अलीगढ़ में एक पंडित स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने आये और मंदिर के ऊँचे चबूतरे पर बैठकर बोलने लगे। कई लोगों को यह अनुचित जान पडा़ और उसे समझाने लगे कि- बराबर में आसन पर बैठ कर बातचीत करो। पर उसने अपने हठ के आगे किसी की न सुनी। तब स्वामी जी बोले- कोई हर्ज नहीं, पंडित जी वहीं बैठे रहें। केवल ऊँचे आसन से किसी को महत्त्व प्राप्त नहीं होता। यदि ऊँचा आसन बडा़ई का प्रमाण हो तो पंडित जी से भी ऊँचा वृक्ष पर वह कौआ बैठा है।"
अमृतसर में एक पादरी ने कहा- "आइए, एक दिन हम और आप मिलकर एक ही मेज पर भोजन करें। इकट्ठा होकर खाने से पारस्परिक प्रीति बढ़ती है।"
स्वामी जी ने उत्तर दिया- "शिया और सुन्नी मुसलमान एक ही बर्तन में खाते हैं। रूसी और अंग्रेज तथा रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट ईसाई भी एक मेज पर भोजन करते रहते हैं, परंतु हम जानते हैं कि इनमें कितना अधिक वैर- विरोध और शत्रुता के भाव रहते हैं।"
एक संन्यासी स्वामी जी के प्रचार- कार्य से क्रोधित होकर उल्टी- सीधी बातें करते हुए आए और कहने लगे- "तुम संन्यासी नहीं, धूर्त हो- ठग हो ! भला संन्यासी को धातु छूना कहाँ लिखा है? तुम अपने पास रुपया- पैसा रखते हो, थाली में भोजन करते हो। इस तरह दूसरों को धोखा देते फिरते देते हो, शर्म नहींआती?" स्वामी जी उनकी बातों पर मुसकराते हुये कहने लगे- "हाँ, स्वामिन् आप ठीक कहते हैं। मैं धातु छूता हुआ कभी- कभी पैसा रख लेता हूँ। आप तो सच्चे संन्यासी हैं ! आप तो धातु का स्पर्श करते न होंगे। आपने अपने मस्तक का मुडंन भी शायद उस्तरे से न कराया होगा, क्योंकि वह धातु का ही होता है ! स्वामी जी महाराज ! फिर किस चीज से- क्या चमडे़ से आपके बाल मूडे़ गए हैं।
लुधियाना (पंजाब) में भूत- प्रेत की चर्चा चलने पर आपने लोगों के भ्रम- निवारणार्थ एक खेल दिखाया। उनके बैठने के कमरे में दस- बारह गज की दूरी पर दो ताक बने थे। एक दिन उन्होंने उन दोनों में दो दीपक जलाकर रख दिए। पहले उनमें से एक दीपक बुझा दिया गया। पर जब दूसरा दीपक बुझाया गया तो पहला अपने आप जल उठा। लोगों ने अनेक बार एक- एक दीपक को बुझाकर परीक्षा ली पर बारंबार दूसरा दीपक अपने आप जलता रहा। इससे लोगों को बडा़ आश्चर्य हुआ और वे इसे एक करामात समझने लगे। पर स्वामी जी ने बतलाया कि, यह किसी तरकीब से किया गया एक खेल ही है। इसी प्रकार भूत- प्रेत की घटनाएँ किसी कारणवश दिखाई पड़ती हैं, जिनको लोग समझ नहीं पाते।