का वातावरण प्राचीन ढंग का ही रखते थे। भारत का बँटवारा हो जाने के पश्चात्  नवंबर १९४७ में जब वे सौराष्ट्र का दौरा करने गये तो आरंभिक मुसलमान आक्रमणकारियों द्वारा तोडे गये सोमनाथ के मंदिर को भी देखा। उसकी दुर्दशा देखकर उनको हार्दिक कष्ट हुआ और उसी समय उसके पुनः निर्माण का संकल्प कर लिया। सरदार की अपील पर बहुत थोडे़ समय में ही देश के सभी भागों से एक बडीधनराशि इकट्ठी हो गई और सौराष्ट्र के राजप्रमुख जामसाहब की अध्यक्षता में ट्रस्टियों का एक बोर्ड मंदिर के निर्माण कार्य की देखभाल के लिए नियुक्त कर दिया गया। कहना न होगा कि मंदिर पुनः भारत के गौरव के अनुरूप तैयार हो गया, जिसकी मूर्तिप्रतिष्ठा के महोत्सव में भारत के राष्ट्रपति डॉ० राजेंद्र प्रसाद ने भी भाग लिया।

सन् १९४८ में जब सरदार एक भारतीय युद्धपोत में बैठकर गोवा के पास होकर गुजर रहे थे तो जहाज केकमांडिंग अफसर से कहा कि हमारे सामने अभी गोवा पर अधिकार कर लो। जब कमांडर ने इस संबंध में कानूनी कठिनाईयाँ बतलाईं तो कहा- "खैर, अभी रहने दो, ऐसा करने से जवाहरलाल इस पर एतराज करेंगे।"

इस प्रकार सरदार पटेल का जीवन प्रत्येक मनुष्य के लिए एक बहुत बडा आदर्श उपस्थित करता है, वह यह कि मनुष्य को केवल कमाने- खाने की जिंदगी ही व्यतीत नहीं करनी चाहिए, वरन् देश और समाज की रक्षा का प्रश्न उपस्थित होने पर निजी स्वार्थ को त्यागकर उसी को प्राथमिकता देनी चाहिए। यदि देश और समाज का पतन हो गया तो हमारी व्यक्तिगत उन्नति भी बेकार हो जाती है। इसलिए जो कोई अपने मानव- जन्म को सार्थक करना चाहता है, उसको अवश्य ही अपनी शक्ति और साधनों का एक अंश समाज सेवा के निमित्त लगाना चाहिए। जो इसकी उपेक्षा करता है, वह एक प्रकार से बेइमानी करता है। हमारा जीवन- निर्वाह समाज के आश्रय में ही संभव होता है। यदि हम समाज- सेवा के कर्तव्य को पूरा करते है तो इसका अर्थ यह है कि हम जीवन के अंत तक समाज के ऋणी बने रहते हैं। और उसका कुपरिणाम हमको आगामी जन्म में सहन करनापडे़गा। इसलिए हमको अपने ही युग के महापुरुषों से, जिनमें सरदार पटेल का प्रमुख स्थान है, प्रेरणा लेकर देशभक्ति और समाज- सेवा के मार्ग पर चलना ही चाहिए।
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