स्वामी दयानंद सरस्वती

स्त्री- शिक्षा का प्रचार

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समाज की उन्नति का विचार करते हुए स्वामी जी का ध्यान स्त्रियों की स्थिति की ओर भी आकर्षित हुआ। उस समय तक स्त्री- शिक्षा का किसी को ध्यान ही न था और न लोग उसकी आवश्यकता अनुभव कर रहे थे। स्त्रियाँ पूर्णतः घर की चहारदीवारी में आबद्ध थीं, और उनके अज्ञान तथा पिछडे़पन के कारण समाज की बडी़हानि हो रही थी। स्वामी जी की तीक्ष्ण दृष्टि ने शीघ्र ही इस बात को देख लिय था कि हिंदू- समाज के पतन का एक बडा़ कारण यह स्त्रियों का पिछडा़पन भी है। जब माताएँ सुयोग्य न होंगी तब तक उनकी संतान काअन्नतिशील और कर्तव्यपरायण हो सकना कठिन है।

इस दृष्टि से स्वामी जी ने आरंभ से ही स्त्री- शिक्षा पर भी बल देना आरंभ किया था और आर्य- समाजों की स्थापना के साथ ही पुत्री- पाठशालाओं के खोलने का आदेश दिया गया था। इसका ही परिणाम था कि महात्मा मुंशीराम (बाद में स्वामी श्रद्धानंद) और लाला देवराज जैसे आर्य- पुरुषों ने सन् १८९० में जालंधर में कन्या पाठशाला की स्थापना कर दी, जो आज कन्या महाविद्यालय के रूप में भारत ही नहीं विदेशों तक में प्रसिद्ध है। इस संबंध में स्वामी दयानंद जी का जीवनवृतांत लिखते हुये स्वामी सत्यानंद ने लिखा है- "स्वामी जी महाराज की यह हार्दिक कामना थी कि किसी प्रकार मातृशक्ति का सुधार हो। स्त्रियों में भी धर्म- प्रचार और शुभ शिक्षा फैले। वे अपनी कुशाग्र बुद्धि से इस सिद्धांत के मर्म को जानते थे। कि संतानों में नव- जीवन की नींव रखने वाले हाथ माताओं के होते हैं। मीठी- मीठी लोरियों के साथ और हल्की- हल्कीथपकियों से मातायें पुत्रों में वे भाव देती हैं, जो किसी भी दूसरे स्थान से प्राप्त नहीं हो सकते। जननियाँमानवजाति के जीवन की वास्तविक जड़ है। संतति के उन्नति के उच्चतम शिखर पर ले जाने के लिए जगमगातीज्योतियाँ हैं; परन्तु उस समय उन्हें ऐसी कोई आर्य देवी नहीं दीखती थीं। महाराज का हृदय इसी ऊहापोह और विचार- परंपरा में परायण था कि एकाएक उनकी सेवा में श्री रमा के पत्र आने लगे। वे पत्र पूज्य भाव से, आदर बुद्धि और भक्ति- विनय से परिपूर्ण थे। यह रमाबाई महाराष्ट्र के कौंकण प्रदेश की रहने वाली थीं और उन्होंने अपने पिता से बाल्यावस्था में ही संस्कृत का अच्छा अध्यय कर लिया था। बाद में अनाथ हो जाने के कारण वे अत्यंत कष्ट सहन करती हुई कलकत्ता पहुँच गईं और अपनी योग्यता से वहाँ के शिक्षित समाज में प्रर्याप्त आदर सम्मान की अधिकारिणी बन गई थीं। वे स्वामी जी के पास आकर उनसे एक मास तक शिक्षा ग्रहण करती रही। उस समय पंडित भीमसेनजी, ज्वालादत्त जी, ज्योतिस्वरूपजी भी विद्यार्थी के रूप में स्वामी जी से पढ़ते रहते थे। जब श्रीमती रमा अपने घर जाने लगीं तो स्वामी जी ने उनको उपदेश देते हुए कहा- "इस समय आर्य जाति की पुत्रियों की अवस्था अति शोचनीय है। वे संसार भर के भ्रमों और कुरीतियों का केंद्र बनी हुई हैं। आप आजीवनब्रह्माचारिणी रहकर उनका सुधार कीजिए।

उनको दीन- दशा से उबारिये। इस शुभ- कार्य में आर्य समाज की पद्धति पर चलते हुए आपकों धन की प्रर्याप्त सहायता प्राप्त होती रहेगी।" रमाबाई ने स्त्री शिक्षा और दुरावस्था में पडी़ स्त्रियों के उद्धार का प्रशंसनीय कार्य किया। पर आर्य समाज के अंतर्गत काम करने के बजाय किन्हीं परिस्थितियों के कारण उनको ईसाइयों से सहयोग लेना पडा़। उन्होंने कई बार इंगलैंड, अमेरिका की यात्रा की और वहाँ से अनुभव तथा साधन प्राप्त करके भारत में नारी शिक्षा संस्थाओं को अच्छा प्रचार किया। पर ईसाइयों का संपर्क होने के कारण उनको हिंदुओं का सहयोग मिलना बहुत कम हो गया, जिससे उनके कार्य का उचित विस्तार न हो सका।


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