"मुझे इस बात का तनिक भी दुःख नहीं है कि मुझे जेलखाने में रहना पड़ रहा है। 'माता' के लिए कष्ट सहना तो गौरव की बात है। कष्ट सहन करने में भी आनंद है। अगर ऐसा न होता तो लोग पागल हो जाते। यही कारण है कि अनेक समय कष्ट होने पर भी लोग आनंद से भरकर खूब हँसते हैं। जो चीज बाहर से कष्ट जान पड़ती हैं, वही भीतर की तरफ से देखने पर आनंद बन जाती है। यह सच है कि साल के ३६५ दिन और एक दिन के २४ घंटों में निरंतर मेरा मनोभाव ऐसा ही नहीं बना रहता, तो भी जिस देश- सेवी जेल- यात्री में यह भावना न्यूनाधिक परिणाम में न होगी, वह न तो कष्ट- सहन द्वारा जीवन को परिपुष्ट कर सकता है और ऐसी अवस्था में मन को संयत रख सकता है।"
"पर यह ख्याल मुझे अवश्य आता है कि अगर इन ११ महीनों में मैं बंगाल की जेलों में रहता, तो न मालूम आध्यात्मिक साधना में कितना अग्रसर हुआ जा सकता, पर वह तो होने वाली नहीं। इसलिए अब मैं भगवान् से यही प्रार्थना करता हूँ- "तुम अपनी पताका जिसको दो, उसे उसके ले चलने की शक्ति भी दो।"
"आज बंगाल से दूर रहने के कारण वह मुझे पहले से भी अत्यंत सुंदर और सत्य जान पड़ने लगा है। स्वर्गीय देशबंधु ने अपनी एक रचना में कहा था- "बंगाल के जल, बंगाल की मिट्टी में एक चिरंतन सत्य निहितहै।" अगर मैं एक वर्ष तक यहाँ मांडले की जेल में न रहता तो मुझे उक्त कथन की सत्यता का अनुभव नहीं हो सकता था। अब मुझे बंगाल की शस्य- श्यामला भूमि, वहाँ के मधु- गंध से पूरित आम्रकानन, मंदिरों में धूप आदि का देना, संध्या काल की आरती सबका स्मरण होता रहता है और कल्पना में भी न जाने कितने सुंदर लगते हैं।"
प्रातःकाल अथवा संध्या के समय जब मैं बादलों के छोटे- छोटे टुकडो़ को सामने से जाते हुए देखते हूँ, तो मन में आता है कि 'मेघदूत' के किसी यक्ष की तरह उनके द्वारा अपने हृदय की श्रद्धा- भावना बंग- जननी के चरणों में भिजवा दूँ।"