विवाहोन्मादः समस्या और समाधान

हिम्मत करें तो आप अकेले नहीं

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विधवा विवाह करेंगे तो समाज में अप्रतिष्ठा होगी, पाप लगेगा, लोग कीचड़ उछालेंगे ऐसा सोचना निरर्थक है । जिन विधवाओं के सन्तान हैं या जो स्वेच्छा से ही पवित्र वैधव्य बिताने की इच्छुक हैं उन्हें वैसा करने देना अच्छा है पर जिन को छोटी अवस्था में ही इस दुर्भाग्य से ग्रस्त होना पड़ा और जिन्होंने अपनी आकांक्षाओं की रत्ती भर भी पूर्ति नहीं देखी वे यदि विवाह की इच्छुक हैं तो इसमें उन्हें न तो दोषी ठहराना चाहिए न कलंकी । ऐसी विधवाओं का विवाह कर देना अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त ही रहता है ।

यह बात हम नहीं अब सारा देश मान रहा है । हमारे देश में विधवाओं की संख्या सारे विश्व से अधिक है इससे यह निर्विवाद सिद्ध है कि यहाँ सामाजिक कुरीतियाँ ही विधवाओं के लिए दोषी हैं । यह दोष लड़कियों पर ईश्वरेच्छा या भाग्य पर नहीं थोपा जाना चाहिए । अधिकांश विधवाएँ बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह के कारण होती हैं ऐसा न होता तो भारतवर्ष संसार में सर्वाधिक विधवाओं के लिए अपवाद न बनता ।

अमेरिक में 100 के पीछे 7 विधवाएँ होती हैं; डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, फिनलैण्ड, स्विटजरलैण्ड, वेवेरिया, वरटम्बर, वेल्जियम में 8 प्रतिशत, जर्मनी व प्रशा में 9-9 इटली में भी 9 प्रतिशत विधवाएँ होती हैं । फ्रांस में 12 सरविया व हालैण्ड में 7-4 आस्ट्रेलिया में 6 न्यूजीलैण्ड व कैपकालोनी में 5-5 प्रतिशत विधवाएँ होती हैं, जबकि इनमें सबसे अधिक अर्थात् 18 प्रतिशत स्त्रियाँ विधवाँ भारतवर्ष में होती हैं ।

भारतवर्ष में 100 विवाहिताओं में 18 विधवाएँ होना एक प्रकार का कलंक ही है । जो देश ईश्वर का सबसे बड़ा भक्त और उपासक है उस पर ही यह कलंक परमात्मा की इच्छा नहीं हो सकती । निःसंदेह यह हमारी अपनी कुरीतियों का फल है और यह कलंक कुरीतियों में सुधार करके ही धोया जा सकता है ।

प्रसन्नता की बात है कि अब लोगों में यह समझ आ रही है । रूढ़िवादी मान्यता वाले अपनी बात अपने मन में लिये बैठे रहें, उससे विचारशील लोग भयभीत क्यों हों । जब हम समझते हैं कि वैधव्य का दोष हमारी लड़कियों का नहीं हो तो उन्हें इस अभिशाप में क्यों पिसने दें । जो इच्छुक हैं अथवा जो द्वितीय विवाह के लिए सर्वथा योग्य हैं उनका विवाह साहसपूर्वक करने में हम क्यों डरें और हिचकें ।

सन् १९१५ में ब्राह्मणों में 5 विधवाओं का विवाह कराया गया उससे कुछ रूढ़िवादी लोगों को विरोध हुआ और उसके फलस्वरूप सन् 1916 में कुल 3 ब्राह्मण विधवाओं के विवाह सम्पन्न हुए । इस बीच लोगों को इन विवाहों से होने वाली अच्छाइयों के अध्ययन का अवसर मिला । फलस्वरूप 1917 में 7 पुनर्विवाह हुए फिर यह संख्या बढ़ती ही गई । सन् 1918, 1919, 1920,21 और 11 क्रमशः 15, 18, 34, 35 और 96 पुनर्विवाह हुए ।

यही बात अन्य जातियों में रही, सन् 1915 से लेकर सन् 1922 तक क्षत्रियों और राजपूतों में क्रमशः 4, 6, 12, 13, 33, 50, 81, 128 पुनर्विवाह हुए । कायस्थों में जिनमें अरोड़ा व अग्रवाल भी सम्मिलित थे इस अवधि में क्रमशः 3, 4, 8, 11, 32, 117, 147, 171 विधवाएँ विवाही गईं । इसके बाद अब तक यह संख्या बढ़ती ही आई और अब प्रत्येक जाति में प्रतिवर्ष हजारों विधवाओं के देश भर में विवाह हो रहे हैं । ऐसा करके जिन लोगों ने प्रगतिशीलता का परिचय दिया वे सर्वथा प्रशंसा के पात्र हैं । उससे उन हजारों लोगों के लिये हिम्मत का रास्ता खुल गया है जो विधवओं की वर्तमान अवस्था पर दुःखी हैं और जिनके मन में विधवाओं के पुनर्विवाह की लालसा बनी रहती है ।

हमारी हिम्मत जितनी बढ़ेगी और इस दिशा में हम जितना अधिक व्यावहारिक कदम उठायेंगे विधावाओं का ही नहीं हमारे समाज का उतना ही भला होगा ।

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