पूना में भी जब वहाँ के आर्य समाजियों ने स्वामि जी को बुलाकर मूर्ति- पूजा, श्राद आदि के संबंध में भाषण काराये तो उस नगर के सनातनी बहुत चिढ़ गये। भाषणों का अंत हो जाने पर स्वामी जी के अनुयायियों ने एक बडा़ जुलूस निकालकर उनको विदा करने का निश्चय किया। पर जब विरोधियों को इसकी खबर लगी तो उन्होंने भी 'गर्दभानंदाचार्य' की सवारी निकालने की घोषणा कर दी और स्वामी जी के जुलूस में विध्नडालने का भी निश्चय किया। आर्य- समाज वालों को जब इसका पता लगा तो वे घबाराये, क्योंकि उनकी संख्या बहुत कम थी और विरोधी तो शहर में भरे पडे़ थे। यह देखकर उन्होंने माननीय महादेव गोविंद रानाडे से सहायता की प्रार्थना की। यद्यपि रानाडे महोदय 'प्रार्थना समाज' के सदस्य थे और इन दोनों संस्थाओं के उद्देश्यों में बहुत अंतर भी था। पर एक सुधारक की हैसियत से वे इस कार्य में सहायता देने को तैयार हो गए। वे एक बहुत बडे़ सरकारी पद पर थे, अतः उनके कहने से पुलिस का एक बडा़ दल जुलूस की देख भाल करने को आ गया और व स्वयं भी साथ में चले। जुलूस बडी़ धूमधाम से निकाला गया। सबसे आगे पालकी में "वेद भगवान्" विराजमान किए गये और उसके पीछे एक हाथी पर स्वामी जी को बैठाया गया।
आरंभ में तो विरोधियों ने हल्ला- गुल्ला करके और गालियाँ बककर जुलूस को भंग कर देना चाहा, पर जब इससे काम न चला तो वे रास्ते में से कीचड़ और ईंट पत्थर उठाकर फेंकने लगे। जब भीड़ वालों को अधिक उग्र होते देखा तो रानाडे ने उन्हें शांतिपूर्वक भगा देने की आज्ञा दे दी। जैसे ही पुलिस वाले उनकी तरफ बढे़ ,, वे सब भाग खडे़ हुये।
सूरत में जब स्वामी जी का भाषण हो रहा था तो इच्छाशंकर नामक पंडित बीच में ही खडा़ होकर मूर्तिपूजा के प्रमाण बोलने लगा। पर स्वामी जी की दो- चार बातें सुनकर ही यह निरुत्तर हो गया। तब उसके अनुयायी धूल उडा़ने और ईंट पत्थर फेंकने लगे। स्वामी जी के सहायकों ने व्याख्यान बंद कर देने की प्रार्थना की। उन्होंने हँसते हुए कहा- "अपने भाईयों के फेंके हुए ये ईंट- पत्थर मेरे लिए पुष्प- वर्षा है। व्याख्यान तो समय पर ही बंद करूँगा।" उनकी दृढ़ता को देखकर दर्शक बहुत प्रभावित हुए और विरोधी पस्त हो गये।
इसमें संदेह नहीं कि महत्त्वपूर्ण कार्यों में प्रायः विघ्न- बाधाएँ आया ही करती हैं। खासकर समाज- सुधार और कुरीति निवारण का कार्य ऐसा है, जिसमें कुछ लोगों का सहमत और कुछ का असहमत होना अनिवार्य है। इसलिए सच्चे सुधारक को हर तरह का विरोध, कठिनाइयाँ और मानापमान सहने को प्रस्तुत होना ही पड़ता है। इसके बिना कोई इस मार्ग में न तो अग्रसर हो सकता है और न कुछ सफलता प्राप्त करके दिखा सकता है। स्वामी दयानंदजी ने इस विषय में पराकाष्ठा का साहस और दृढ़ता प्रकट करके दिखला दी। उन पर केवल ईंट- पत्थर ही फेंके गए, बीसियों लोग शस्त्र लेकर मारने आये और अनेक बार विष देने की चेष्टा की गई। बहुत कुछ सावधान रहने पर भी वे कई बार विश्वासघातियों द्वारा प्रदत्त विष खा भी गये योगाभ्यास द्वारा बच गये। इस संबंध में एक दिन उन्होंने अपने एक प्रेमी से कहा- "मेरे ऊपर अनेक बार विष आदि घातक पदार्थों का प्रयोग किया गया है। यद्यपि मैंने उनको योगक्रियाओं से बाहर निकाल दिया, पर तो भी शरीर में उसका दूषित प्रभाव कुछ शेष रह ही जाता है। यही कारण है कि अब मुझे अपने शरीर के अधिक ठहरने का भरोसा नहीं है, अन्यथा मैं एक शताब्दी तक तो पूर्ण स्वस्थ अवस्था में जीवित रह ही सकता था।"
पर परोपकारी और परमार्थ- पथ के पथिकों के लिए कम या अधिक दिन तक जीने का कोई महत्त्व नहीं होता। नीति शास्त्र में कहा गया है कि- "कौआ उच्छिष्ट खाता हुआ सौ वर्ष तक जीवित रह जाता है और सिंह अद्भुत पराक्रम प्रदर्शित करके शीघ्र ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता देता है, पर क्या इससे कौआ का जीवन श्रेष्ठ समझा जा सकता है? जिंदगी तो वही सराहनीय है, जो लोक- कल्याण के लिए काम में आती रहे, फिर चाहे उस पर ईंट- पत्थर फेंके जाएँ चाहे फूलों की वर्षा की जाय।