सुभाषचंद्र बोस

देश निर्वासन और बीमारी

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सुभाष बाबू के प्रभाव को इस प्रकार बढ़ते देखकर सरकार को उनसे बडा़ डर पैदा हो गया। वे बडे़ निडर और साहसी थे और अपने भाषणों में सरकार की कडी़ आलोचना करने में जरा भी संकोच नहीं करते थे। इसके फल से भारतीय प्रजा में विद्रोही- भाव उत्पन्न होते थे और अंग्रेजी सरकार का प्रभाव क्षीण होता था। दूसरी बात यह भी थी कि सरकार को अपने सी॰ आई॰ डी॰ विभाग (जासूसों) से यह खबर मिली थी कि सुभाष केवल कांग्रेस और युवक- दल का ही आंदोलन नहीं चलाते वरन् गुप्त रूप से बम और पिस्तौल चलाने वाले क्रांतिकारियों से भी छिपे तौर पर संबंध रखते हैं और उनकी सहायता करते रहते हैं। कुछ समय तक कलकत्ता की जेल में रखकर आपको मांडले (बर्मा) की जेल में भेज दिया गया, जहाँ इससे सोलह- सत्रह वर्ष पूर्व लाला लाजपतराय और लोकमान्य तिलक को रखा गया था। वहाँ पर न तो कोई आपका परिचित था और न वहाँ के लोगों की भाषा आप समझते थे। इसलिए उस एकांतवास में धार्मिक साहित्य पढ़ने लगे। आपका विचार पहले ही इन विषयों की तरफ था और आप लड़कपन में एक बार किसी संन्यासी गुरु की खोज में भटक भी चुके थे। इसलिए इस प्रकार के अध्ययन का प्रभाव आप पर बहुत कल्याणकारी सिद्ध हुआ।

पर बर्मा की जलवायु आपके लिए अनुकूल सिद्ध नहीं हुई और कुछ ही समय बाद अस्वस्थ रहने लगे। इसी समय देशबंधु दास की मृत्यु हो गई और इसका प्रभाव भी आपकी मानसिक अवस्था और स्वास्थ्य पर बहुत खराब पडा़। रहन- सहन और खान- पान में बहुत परिवर्तन हो जाने से आपको कई प्रकार की उदर- व्याधि हो गईं और धीरे- धीरे निर्बलता इतनी बढ़ गई कि अधिकतर चारपाई पर ही पडे़ रहने लगे। जब यह समाचार भारत में पहुँचा तो जनता में रोष की एक लहर व्याप्त हो गई और लोग सरकार पर दोषारोपण करने लगे कि वह देश के प्रसिद्ध नेताओं को इसी प्रकार जेल में घुला- घुला कर मार डालना चाहती है। सुभाष बाबू के घर वाले और इष्ट मित्र भी सरकार से लिखा- पढी़ करने लगे, पर सुभाष बाबू के मन में उस समय भी एक आध्यात्मिक भाव प्रस्फुटित हो रहा था और साथ ही भारतीय जेलों के सुधार की योजना बन रही थी। उन्होंने उस समय अपने एक मित्र श्री दिलीपकुमार को लिखा था-

"तुमको मेरे जेल में रखे जाने से मानसिक आघात लगा, यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ। पर जब हम इस विषय में गंभीर भाव से विचार करते हैं तो हमको यह एक आध्यात्मिक घटना की तरह जान पड़ती है। मैं यह तो नहीं कहता कि जेल में रहना मुझे पसंद है। ऐसा कहना तो स्पष्ट ढोंग होगा। इतना ही नहीं, मैं यह कह सकता हूँ कि कोई सज्जन और सुशिक्षित व्यक्ति जेल में रहना पसंद नहीं करेगा, क्योंकि जेल खाने की संपूर्ण आब- हवा ही ऐसी होती है कि वह मनुष्य को विकृत- अमानुष बना देती है। मेरा यह कथन समस्त जेलों पर लागू होता है। मेरा विचार है कि अधिकांश अपराधियों की जेल में नैतिक उन्नति नहीं होती, वरन् वे और भी हीन हो जाती हैं। कितनी ही जेलों में रहकर और वहाँ की दशा का निरीक्षण करने से उनके सुधार की आवश्यकता मुझे स्पष्ट जान पड़ने लगी है। भविष्य में इस संबंध में आवश्यक कदम उठाना हमारा कर्तव्य होगा।" "इस व्यवस्था में सबसे आवश्यक बात है- एक नवीन मनोभाव और अपराधी के प्रति एक सहानुभूति। अपराधी में दोष को एक प्रकार की बीमारी ही समझना चाहिए और उसी भावना से उसका उपाय करना चाहिए। अभी तक जेलों में दंड- विधान का आधार वास्तव में 'प्रतिशोध- मूलक' है, अब हमको उसे 'संस्कार- मूलक' बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।"

"मेरे मन में आता है कि मुझे स्वयं जेलों में रहना न पडा़ होता, तो मैं जेल में रहने वाले किसी अपराधी को सहानुभूति की दृष्टि से नहीं देख सकता था। इसलिए मेरी ऐसी धारणा बनती जाती है कि हमारे साहित्यिकों तथा कलाविदों को यदि जेल- जीवन की कुछ जानकारी होती, तो उनकी रचनाएँ इस दृष्टि से कहीं उच्चकोटि की हो सकती थीं।"

"जब मैं इस समस्त घटना पर गंभीरतापूर्वक विचार करता हूँ तो मेरे हृदय में यह धारणा उत्पन्न होती है। कि मेरे इस समस्त दुःख और कष्ट सहन के पीछे एक महान् उद्देश्य छिपा है। प्रायः सभी सुशिक्षित व्यक्तियों की कारावास की दशा में इस प्रकार का एक दार्शनिक भाव, उनके हृदय में शक्ति का संचार करता रहता है। मैं भी ऐसा ही अनुभव कर रहा हूँ। अब तक मैंने जो पढा़ व सुना है और जीवन के संबंध में मेरी जो धारणा है, उसके आधार पर अपने मनोबल को ऊँचा रख सकता हूँ, पर मेरा कष्ट केवल मानसिक अथवा आध्यात्मिक नहीं है। वह तो शरीर का कष्ट है। आत्मा तो प्रायः शक्तिशाली रहती है, पर देह समय- समय पर दुर्बल हो जाती है।"

"मैं अनुभव द्वारा इस निर्णय पर पहुँचा हूँ की जेल में किसी लंबी मियाद वाले कैदी के लिए सबसे बडी़विपत्ति यही है कि अनजाने में ही उसके ऊपर अकाल- वार्द्धक्य (समय से पूर्व की वृद्धावस्था) का आक्रमण हो जाता है। तुम बाहर रहने वाले इस बात की कल्पना नहीं कर सकते कि लंबी कैद के फलस्वरूप मनुष्य की देह और मन धीरे- धीरे कैसे अकाल- वृद्ध हो जाते हैं। इसके कितने ही कारण होते हैं, जैसे- खराब भोजन, व्यायाम अथवा चलने- फिरने का अभाव, समाज से दूर रहना, पराधीनता का बंधन, इष्ट मित्रों का अभाव और संगीत आदि जैसे मनोरंजन का न होना।" इनमें से कुछ अभाव ऐसे हैं, जिनकी पूर्ति मनुष्य अपने भीतर से कर सकता है और कई ऐसे हैं, जो बाहर से ही पूर्ण हो सकते हैं। अलीपुर जेल में योरोपियन कैदियों के लिए सप्ताह में एक बार संगीत की व्यवस्था थी, पर भारतवासियों के लिए वैसी कोई व्यवस्था नहीं है। वन- भोज, हास्य- विनोद, संगीत- चर्चा सभा- सम्मेलन, खुले मैदान में खेल- कूद, रुचि के अनुसार काव्य- साहित्य की चर्चा, ये समस्त विषय हमारे जीवन को कितना सरस और समृद्ध बना देते हैं, इस तथ्य को हम बहुत कम समझ पाते हैं। पर जब हमको जबर्दस्ती जेल में बंद कर दिया जाता है, तभी उनका वास्तविक मूल्य ज्ञात होता है। जब तक जेलों में स्वास्थ्यजनकऔर उच्च सामाजिकता के नियमों का प्रचार न होगा तब तक कैदियों का सुधार- संस्कार होना असंभव है और तब तक जेलें उन्नति के पथ पर अग्रसर करने वाली बनने के बजाय आजकल की तरह अवनति के केंद्र स्वरूप ही बनी रहेंगी।"

वास्तव में अपराध और अपराधियों की समस्या बडी़ दुरूह है। विचारशील लोग यह स्वीकार करते हैं कि अधिकांश अपराध आजकल की विपरीत, अन्यायपूर्ण सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों के कारण होते हैं। अन्यथा एक तुच्छ से तुच्छ व्यक्ति भी जेल में बंद होकर तरह- तरह के कष्ट, यंत्रणा, असुविधा सहन करना पसंद नहीं कर सकता। इसलिए जैसा सुभाष बाबू ने लिखा है, अनेक सहृदय व्यक्तियों का यही मत है कि अपराधियों और जेल में बंद कैदियों के साथ वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए जैसाकि किसी बीमार के साथ किया जाता है, अर्थात् उसके साथ जो व्यवहार किया जाए- उसमें दंड या प्रतिशोध की भावना बिल्कुल न रहे, पर उसने जिस कारणवश अपराध किया है, उस कारण को दूर करके मानसोपचार द्वारा उसके स्वभाव को बदलने की चेष्टा की जानी चाहिए। आदर्श और सिद्धांत की दृष्टि से इस विचार में कोई गलत बात नहीं है और हमारा विश्वास है कि एक समय आयेगा, जब यह सिद्धांत पूर्णरूप से व्यवहार में लाया जाने लगेगा।

यह आशा करना कि यह उद्देश्य आज या शीघ्र ही पूरा हो सकता है, ठीक नहीं। इस समय अनेक व्यक्ति वर्षों से अपराध करते- करते कट्टर और निर्लज्ज बन गये हैं कि वे इस प्रकार के सह्रदयता के भावों से भीप्रवावित नहीं होते और सौ में से नब्बे के उदाहरणों में उपकारी के साथ भी उपकार करने में संकोच नहीं करते। ऐसे स्वभाव से ही दुष्ट और समाज के लिए वन्य- पशुओं के समान खतरनाक लोगों को क्षमा कर देने या कुछ मानसोपचार करके स्वाधीनतापूर्वक रहने का अधिकार देना हानिकारक ही हो सकता है, ऐसे अपराधियों का सुधार क्रमशः ही हो सकेगा। श्री बर्नार्ड शा ने एक बार लिखा था कि, जो दुष्ट व्यक्ति समाज के लिए सर्प औरभेडि़यों की तरह भयंकर और स्वभावतः हानि पहुँचाने वाले हों, उनको वैज्ञानिक साधनों से शीघ्र से शीघ्र खत्म कर देना चाहिए, जिससे वे स्वयं कष्ट पाने और दूसरों को कष्ट देने के बजाय शांतिपूर्वक दुनिया से विदा हो जायें। कुछ भी हो, जेलों की समस्या निःसंदेह समाज की सुख- शांति और भावी प्रगति के लिए विशेषमहत्वपूर्ण है और स्वयं बीमार रहते हुए भी उस पर इतनी गहराई के साथ विचार करना यह प्रकट करता है कि सुभाष बाबू ने वास्तविक रूप में अपना जीवन समाजोत्थान के लिए समर्पित कर दिया था और वे प्रत्येक दशा में उसकी समस्याओं को सुलझाने के संबंध में चिंतन करते रहते थे। उनकी सम्मति थी कि 'जेल' जैसी संस्था को- मनुष्य चाहे तो, आध्यात्मिक विचारधारा द्वारा निश्चित रूप से सुधार और उत्थान का साधन बनाया जा सकता है-

" मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि यदि जेलों में अत्याचार और अपमान का व्यवहार बंद हो जाये तो वहाँ रहना बुरा न जान पडे़गा। पर इनके अतिरिक्त जो मानसिक आघात जेल में अनुभव होते हैं, वे वास्तव में किसी अदृश्य शक्ति द्वारा ही प्रेरित होते हैं, जेल के अधिकारियों का जान- बूझकर उनमें कोई हाथ नहीं होता। यदि मनुष्य के भीतर आध्यात्मिक भाव जाग्रत् कर दिया जाए, तो वह इस प्रकार के कष्टों और अरुचिकर व्यवहार से आत्म- सुधार की प्रेरणा ग्रहण कर सकता है। जेल- जीवन से उसे ज्ञात हो जाता है कि यह संसार केवल मौज- मजा उठाने का स्थान नहीं है, वरन् इसका आंतरिक स्वरूप बडा़ कठोर और आनंद से रहित है। यह प्रेरणा मनुष्य को स्वार्थ से परमार्थ की ओर प्रेरित करने में बहुत उपयोगी हो सकती है।"

संसार में प्रत्येक पदार्थ के दो पहलू होते हैं और वही बात जेलखानों पर लागू होती है। एक व्यक्ति उसे कष्ट, उत्पीड़न और अमानवीयता का घर समझकर भयभीत होता है अथवा वहाँ जाकर इसी प्रकार का नर- पशु बन जाता है, दूसरा व्यक्ति जो संसार के सब कार्यों में परमात्मा का हाथ देखता है, जेल- जीवन का उपयोग बहुत अच्छी तरह से आत्म- सुधार के लिए कर सकता है। बाह्य दृष्टि से देखने पर भी जेल में मनुष्य का जीवन जैसा नियमित, समयानुसार प्रत्येक कार्य करने का अभ्यस्त और संयमपूर्ण बन जाता है, वैसा गृह- जीवन मेंबडी़ कठिनता से हो सकता है। यही कारण है कि जहाँ निर्बल मन और बिगडी़ हुई आदतों के व्यक्ति वहाँ जाकर रोते- धोते रहते हैं और किसी प्रकार मर- गिरकर वहाँ से निकलते हैं, वहाँ एक विचारशील व्यक्ति उसमें रहकर अपनी शारीरिक और मानसिक दशा को पहले से अधिक उन्नत बना लेते हैं और कितने ही उपयोगी कार्य संपन्न कर सकते हैं।

जब तक मानव- प्रकृति जड़- मूल से बिल्कुल नहीं बदल जाती, तब तक जेल जैसी संस्था की आवश्यकता सर्वत्र खत्म नहीं हो सकती। यह अवश्य है कि वर्तमान राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक नियमों में से विचारशीलता तथा न्यायपरायणता का समावेश हो जाने से अपराधियों की संख्या बहुत घट सकती है, तो भी मानव- प्रकृति की त्रुटियों के कारण कुछ अपराध होते ही रहेंगे और जेल जैसी किसी संस्था की आवश्यकता बनी ही रहेगी। इसलिए जेलों की समस्या पर ध्यान देना और उनमें प्रचलित अन्याय और अनाचार को मिटाकर उन्हें वास्तविक सुधार का स्थल बना देना समाज हितैषियों का एक महत्वपूर्ण कर्तव्य है।

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