सुभाष बाबू का ध्यान भारतीय नारियों के जागरण की तरफ भी जाता रहता था। वे जानते थे कि किसी समाज का उद्धार केवल पुरुषों की चेष्टा से नहीं हो सकता। पुरुष यदि क्रांति, सशस्त्र- संग्राम द्वारा स्वाधीनता प्राप्त कर भी लें तो भी समाज की प्रगति- जो कि सब प्रकार की उन्नतियों का मूल मंत्र है, बिना नारी जागरण के नहीं हो सकती। इसीलिए जिस दिन 'इंडियन मजलिस' में श्रीमती नायडू का भाषण सुना, उसी दिन उन्होंने लिखा- "आज आनंद से मेरा कलेजा दस हाथ फूल गया। मैंने देखा कि आज भी भारत रमणी में इतनी शिक्षा, दीक्षा, गुण चरित्र पाया जाता है कि वह पाश्चात्य जगत् के सामने खडी़ होकर आत्म- परिचय देने में समर्थ है। लंदन में ही एक दिन श्रीमती मित्र से बातचीत हुई। मैंने देखा कि उनके पति तो राजनीति में नर्म विचारों के हैं, पर श्रीमती मित्र पूर्णरूप से उग्रवादी थीं। श्रीमती धर भी गर्म दल की हैं। यह सब देखकर मन में विश्वास होता है कि जिस देश की महिलाओं का आदर्श इतना ऊँचा है, वह अवश्य उन्नति करेगा। यहाँ जितनी भारतीय महिलाएँ आती हैं, उन सबके हृदय में गंभीर स्वदेश- प्रेम पाया जाता है। कारण यही है कि मातृ- हृदय बडा़कोमल और साथ ही गंभीर भी होता है।
किसी भी देश तथा समाज के उत्थान के लिए नारियों का प्रगति क्षेत्र में अग्रसर होना एक अनिवार्य शर्त है संतान- पालन के रूप में पुरुष- जाति का निर्माण तो उसका प्रत्यक्ष कार्य है ही, साथ ही गहरी निगाह से विचार करने पर यह भी स्पष्ट जान पड़ता है कि किसी जाति की संस्कृति और सभ्यता का विकास भी बहुत कुछ स्त्रियों पर निर्भर होता है। पुरुष तो प्रायः बाहर रहता है और शारीरिक श्रम करके जीवन- निर्वाह की सामग्री प्राप्त करता है, पर स्त्री घर में रहकर जीवन को सुंदर और और सुरुचिपूर्ण बनाने का उद्योग करती रहती है। भारतीय संस्कृति में नारी को आदि काल से बहुत ऊँचा पद दिया गया है, उसको देवी और जगत्- जननी कहा गया है, वह इसी बात का प्रमाण है कि समाज में नारी की स्थिति वास्तव में बडी़ महत्वपूर्ण है और जब तक वह अपना कर्तव्य भली प्रकार पालन कर सकने योग्य न होगी तब तक समाज की उचित प्रगति हो सकनीसंभव नहीं।