सुभाषचंद्र बोस

राजनीतिक आंदोलन में

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सुभाष बाबू के घर वालों ने तो उनको विलायत इस आशा से भेजा था कि वे आई॰ सी॰ एस॰ की उच्च परीक्षा पास करके कोई बहुत बडी़ सरकारी नौकरी पायेंगे और अपने परिवार की समृद्धि और यश की रक्षा करेंगे, पर हुई इससे उल्टी बात। विलायत जाकर वे अंग्रेजों की नौकरी करके उनको सहयोग देने के बजाय उलटे उनके कट्टर विरोधी बन गये। जिस समय वे विलायत में थे, उसी समय अंग्रेजी सरकार के अन्यायपूर्ण नियमों के विरुद्ध गांधी जी ने सत्याग्रह संग्राम छेड़ दिया और वकील, विद्यार्थी, सरकारी नौकर सबने सरकार के साथ असहयोग करके उसका संचालन कठिन बना देने की अपील की। जब सुभाष बाबू को यह समाचार मालूम हुआ तो वे सोचने लगे कि जब गांधी जी देश की मुक्ति के नाम पर देशवासियों का आह्वान कर रहे हैं, और उन्हें अन्यायी सरकार से असहयोग करने का आदेश दे रहे हैं, तो मैं किस प्रकार सरकारी नौकरी करके उनका सहायक बन सकता हूँ? यह बात अच्छी तरह उनकी समझ में आ गई और उन्होंने आई॰ सी॰ एस॰ की परीक्षा ऊँचे दर्जे में पास कर लेने पर भी और उसी समय एक बडी़ सरकारी नौकरी मिलने का निश्चय हो जाने पर भी, उससे त्यागपत्र दे दिया।

आई॰ सी॰ एस॰ की परीक्षा पास करके भी सरकारी नौकरी को छोड़ देने वाले सबसे पहले व्यक्ति सुभाष ही थे। उनके उदाहरण से अन्य अनेक युवकों पर भी बडा़ प्रभाव पडा़ और उन्होंने आई॰ सी॰ एस॰ की परीक्षा में बैठने का विचार त्याग दिया। अनेकों ने नौकरी पाकर भी उसे अस्वीकार कर दिया। सन् १९२१ मई में उन्होंने आई॰ सी॰ एस॰ की परीक्षा पास की और उसी समय उसे त्यागकर भारत के राजनैतिक संग्राम में भाग लेने चल दिये। अनेक इष्ट- मित्रों और स्वयं ब्रिटिश सरकार के भारत मंत्री ने उनको ऐसा न करने के लिए बहुत समझाया, पर आपने अंग्रेजी सरकार की सेवा करके कलेक्टर या कमिश्नर बनने की बजाय मातृभूमि का सेवक बनकर गिरफ्तारी और जेल का जीवन जीना अधिक श्रेयस्कर समझा।

उस समय बंगाल के नेता श्री चित्तरंजन दास थे। उन्होंने लाखों रुपये आमदनी की बैरिस्टरी को त्यागकर गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया था और इस समय बंगाल में राष्ट्रीय भावना का जोरों से प्रचार कर रहे थे। सुभाष बाबू के त्याग का समाचार जानकर उनको भी बडी़ प्रसन्नता हुई और उन्होंने उनको नव स्थापित नेशनल कॉलेज का अध्यक्ष और अपने दैनिक समाचार पत्र का संचालक नियुक्त कर दिया। देशबंधु दास के त्यागमय जीवन से सुभाष बाबू और भी अधिक प्रभावित हुए और अपनी पूरी शक्ति के साथ आंदोलन में कूद पडे़। उन्होंने बंगाल के गाँव- गाँव में जाकर सरकार के अन्याय- अत्याचारों का वर्णन करना और लोगों को उसके साथ असहयोग की प्रेरणा देना आरंभ किया। उनका भाषण ऐसा ओजस्वी होता था कि हजारों विद्यार्थियों, वकीलों और सरकारी नौकरों ने सब कुछ छोड़कर आंदोलन में भाग लेना आरंभ किया। समस्त बंगाल में एक नवीन जाग्रति का दृश्य दिखाई पड़ने लगा और युवकगण विशेष रूप से सुभाष बाबू के अनुयायी बनकर सरकार की जड़ उखाड़ने में प्रवृत्त हो गये।

सुभाष बाबू के इस प्रकार बढ़ते हुए प्रभाव और आंदोलन की तीव्रता को देखकर सरकार डर गई। उसके कुछ समय पश्चात् देशबंधु दास और सुभाष दोनों को पकड़कर मुकदमा चला दिया। अदालत ने इनको६ महीने की सादी कैद की सजा सुना दी। सजा का हुक्म सुनकर सुभाष ने हँसते हुए कहा- "क्या मैंने मुर्गी की चोरी का अपराध किया है, जो इतनी कम सजा दी गई।" जेलखाने में सुभाष बाबू देशबंधु दास के साथ ही रहते थे और स्वयं भोजन बनाकर उनको खिलाया करते थे। वे श्री दास को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे और उनके प्रति अत्यंत आदर और श्रद्धा का भाव रखते थे। दास बाबू भी उन्हें पुत्र की तरह स्नेह करते थे और उनको आगे बढा़ने के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहते थे।

सन् १८२३ की गया कांग्रेस के अवसर पर कांग्रेस के नेताओं में कॉसिल- प्रवेश के प्रश्न पर मतभेद हो गया और देशबंधु दास तथा प॰ मोतीलाल नेहरू ने 'स्वराज्य- पार्टी' की स्थापना की। सुभाष बाबू यद्यपि कॉसिल प्रवेश को देश के लिए विशेष हितकर नहीं मानते थे, पर देशबंधु दास के प्रधान सहकारी होने के कारण आपने उसमें भाग लिया और जब चुनाव का अवसर आया तो भाषणों और लेखों के द्वारा इतना अधिक प्रचार किया कि बंगाल में स्वराज्य पार्टी को बहुत अधिक सफलता मिली। इस समय 'फारवर्ड' और 'बाँगलार कथा' नामक दो दैनिक पत्रों की देखरेख का भार भी आप पर ही था। इन सब कार्यों में आपको इतना समय लगाना पड़ता था कि कितने ही मित्रों के आग्रह करने पर भी वे स्वयं कॉसिल के लिए खडे़ न हो सके।

सुभाष ने समाज- सेवा के विविध कार्यों को नियमित रूप से सदैव करते रहने के लिए एक 'युवक- दल' की स्थापना की थी। कुछ समय पश्चात इस दल ने किसान आंदोलन का कार्य आरंभ कर दिया। यह प्रचार किया जाने लगा कि जमीन किसानों की है। जमींदारी प्रथा वर्तमान समय में अनुपयुक्त और अन्यायपूर्ण है। किसानों को अपनी जमीन में कुआँ खोदने, तालाब बनाने, मकान बनाने, पेड़ लगाने तथा काटने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। इस प्रकार के आंदोलन से कांग्रेस के बडे़ नेताओं को आपस में ही फूट पैदा हो जाने की आशंका हुई, इस कारण उन्होंने इसका विरोध भी किया। परंतु सुभाष बाबू अपनी धुन के पक्के थे, वे अपने मार्ग से नहीं हटे और किसानों के अधिकारों के लिए लगातार चेष्टा करते रहे।

इसी समय 'युवक दल' ने कलकत्ता कॉरपोरेशन के चुनाव में भाग लिया और सुभाषचंद्र बोस बहुमत से उसके सदस्य चुन लिए गये। आपकी योग्यता को देखकर कॉरपोरेशन के एक्जीक्यूटिव अफसर का पद आपको प्रदान किया गया। इस पद का वेतन उस समय तीन हजार रुपया प्रतिमास था, पर आपने केवल डेढ़ हजार लेना ही स्वीकार किया। इस पद का कार्य सँभालने पर आपने ऐसे अनेक युवकों को कॉरपोरेशन के दफ्तर में काम दिया, जो अब तक अपने उग्र राजनीतिक विचारों के कारण सरकार के कोपभाजन बने रहते थे। आप इस बात का भी सदा ध्यान रखते थे कि टैक्सों का भार गरीबों पर कम पडे़ और उनको किसी प्रकार का कष्ट न हो। आपने नगर की स्वच्छता की तरफ विशेष रूप से ध्यान दिया, कम वेतन पाने वालों को तरक्की दी गई। यद्यपि आपको और भी अनेक कार्यों में थोडा़- बहुत समय लगाना ही पड़ता था, तो भी कॉपोरेशन का प्रबंध इतनी आच्छी तरह किया कि जनता को उनकी योग्यता और कर्मठता का पूरा विश्वास हो गया। उन्होंने बाढ़- पीडि़तों की रक्षा का कार्य इतनी योग्यता और परिश्रम से किया कि सरकारी अधिकारियों को भी उनकी प्रशंसा करनी पडी़।

सुभाष ने समाज- सेवा के विविध कार्यों को नियमित रूप से सदैव करते रहने के लिए एक 'युवक- दल' की स्थापना की थी। कुछ समय पश्चात इस दल ने किसान आंदोलन का कार्य आरंभ कर दिया। यह प्रचार किया जाने लगा कि जमीन किसानों की है। जमींदारी प्रथा वर्तमान समय में अनुपयुक्त और अन्यायपूर्ण है। किसानों को अपनी जमीन में कुआँ खोदने, तालाब बनाने, मकान बनाने, पेड़ लगाने तथा काटने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। इस प्रकार के आंदोलन से कांग्रेस के बडे़ नेताओं को आपस में ही फूट पैदा हो जाने की आशंका हुई, इस कारण उन्होंने इसका विरोध भी किया। परंतु सुभाष बाबू अपनी धुन के पक्के थे, वे अपने मार्ग से नहीं हटे और किसानों के अधिकारों के लिए लगातार चेष्टा करते रहे।

इसी समय 'युवक दल' ने कलकत्ता कॉरपोरेशन के चुनाव में भाग लिया और सुभाषचंद्र बोस बहुमत से उसके सदस्य चुन लिए गये। आपकी योग्यता को देखकर कॉरपोरेशन के एक्जीक्यूटिव अफसर का पद आपको प्रदान किया गया। इस पद का वेतन उस समय तीन हजार रुपया प्रतिमास था, पर आपने केवल डेढ़ हजार लेना ही स्वीकार किया। इस पद का कार्य सँभालने पर आपने ऐसे अनेक युवकों को कॉरपोरेशन के दफ्तर में काम दिया, जो अब तक अपने उग्र राजनीतिक विचारों के कारण सरकार के कोपभाजन बने रहते थे। आप इस बात का भी सदा ध्यान रखते थे कि टैक्सों का भार गरीबों पर कम पडे़ और उनको किसी प्रकार का कष्ट न हो। आपने नगर की स्वच्छता की तरफ विशेष रूप से ध्यान दिया, कम वेतन पाने वालों को तरक्की दी गई। यद्यपि आपको और भी अनेक कार्यों में थोडा़- बहुत समय लगाना ही पड़ता था, तो भी कॉपोरेशन का प्रबंध इतनी आच्छी तरह किया कि जनता को उनकी योग्यता और कर्मठता का पूरा विश्वास हो गया। के साथ ही रहते थे और स्वयं भोजन बनाकर उनको खिलाया करते थे। वे श्री दास को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे और उनके प्रति अत्यंत आदर और श्रद्धा का भाव रखते थे। दास बाबू भी उन्हें पुत्र की तरह स्नेह करते थे और उनको आगे बढा़ने के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहते थे।

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