सुभाषचंद्र बोस

सुभाष बाबू का जीवन- व्रत

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इस प्रकार देश के एक महान् आत्म- बलिदानी के जीवन का अंत असमय में हो गया। इतनी अल्प आयु में और इतनी शिघ्रता से देशवासियों के हृदय में ऐसा उच्च स्थान प्राप्त करने का उदाहरण शायद ही एकाध मिल सके। सुभाष बाबू ने अठारह वर्ष की आयु में ही पिता जी से ये कहा था- "विवेकानंद का आदर्श ही मेरा आदर्शहै," और वास्तव में उन्होंने उसे कार्य रूप में चरितार्थ कर दिखाया। स्वामी विवेकानंद ने भी यौवन में प्रवेश करते ही अपनी समस्त शक्ति, विद्या, प्रतिभा देशवासियों के कल्याणार्थ समर्पित कर दी थी। वे संन्यासी बने थे, पर उस संन्यास- ग्रहण का अर्थ वर्तमान समय के अधिकांश संन्यासियों की तरह बिना कुछ परिश्रम, परोपकार किये दूसरों की कमाई पर सुख का जीवन व्यतीत करना नहीं था। स्वामी विवेकानंद ने देश के उच्च से उच्च पदवीधारी की अपेक्षा अधिक योग्यता और कर्मठता होते हुए भी उसका उपयोग अपने लिए न करके मातृभूमि के उद्धार- उत्थान के लिए किया। यही कारण है कि जहाँ देश अन्य असंख्यों संन्यासियों- स्वामियों को भूल गया, वहाँ इस संन्यासी की शताब्दी समस्त भारतीय राष्ट्र ने अपूर्व उत्साह के साथ मनाई।

सुभाष बाबू ने भी अपना जीवन पूर्ण रूप से इसी आदर्श के अनुकूल सिद्ध करके दिखा दिया। शिक्षा प्राप्त करने के क्षेत्र में अपने परिश्रम और प्रतिभा के बल पर उन्होंने ऊँची से ऊँची परीक्षायें सम्मान सहित उत्तीर्ण कीं और इतनी योग्यता प्रदर्शित की कि लोगों को यह विश्वास हो गया कि अगर वे सरकारी नौकरी करें तो अंग्रेजी राज्य के ऊँचे से ऊँचे पद तक पहुँच सकते हैं। उस दशा में राजा महाराजाओं जैसा जीवन व्यतीत करना उनके लिए सर्वथा संभव था, पर सुभाष बाबू ने उधर आँख भी न उठाकर अपना सर्वस्व, अपार योग्यता और कार्य- शक्ति मात्र भूमि के चरणों में अर्पित कर दी। वे देशोद्धार के लिए कैसा पूर्ण आत्म- समर्पण कर चुके थे, इसका कुछ अनुमान उनके इस "निवेदन" से मिलता है, जो उन्होंने मांडले जेल में से उतरी कलक्त्ता क्षेत्र के मतदाताओं (वोटरों )) के नाम लिखकर भेजा था। श्री सुभाष के राज- बंदी होने पर भी बंगाल की कांग्रेस ने उनको इस क्षेत्र से एक उम्मीदवार के रूप में खडा़ किया था और उसी संबंध में उन्होंने यह निवेदन लिखकर भेजा था-

"मेरे इस अल्प और साथ ही घटनाओं से भरे जीवन के ऊपर होकर जो आंधी- तूफान हुजर चुका है, उसी की कसौटी पर मैं अपने को कुछ जान- पहचान चुका हूँ। इससे मुझे यह निश्चय हो गया है कि युवावस्था के प्रभात काल में ही मैंने जिस संकटमय मार्ग की यात्रा आरंभ की है, उस पर मैं अंत तक चल सकूँगा। अज्ञात भविष्य को सामने रखकर जो व्रत एक दिन ग्रहण किया था, उसका उद्यापन किये बिना मैं इस मार्ग से पैर नहटाऊँगा। अपने समस्त जीवन के अनुभव और शिक्षा के द्वारा खोज करके मैंने इसी सत्य सिद्धांत को प्राप्त किया है कि "पराधीन जाति का सब कुछ व्यर्थ है, उसकी शिक्षा- दीक्षा, धर्म- कर्म सब व्यर्थ है। यदि उसका उपयोग स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए न किया जा सके।"

सुभाष बाबू के उपर्युक्त आदर्श और जिस सच्चाई के साथ उन्होंने जीवन के अंतिम क्षण तक उसका पालन किया, उसे देख- समझकर हम भी अपने पाठकों से यही कहेंगे कि वर्तमान समय में यद्यपि 'देश की पराधीनता' की समस्या हल हो चुकी है पर उससे भी बढ़कर दूसरी समस्या भारत के नर- नारियों में उनके कर्तव्य- पालन की, सत्य- व्यवहार की,आत्म- त्याग की भावना उत्पन्न करने की है। स्वधीनता प्राप्त होने सेजहां हमको इन सब सद्गुणों में उन्नति करते भारत को पुनः 'जगत्- गुरु' की प्राचीन पदवी के योग्य बनाना था, वहाँ निम्न कोटि की स्वार्थपरता और भ्रष्टाचार की दिन पर दिन वृद्धि होते देखकर थोडे़ से सच्चे देशसेवकोंको बडा़ परिताप हो रहा है। यद्यपि जब से सुभाष बाबू क देहावसान हुआ है तब से लोगों ने बार- बार उनके जीवित होने की चर्चा उठाकर उनके पति अपने प्रेम का ही परिचय दिया है। जब हम उन्हीं की तरह अपना स्वार्थ त्यागकर, अपनी शक्ति और साधनों को पूरा नहीं तो उनका कुछ भाग ही देशवासियों के उत्थान के लिए लगाते रहें।

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