सुभाषचंद्र बोस

देशबंधु दास के प्रति श्रद्धांजलि

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जैसा आरंभ में लिखा जा चुका है, श्री सुभाषचंद्र को देश के राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करने की प्रेरणा देने और बाद में मार्गदर्शन करके एक उच्च श्रेणी की नेता बनाने का श्रेय मुख्यतः देशबंधु चित्तरंजन दास का ही था। इसलिए जब उनके आकस्मिक देहावसान का समाचार मांडले जेल में मिला, तो सुभाषचंद्र की दशा एकवज्राहत वृक्ष की- सी हो गई। उस समय की अवस्था का वर्णन करते हुए उन्होंने एक पत्र में लिखा था-

"तुम जानते हो, आज के दिन हमारा मन किस भाव से आच्छन्न हो रहा है? मेरा विश्वास है हम सबका ध्यान इस समय एक ही तरफ लगा है और वह है- महात्मा देशबंधु का देह त्याग।जब मैंने अखबार में यह दारुण समाचार पढा़ तो आँखो पर विश्वास न कर सका। पर हाय ! वह समाचार निश्चय ही एक निर्मम सत्य था। इसके परिणामस्वरूप समस्त बंगाली जाति का भाग्य लुट गया, यही कहना पड़ता है।"

"जो सब विचार इस समय मेरे मन में उथल- पुथल मचा रहे हैं, उनको प्रकट करके मन के शोक को कम करने का उपाय भी मेरे पास नहीं है, क्योंकि ये विचार इतने पवित्र व इतने मुल्यवान हैं कि उनको अनजान लोगों के सामने प्रकट नहीं किया जा सकता पर मेरे सब पत्र तो सरकारी 'सेंसर' द्वारा पढ़कर ही भेजे जाते हैं, जो हमारे लिए एक अपरिचित व्यक्ति ही है।"

"इसके अतिरिक्त आज मेरा मन इतना विचलित और शोकाकुल हो रहा है और साथ ही मानसिक जगत् में मैं अपने को उस स्वर्गीय महात्मा के इतना निकट अनुभव कर रहा हूँ कि इस समय उनके गुणों पर ठीक- ठीक विचार करके कुछ लिख सकना बिल्कुल संभव नहीं है। मैंने उनके अत्यंत निकट रहकर आकस्मिक अवसरों पर उनकी जो छवी देखी है, उसका कुछ आभास समय आने पर दे सकूगाँ, ऐसी आशाहै।'

"साथ ही मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि उन बातों को अधिक कहने- सुनने से हमारे हृदय का शोक बढ़ता है। जीवन अधिकांश में एक 'ट्रेजेडी' (दुःखांत नाटक) है। यह हमारे ऊपर आने वाली इस शोकपूर्ण घटना से सिद्ध होता है। हम किसी प्रकार इसको शांत चित्त से सहन नहीं कर सकते। न तो हम इतने बडे़तत्वज्ञानी (दार्शनिक) हैं और न ऐसे ढो़गी हैं कि हम कह सकें कि चाहे कैसा भी कष्ट और दुःख आ जाय, हम उसको संतुलित भाव से सहन कर सकते हैं। बरट्रैंड रसेल ने जहा है कि- 'जीवन निश्चय ही संपूर्ण रूप से एक ऐसा दुःखांत दृश्य है, जिससे सब कोई बचना चाहते हैं, मेरा विश्वास है कि केवल कोई निष्कलंक साधु अथवासाधुत्व का ढोंग करने वाला ही इस उक्ति का प्रतिवाद कर सकता है।"

"पर ऐसे भी कुछ व्यक्ति होते हैं, जो तत्वज्ञानी अथवा भावुक न होते हुए भी सब प्रकार की यंत्रणाओं को शांत भाव से सहन कर लेते हैं। ऐसे तत्वज्ञानहीन व्यक्ति अपना एक पृथक् ही 'आदर्श' बना लेते हैं और उसेबडा़ महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ मानकर उसी की उपासना करते रहते हैं। वे तरह- तरह के दुःखों और यंत्रणाओं के साथ संघर्ष करते समय उसी 'आदर्श' से साहस और भरोसा प्राप्त करते हैं। यहाँ पर जेल में मेरे साथ अनेक ऐसे कैदी हैं जो भावुक अथवा दार्शनिक नहीं हैं, तब भी वीरों की तरह सब कष्टों को शांत भाव से सहन कर लेते हैं। जेल के एक अधिकारी ने मुझे बताया कि फाँसी पाने वाले एक कैदी ने उसके सामने स्वीकार किया कि उसने वास्तव में एक व्यक्ति की हत्या की थी। जब उससे पूछा गया कि उस कार्य के लिए अब तुमको कुछ पश्चात्ताप होता है कि नहीं, तो उसने कहा कि- "मुझे बिल्कुल खेद नहीं है, क्योंकि उस व्यक्ति के विरुद्ध मेरा दोषारोपण न्याययुक्त था।' इसके बाद वह फाँसी के तख्ते पर खडा़ हुआ और प्राण दे दिये, पर उसके चेहरे पर एक शिकन भी नहीं आई। जेलखानों में ऐसे उदाहरण बहुत पाये जाते हैं।" यह सत्य है कि अपराध करने वाले और जेल जाने वाले व्यक्तियों में से अनेक ऐसे होते हैं, जो अशिक्षित होने पर भी अच्छा चरित्र और ऊँचा मनोबल रखते हैं और किसी विशेष परिस्थिति में पड़कर ही वैसा दंडनीय कार्य कर बैठते हैं। ऐसे अपराधियों के साथ यदि विशेष व्यवहार किया जाय तो वे बहुत अच्छे और उपयोगी नागरिक बन सकते हैं। सुभाष बाबू ने इस संबंध में देशबंधु दास का एक उदाहरण दिया है। जब वे असहयोग आंदोलन के संबंध में जेल- जीवन व्यतीत कर रहे थे, तो उनको सेवा- कार्य के लिए एक कैदी दिया गया था। देशबंधु का हृदय बडा़ कोमल था, इसलिए उनका ध्यान इस कैदी की तरफ चला गया। वह कैदी एक 'पुराना पापी' था;आठ बार जेल की सजा काट चुका था। वह देशबंधु के प्रभाव से अनजाने में ही बहुत कुछ बदल गया और अपनी इच्छा से ही उनके समस्त कार्यों को बहुत अच्छी तरह संपन्न करने लगा और एक प्रकार से उनका भक्त बन गया। जेल से छूटते समय देशबंधु ने उससे कहा कि- "जब वह अपनी सजा काटकर छुटकरा पाये तो अपने पुराने साथियों के पास न जाकर उनके घर चला आवे।" कैदी ने इसे स्वीकार कर लिया और ऐसा ही किया। कुछ ही समय में उसका स्वभाव बदल गया और वह एक बहुत अच्छा कार्यकर्ता बन गया।

बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार श्री शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने देशबंधु दास के संबंध में एक लेख 'स्मृति कथा' 'वसुमति' (मासिक पत्रिका) में प्रकाशित कराया था। सुभाष बाबू ने उसे मांड़ले जेल में पढा, तो वह उनको बहुत पसंद आया और उन्होंने वहीं से एक पत्र चट्टोपाध्याय महोदय को धन्यवाद देने के लिए लिखा। श्री शरतचंद्र ने देशबंधु के जीवन के प्रसंगो को प्रकट करते हुए लिखा था कि- "पराधीन जाति का एक बडा़अभिशाप यह है होता है कि हमको अपने मुक्ति- संग्राम में विदेशियों की अपेक्षा अपने देश के लोगों से ही अधिकलडा़ई करनी पड़्ती है।" सुभाष बाबू ने भी इसका समर्थन करते हुए कहा- "यद्यपि यह एक कठोर सत्य है पर हमारा रोम- रोम इसका अच्छी तरह अनुभव कर चुका है और अब भी कर रहा है।"

सन् १९२७ में गया कांग्रेस के समय देशबंधु दास की स्थिति अकस्मात् बहुत बदल गई थी। जो व्यक्तिबैरिस्ट्री में प्रति वर्ष लाखों रुपया कमाता था और उसे उदारतापूर्वक लोगों की सहायतार्थ खर्च कर डालता था इस समय राजनीतिक आंदोलन के संबंध में मतभेद हो जाने से छोटे- छोटे लोगों को भी उसकी निंदा- कुत्सा करने का अवसर मिल गया था- श्री शरतचंद्र ने उस स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा था- "कोई सहायक नहीं है, धन नहीं है, अपने अधिकार में कोई समाचार- पत्र नहीं है। अत्यंत छोटे लोग भी बिना गाली के बात नहीं करते- देशबंधु की यह कैसी दशा हो गई? जब वे गया से लौटकर कलकत्ता आये तो बंगाल के सब अखबारअसत्य और अर्द्धसत्य बातें लिखकर विरोधी प्रचार कर रहे थे। हमारे पक्ष की बात कहने वाला अथवा हमारे वक्तव्य को भी स्वेच्छापूर्वक स्थान देने वाला कोई समाचार- पत्र न था। जिस घर में एक समय बैठने को स्थान नहीं मिलता था, उसमें क्या मित्र और क्या शत्रु- किसी के पैरों की धूल नहीं पड़ती थी। फिर जब समय बदला तो बाहरी लोगों और पद प्राप्त करने के अभिलाषियों की इतनी भीड़ वहाँ पर होने लगी कि अपने खास कार्यकर्ताओं को बात करने का मौका भी नहीं मिलता था।"

स्वार्थ में डूबी हुई दुनिया का यह एक स्पष्ट चित्र है, जिससे किसी प्रकार के लाभ की आशा होती है, अपना कोई मतलब पूरा होता जान पड़ता है, उससे लोग अनेक बहानों से जान- पहिचान निकालकरठकुरसुहाती बातें करने लगते हैं और जब मतलब निकल जाता है अथवा वह शक्तिहीन हो जाता है तो कोई उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता, पर देशबंधु दास इतने अधिक उदार और विशाल हृदय वाले महापुरुष थे कि लोगों की इस स्वार्थपरता को खूब अच्छी तरह समझते हुए और उनकी दुरंगी नीति को देखते हुए भी किसी को यथासंभव निराश नहीं करते थे। वे तन- मन धन से प्रत्येक आगंतुक की अभिलाषा को परिस्थिति के अनुसार पूरा करने का प्रयत्न अवश्य करते थे। इस कार्य में उन्होंने प्रायः अपना सर्वस्व लगा दिया करते थे और इसीलिए लाखों रु॰ प्रति वर्ष कमाने पर भी सदा सामान्य आर्थिक अवस्था में रहते थे।

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