देशोन्नति की दृष्टि से स्वामी जी ने जो अनेक प्रयत्न किए, उनमें से एक हिंदी को राष्ट्रभाषा का स्थान देना भी था। मुसलमानी शासन काल में शासन कार्य और अदालतों की भाषा फारसी हो गई थी, जो बाद में उर्दू के रूप में बदल गई। अंग्रेजी शासन में ऊँचे दर्जे का काम तो अंग्रेजी में होने लगा, पर अदालतों का तथा अन्य साधारण कचहरियों का उर्दू में ही जारी रहा। खास कर पंजाब में, जहाँ स्वामी जी का प्रचार कार्य सबसे अधिक फैला, उर्दू सर्वसाधारण की भाषा बन गई थी। केवल कुछ स्त्रियाँ धार्मिक ग्रंथ पढ़ने के ख्याल से हिंदी सीख लेती थीं, पर शिक्षा संस्थाओं तथा पुस्तकों और अखबारों में उर्दू का ही प्रचार था। स्वामी जी ने देखा कि यह बात भारतीय धर्म और संस्कृति की दृष्टि से बहुत हानिकारक है। इसलिए उन्होंने सन् १८७४ में ही जबबंबई आर्य समाज के लिए नियम बनाए, तो उसके पाँचवे नियम में यह बात लिखदी कि "प्रधान समाज मेंसत्योपदेश के लिए संस्कृत और आर्यभाषा में नाना प्रकार के ग्रंथ रहेंगे"। इसमें 'आर्य- भाषा' से उनका तात्पर्य हिंदी से ही था। लाहौर में अपने अनुयायियों का संगठन करते समय भी उन्होंने प्रत्येक आर्य- समाजी के लिए 'आर्य भाषा' सीखना आनिवार्य कर दिया था। वे हिंदी- प्रचार के लिए कितने दृढ़ थे, यह उनके जीवन- चरित्र में वर्णित निम्न घटना से विदित होता है-
"हरिद्वार में एक दिन स्वामी जी महाराज अपने आसन पर बैठे सत्संगियों को समझा रहे थे। बीच में एक सज्जन ने निवेदन किया- "यदि आप अपनी पुस्तकों का अनुवाद कराकर फारसी अक्षरों में छपवा दें तोपंजाबादि प्रांतों में जो लोग नागरी अक्षर नहीं जानते, उनकों आर्य- धर्म के जानने में बडी़ सुविधा हो जाएगी।"
"महाराज ने उत्तर दिया- "अनुवाद तो विदेशियों के लिए हुआ करता है। नागरी के अक्षर थोडे़ ही दिनों में सिखेजा सकते हैं। आर्यभाषा को सिखना भी कोई कठिन काम है? 'फारसी और अरबी शब्दों को छोड़ कर ब्रह्मावर्त की सभ्य भाषा ही 'आर्य- भाषा' है। यह अति कोमल और सुगम है। जो इस देश में उत्पन्न होकर अपनी भाषा के सीखने में कुछ भी परिश्रम नहीं करता, उससे और क्या आशा की जा सकाती है? उसमें धर्म की लगन है, इसका भी क्या प्रमाण है? आप तो अनुवाद की सम्मति देते हैं, परंतु दयानंद के नेत्र तो वह दिन देखना चाहते हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक नागरी अक्षरों का ही प्रचार होगा। मैंने आर्यावर्त भर में भाषा का ऐक्य संपादन करने के लिए ही अपने समस्त ग्रंथ आर्य भाषा में ही लिखे और प्रकाशित किए है।"
वास्तव में भाषा का प्रश्न एक बडी़ गंभीर समस्या की तरह था। किसी जाति के धर्म और संस्कृति का भाषा से भी बडा़ संबंध होता है। यदि उर्दू को प्रधानता देकर उसकी ही अधिक जानकारी हासिल करे तो हमारे विचारों में भी विदेशीपन की भावना बढ़ जायेगी। जैसा किसी विद्वान ने कहा था- "अगर हम संस्कृत और हिंदी ग्रंथों का अध्ययन करेंगे तो हम दान के लिए कर्ण, सत्य बोलने के लिए हरिश्चंद्र, वीरता के लिए भीम और अर्जुन जैसे भारतीय महापुरुषों का उदाहरण देंगे। पर यदि हम हिंदी से अनजान रहकर उर्दू फारसी के जानकार बनेंगे, तो हमको दानियों में हातिम, वीरों में रुस्तम कवियों में हसन और पुस्तकों में गुलिस्ताँ आदि की ही यादआएगी।" यह बात निश्चय ही राष्ट्रीयता की दृष्टि से घातक है। स्वामी जी इस तथ्य को भली प्रकार समझते थे, इसलिए उन्होंने आरंभ से ही अपने संगठन में हिंदी को प्रधान स्थान दिया और अपनी समस्त पुस्तकें उसी में लिखीं। यदि वे चाहते तो उन पुस्तकों को संस्कृत या अपनी मातृभाषा गुजराती में भी लिख सकते थे, पर वे राष्ट्रभाषा के महत्त्व और आवश्यकता को भली- भांति समझते थे, इसलिए उन्होंने आरंभ से ही उसकी प्रधानता की घोषणा कर दी।इससे देश भर के आर्य समाजों के सभी सदस्य किसी न किसी रूप में थोडी़- बहुत हिंदी सीख लेते हैं, और देशभर में आर्य समाजों की कार्यवाही हिंदी में ही होती है। यद्यपि अब हिंदी की उस समय की अपेक्षा प्रत्येक क्षेत्र में बहुत अधिक प्रगति हो चुकी है, फिर भी उसके मार्ग में कुछ बाधाएँ अब भी मौजूद हैं। इस कार्य के लिए स्वामी जी सभी हिंदीभाषियों के श्रद्धा के पात्र हैं।