सुभाष बाबू के वंश का मूल निवास स्थान बंगाल का '२४ परगना' जिला है, पर उनके पिता श्रीजानकीनाथ बहुत वर्षों तक कटक (उडी़सा) में काम करते रहे और वहीं २३ जनवरी, १८९७ को उनका जन्म हुआ। उनके पिता आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा के विशेष पक्षपाती थे, इसलिए उन्होंने अपने सब बच्चों को आरंभ से ही कटक के 'योरोपियन स्कूल' में शिक्षा दिलवाई और बाद में योरोप भेजकर उच्च शिक्षा की व्यवस्था की। सुभाष ने भी मैट्रिक तक की शिक्षा कटक में ही पाई, उसके पश्चात् कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिल होकर बी॰ ए॰ पास किया। इसी बीच में एक बार वे किसी आध्यात्मिक गुरु की खोज में घर से बिना कहे चले गये और हरिद्वार, वंदावन, काशी, बुद्ध गया आदि स्थानों में घूम- फिरकर वापस आ गये इस यात्रा में उनको यही अनुभव हुआ कि इस समय देश में आध्यात्मिकता का ऊपरी ढाँचा मात्र रह गया है, इसका सार तत्वनिकल गया है। जितने भी साधु- संन्यासियों से वे मिले, उन सबने उनको छोटे- बडे़ ग्रंथों में पढी़ हुई बातें तोते की तरह सुना दीं, पर व्यावहारिक जीवन में उनका कोई लक्षण न दिखाई दिया; और न देश, काल के अनुसार कोई महत्वपूर्ण कार्य करने की प्रवृत्ति किसी में जान पडी़।
घर लौटने पर माता को इन्होंने बडी़ दुःखित अवस्था में देखा। इनके बिना कुछ कहे- सुने चले जाने और बहुत ढूँढ़ने पर भी उन्हें पता न लगने पर वह शोक से बीमार हो गई थी। उन्होंने बडे़ क्षोभ से कहा- "तूने मेरी मृत्यु के लिए ही जन्म लिया था।" इन्होंने बहुत समझा- बुझाकर और फिर ऐसा काम न करने की प्रतिज्ञा करके उन्हें शांत किया। पिता का व्यवहार बहुत सहानुभूतिपूर्ण था। शोक तो उनको भी कम नहीं हुआ था, पर वे अपने पुत्र के उच्च विचारों और धर्म- भावना का मूल्य समझते थे। उन्होंने सुभाष के कार्य को बुरा नहीं कहा, पर उनकी सम्मति थी कि धर्म- साधन संसार में रहकर भी हो सकता है। फिर यदि संसार- त्यागकर संन्यासी जीवन व्यतीत ही करना हो तो उसके लिए कुछ तैयारी भी करना आवश्यक है कि पहले सांसारिक कर्तव्यों का पालन करके और जीवन का अनुभव प्राप्त करके संन्यास के मार्ग पर पैर रखा जाये। सुभाष बाबू ने पिता की बातों को बडी़ श्रद्धा और सम्मान के साथ सुना और फिर अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया-
(१) संसार में रहकर भी धर्म किया जा सकता है, पर सबके लिए एक ही नियम काम नहीं दे सकता, क्योंकि सबका योग और सामर्थ्य एक समान नहीं होता। अतएव प्रत्येक को उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुसार ही मार्ग बतलाना पड़ता है।
(२) त्याग के लिए अभ्यास और तैयारी की बात ठीक है, पर विभिन्न लोगों के संस्कार पृथक्- पृथक् होते हैं और त्याग का आधार मुख्यतः मनुष्य के संस्कारो पर ही होता है।
(३) कर्तव्य का निर्णय भी सापेक्ष दृष्टि से करना पड़ता है। उच्च कर्तव्य- पालन की आवश्यकता उपस्थित होने पर निम्न कर्तव्य को दबा देना पड़ता है।
पिता ने फिर पूछा कि- "शस्त्रों में जो कहा गया है कि 'ब्रह्म- सत्य जगत् मिथ्या'- इसके संबंध में तुमने क्या समझा है?" सुभाष ने कहा- "जब तक यह बात केवल मुख से कही जाती है तब तक वह एक सिद्धांत मात्र है, पर जब उसके अनुसार व्यवहार किया जाता है तब वह 'सत्य' है और उसे व्यवहार में लाया जा सकता है। जिन्होंने इस वाक्य को प्रचारित किया था, वे उसके अनुसार चलते भी थे और वे कह गये हैं कि अन्य सब लोग भी इस पर चल सकते हैं।" जब पूछा गया कि- "इसको कौन व्यवहार में लाया था और उसका प्रमाण क्या है?" तो सुभाष ने उत्तर दिया- "प्राचीन ऋषि इस सिद्धांत के अनुसार आचरण करते थे। उन्होंने जो कहा है कि- "वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम" (मैं उस परमपुरुष को जानता हूँ)- यही इसका प्रमाण है। इस समय भी विवेकानन्द ने इस आदर्श को कार्यान्वित किया है और वही मेरा आदर्श है।" इस प्रकार पिता ने उस नवीन अवस्था में ही पुत्र की आत्म- त्याग और आत्म- समर्पण की मनोवृत्ति का परिचय प्राप्त कर लिया।