और यह बात बहुत कुछ सत्य भी थी। कट्टर हिंदूओं से तो संघर्ष सदा ही होता रहता था, पर अनेक स्थानों पर मुसलमान भी उनके शत्रु बन जाते थे। काशी में प्रचार का जिक्र करते हुए उनके जीवन चरित्र में एक स्थान पर बतलाया गया है- "काशी में स्वामी जी मुसलमानी मत की भी त्रुटियाँ दिखाया करते थे। इससे कुछ मुसलमान बहुत रुष्ट हो गये। एक दिन सायंकाल महाराज गंगातट पर आसन लगाये बैठे थे। उसी समय दैवयोग से मुसलमानों की एक मंडली भी वहाँ आ निकली। उस टोली में से कुछ मनुष्यों ने स्वामी जी को पहिचान कर कहा कि यह वही बाबा है, जो कुछ दिन पहले हमारे मजहब के खिलाफ व्याख्यान दे रहा था। उनमें से दो बलवान् व्यक्ति बहुत अधिक आवेश में आकर आगे बढे़ और स्वामी जी को उठाकर गंगा में फेंकने का प्रयत्न करने लगे। उन दोनों ने स्वामी जी की दोनों भुजायें कंधों के पास से दृढ़तापूर्वक पकड़ लीं और उन्हें झुलाकर गंगा में फेंकने लगे। उसी समय स्वामी जी ने अपनी बाहों को खूब कस लिया और उन दोनों के साथ पानी में कूद पडे़। वे कुछ देर तक तो उनको शिकंजे में कसे रहे, पर फिर दया करके उनको छोड़कर स्वयं डुबकी लगा ली। तब वे लोग अपने साथियों के साथ हाथ में ढेला लेकर किनारे पर खडे़ रहे कि 'बाबा पानी से सिर निकालें तो उन्हें मारें ! पर स्वामी जी भी इस बात को समझते थे, इसलिए वे प्राणायाम द्वारा श्वास रोककर नदी के भीतर ही बैठे रहे। अँधेरा हो जाने पर उन उपद्रवियों ने समझ लिया कि वह बाबा पानी में डूब गया। इसलिए वे चले गये और स्वामी जी भी जल से निकलकर पुनः अपने आसन पर विराजमान हो गए। पर ऐसे भी ईसाई और मुसलमानों की कमी नहीं थी, जो स्वामी जी में पूर्ण श्रद्धा रखते थे और जिन्होंने उनके सत्संग से प्रभावित होकर अपना कुछ सुधार भी किया था। अलीगढ़ में मुसलमानों के सबसे बडे़ नेता सर सैयद अहमद खाँ स्वामी जी से भेंट करने कई बार आए। एक दिन उन्होंने कहा- "स्वामी जी, आपकी अन्य बातें युक्तियुक्त जान पड़ती हैं।" पर यह बार कि थोडे़- से हवन में वायु का सुधार हो जाता है, युक्तिसंगत नहीं जान पड़ती।" स्वामी जी ने पूछा- "आपके यहाँ कितने मनुष्यों का भोजन बनता है?" उत्तर मिला- "कोई पचास- साठ का।" स्वामी जी ने फिर कहा- "आपके भोजन में दाल कितने सेर पकती होगी?" उन्होंने कहा- "कोई छह- सात सेर।" फिर पूछा- "इतनी दाल में कितनी हींग का छोंक दिया जाता होगा?" उत्तर मिला- "माशा भर से कम तो हींग न होती होगी।"तब स्वामी जी ने सर सैयद को समझाया कि जिस तरह माशा भर हींग पचास आदमियों की दाल को सुगंधित बना देती है। उसी प्रकार थोडा़- सा हवन भी वायु को सुगंधित बना देता है। "स्वामी जी के तर्क से सभी श्रोता प्रभावित हो गए और सर सैयद उनकी स्तुति करते हुए अपने घरगऐ।
इसी प्रकार ज्वालापुर में राव ओज खाँ ने स्वामी जी के पास आकर पूछा- "महाराज ! क्या गौ रक्षा सब जीव- रक्षा से अच्छी है?" स्वामी जी ने कहा- "हाँ, गौ रक्षा सर्वोत्तम है और इसमें सबसे अधिक लाभ है। इसलिए गौ रक्षा सब मनुष्यों का कर्तव्य है।" ओज खाँ ने स्वामी जी के कथन को सत्य मानकर मांस खाना ही छोड़ दिया।
दानापुर (बिहार) में जोंस नामक गोरा स्वामी जी के पास आया और कुछ धर्मोपदेश सुनने की अभिलाषा प्रकट की। स्वामी जी ने कहा- "परमात्मा के रचे पदार्थ सबके लिए एक से हैं। सूर्य और चंद्रमा सब को समान प्रकाश प्रदान करते हैं। वायु और जलादि वस्तुएँ सबको एक- सी दी गई हैं। जैसे ये सब पदार्थ ईश्वर की देन हैं, सब प्राणियों के लिए एक से हैं, उसी प्रकार परमेश्वर प्रदत्त धर्म भी मनुष्यों के लिए एक- सा और समान होनाचाहिए।"
स्वामी जी ने फिर जोन्स से प्रश्न किया- "भलाई क्या है?" उसने कहा- "आप ही कृपा कर बताइए।" स्वामी जी ने कहा- "जिस कर्म से अधिकांश मनुष्यों का अधिक उपकार हो, उसे मैं भलाई मानता हूँ।" इस विचार को जोन्स ने भी स्वीकृत किया। तब स्वामी जी ने बडी़ योग्यता से यह समझाया कि- 'गौ रक्षा' से अधिकांश मनुष्यों को अत्यधिक लाभ होता है। इस उपदेश के प्रभाव से मि॰ जोन्स ने उसी समय 'गोमांस' त्याग की प्रतिज्ञा कर ली।
फर्रुखाबाद के भाषणों में भी, जिनमें कलेक्टर आदि प्रमुख राजकर्मचारी उपस्थित थे उन्होंने गौ रक्षा पर जोर देकर कहा- "गौहत्या से इतनी हानि हो रही है, परन्तु खेद है कि राजपुरुष इस पर कुछ भी ध्यान नहीं देते। इसमें हमारा ही अधिक दोष है। हम में एकता का सर्वथा अभाव है। यदि मिलकर गौवध बंद कराने का निवेदन करें, तो क्या नहीं हो सकता? जो लोग गौदान करते हैं, वे भी हानि- लाभ को नहीं सोचते। भोले- भाले भाई समझ लेते हैं कि गौ पुरोहित देवता के आँगन में खूँटे से बँधी रहती है। प्रत्युत बार- बार कई स्थानों से संकल्प कराई जाती है। बहुत से ऐसे भी कुल कपूत हैं जो तुरंत उसे कसाई के हाथ बेच डालते हैं।
स्वामी जी ने गौ संबंधी अंध विश्वास और हानिकारक रूढि़यों के संबंध में जो कुछ कहा- वह बिल्कुल ठीक है। लोग गाय की वास्तविक उपयोगिता और उससे होने वाले आर्थिक लाभों को तो भूल गए हैं और केवल एक मात्र उसकी "पूँछ पकड़ कर वैतरणी पार होने" की बात उनको याद हो जाती है। अहिंसा की निगाह से तो एक गाय ही क्या सभी अनाक्रमणकारी पशु सुरक्षा पशु सुरक्षा के अधिकारी हैं। किसी भी निरीह पशु को बिना कारण मारना एक पाप कर्म ही माना जायेगा। पर गाय और भैंस जैसे सर्वोपयोगी पशुओं की हत्या तो पाप ही नहीं है, समाज का भी अनहित करना है। भारतवर्ष में अभी तक दूध, दही, घी को आहार- सामग्री का सर्वोत्तम अंग माना जाता है, अतएव जो लोग उत्तम और उपयोगी दूध देने वाले पशुओं के विनाश का कारण बनते हैं। वे निःसंदेह समाज के बहुत बडे़ अहितकर्ता माने जाने चाहिए।
हिंदू- समाज में दान का बडा़ महत्व है और सामान्य मनुष्य तो जो जितना दान करता है, उसे उतना हीबडा़ 'धर्मात्मा' समझते हैं। कितने ही पुराणों का अधिकांश भाग 'दान- महिमा' से ही भरा पडा़ है? किस व्रत या तीर्थ में कितना दान देने से मनुष्य को स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त होता है, इसका जिक्र एक नहीं सौ- दो सौ और इससे अधिक बार किया गया है। पर वास्तव में इस समय यहाँ की दान- प्रणाली बिल्कुल बिगड़ गई है। तीर्थों के पंडा- पुजारी तो नवीन आगंतुकों के सम्मुख स बात का विज्ञापन करते ही रहते हैं कि अमुक व्यक्ति ने यहाँ इतने हजार का दान दिया या इस प्रकार की सामग्री बाँटी। लोग भी ऐसी बातों से प्रेरित होकर जो कुछ दान करते हैं वह बडी़ धूमधाम और प्रदर्शन के साथ करते हैं, जिससे उनकी गणना भी दानियों में होने लगे। पर वास्तव में इस प्रकार नामवरी अथवा अहंकार की तुष्टि के लिए किया गया दान उत्तम नहीं होता और 'गीता' में इसे 'तामसी' श्रेणी का बतलाया गया है। स्वामी दया नंद भी अपने उपदेश से इसी सिद्धांत का प्रतिपादन करते थे। एक भाषण में उन्होंने कहा- "अन्न- जल का दान कोई भी भूखा- प्यासा मिले उसे दे देना चाहिये। ऐसा दान पहले अपने दीन- दुःखी पडो़सी को देना चाहिए। पास के रहने वाले का दारिद्रय दूर करने में सच्ची अनुकंपा और उदारता का प्रकाश होता है। इससे वाहवाही नहीं मिलती, इसलिए अभिमान को भी अवकाश नहीं मिलता। समीपस्थ दुःखी को देखकर और पिडि़त का अवलोकन करके ही दया, अनुकंपा और सहानुभूति आदि हार्दिक भाव प्रकट होते हैं। जो समीपवर्ती दीन- दुःखिया जन पर तो दया- भाव नहीं दिखलाता, किंतु दूरस्थ मनुष्यों के लिए उसका प्रकाश करता है, उसे दयावान् अनुकंपाकर्ता और सहानुभूति प्रकाशक नहीं कह सकते। ऐसे मनुष्य का दान बाहर का दिखावा और ऊपर का आडंबर है। दान आदि वृत्तियों का विकास दीपक की ज्योति की भाँति- समीप से दूर तक फैलना चाहिए।"
"यहाँ प्रश्न उत्पन्न होता है कि- "जो निर्धन जन स्पष्ट है कि, जो अन्नादि का दान करने में असमर्थ हैं, वे अपने पडो़सी आदि को कष्ट और क्लेश में सहायता देवें। निर्बलों का पक्ष ग्रहण करें। विपन्न और आधि- व्याधिग्रस्त जनों की सेवा करें। पर- पीडि़तों और व्याकुल मनुष्यों से प्रेम करें। उन्हें मीठे वचनिं से शांति दें। ये सब दान हैं और आत्मा से संबंध रखने वाले हैं। दान नित्यप्रति निर्धन अन भी कर सकते हैं।" स्वामी जी का आशय यही था कि मनुष्य को दान किसी वास्तविक कष्ट पीडि़त या अभावग्रस्त व्यक्ति को देखकर स्वाभाविक रूप से देना चाहिए। दान पाने के लिए चारों तरफ फिरने वाले पंडा- पुजारियों और पेशेवर भिखारियों को दान देने का कोई महत्त्व नहीं और यह भी सर्वथा सत्य है कि धन का दान करने की अपेक्षा सेवा और सहायता का दान कहीं उत्कृष्ट है। पर हमारी सम्मति में तो इनसे भी उच्च कोटि का दान 'ज्ञान- दान' है। वास्तव में हमारे अधिकांश कष्टों का एक बडा़ कारण अज्ञान और अविद्या ही होता है। यदि कोई सज्जन सदुपदेश, सत्संग, सद्ग्रंथों द्वारा हमारे अज्ञान को दूर कर देता है तो यह एक ऐसा दान है, जिसकी तुलना किसी दान से नहीं की जा सकती, क्योंकि अन्न, वस्त्र, धन आदि के दान से हमारी कोई सामयिक आवश्यकता ही पूरी हो सकती है और कुछ समय बाद हमारे लिए फिर वही अभाव उपस्थित हो जाता है। पर यदि कोई हमारे अज्ञान, असमर्थता को दूर करके सुखी होने का सच्चा मार्ग दिखला देता है तो यह निस्संदेह एक महान् उपकार है।