जीवेम् शरदः शतम्

April 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अब तक बुढ़ापा नियति मानकर सहज स्वीकारा जाता था। किन्तु वैज्ञानिक शोध निष्कर्षों के आधार पर इसे एक प्रकार का रोग ठहराया गया है जो आनुवांशिक विरासत में मिलता है। इस रोग की रोकथाम सम्भव है- और इसे लम्बे समय तक टाला जा सकता है। भारत में 50 वर्ष की आयु के उपरान्त लोग इसे सहज स्वीकारने लगते हैं, इसके रोकथाम के उपायों से अनभिज्ञ होने के कारण इसके समक्ष समर्पण कर देते हैं किन्तु अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस जैसे देशों में इस रोग के कारणों और निराकरण के उपायों की शोध बड़े पैमाने पर की जा रही है और सफलता की सम्भावना भी बनी है क्योंकि इस व्याधि की शोध के लिए लम्बे समय की आवश्यकता है। अतः वैज्ञानिकों की भी कितनी ही पीढ़ियाँ लग सकती हैं। इस दुरुतर कार्य के लिए धैर्यवान वैज्ञानिकों की एक पूरी पीढ़ी ही अमेरिका व पश्चिमी जर्मनी में इन शोध कार्यों में लगी हुई है।

अमेरिका वैज्ञानिक बेरौज ने समुद्री जन्तु रोटीफर पर जल का तापमान 10 डिग्री से. ग्रेड कम कर प्रयोग किया तो उसकी आयु दुगुनी हो गई। सामान्यतः उसकी आयु 18 दिन से अधिक नहीं होती।

हिमालय के योगियों, संन्यासियों के लम्बे जीवन का रहस्य भी सीमित आहार एवं निम्न तापमान ही है। क्योंकि इसी प्रकार के प्रयोग अन्य जीव जन्तुओं पर भी किये गये तो उनकी आयु भी लम्बी हो गई। यों जीव-जन्तु मनुष्य की भाँति असंयमी जीवन नहीं जीते फिर भी तापमान की गिरावट से उनकी उम्र में वृद्धि हो गई।

वैज्ञानिकों की एक शोध के अनुसार एक अजीब निष्कर्ष सामने आया है कि जो कोशिकाएँ शरीर की रक्षात्मक पंक्ति में कार्यरत रहती हैं उन्हीं की बगावत, का परिणाम बुढ़ापा है। क्योंकि रक्षात्मक कोशिकाएँ ही सामान्य कोशिकाओं को खाने लगती हैं। तभी बाल पकने लगते हैं, झुर्रियाँ पड़ने लगती हैं, नेत्रों की ज्योति मन्द पड़ जाती है, अनेकों उदर विकार पनपते और दन्त क्षय तथा श्रवण शक्ति कम हो जाती है। माँस पेशियाँ कमजोर पड़ जाती हैं। रक्त नलिकाएँ मोटी पड़ जाती हैं यकृत एवं गुर्दे की कार्यशक्ति भी क्षीण होने लग जाती है।

रक्षात्मक कोशिकाओं की बगावत का स्पष्ट उदाहरण उन लोगों में देखा जा सकता है जो असंयमी हैं और नशा सेवन करते हैं अथवा आलसी और अकर्मण्य हैं। वे ही समय से पहले बूढ़े होते हैं और उन्हीं की इन्द्रियाँ भरी जवानी में शिथिल पड़ जाती हैं। भारतीय आयुर्वेदाचार्यों का मत है कि जीवन रक्षक कोशिकाएँ कहीं बगावत न कर बैठे इसके लिए आहार-विहार के संयम के साथ ही नियमित भोजन में तुलसी, आँवला, विधारा, अश्वगंधा जैसी औषधियाँ एवं गाय का दूध सेवन करते रहने से यह संकट लम्बे समय तक टाला जा सकता है।

यज्ञीय वातावरण में निवास करने वालों का यही मत है कि यज्ञ हवन में प्रयुक्त जड़ी-बूटियों के धूम्र में वह अमोघ शक्ति है जिससे जीवन रक्षक कोशिकाएँ बगावत नहीं करने पातीं। मन्त्र विज्ञानियों का निष्कर्ष है कि मन्त्रों की ध्वनि से शरीर की विभिन्न ग्रन्थियों से ऐसा स्राव निकलता है जो कोशिकाओं के असमय क्षरण को रोक देता है।

अमेरिकी आयुशास्त्र वैज्ञानिक- डेंकला के अनुसार आयु नियन्त्रक केन्द्र मस्तिष्क में विद्यमान हैं जो आयु बढ़ने के साथ-साथ अधिक सक्रिय होता है। इसकी सक्रियता सामान्य बनाए रहने के लिए आहार-विहार की नियमितता आवश्यक है। माँस-मदिरा, अनियमित दिनचर्या, क्रोध, भय, चिन्ता आदि कारणों से यह केन्द्र अधिक सक्रिय होने लगता है इसी कारण ऐसे लोगों को असमय में बुढ़ापा घेरने लगता है।

बुढ़ापे को लम्बे समय तक टालने और अनेक रोगों से छुटकारे के लिए नैसर्गिक जीवन पद्धति का अनुसरण किया जाना चाहिए, जिससे मस्तिष्क पर तनाव और शरीर दबाव न पड़े। तब शतायु हो सकने की और निरोग बने रहने की सम्भावना है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118