विवाहोन्मादः समस्या और समाधान

वर-वधू का चुनाव कैसे करें?

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विवाह मानव जीवन की एक बहुत बड़ी घटना है । इससे मनुष्य के जीवन में एक बहुत बड़ा मोड़ आता है । विवाह सम्बंधों पर जन साधारण के जीवन की सफलता-असफलता, सुख-शान्ति, उन्नति-विकास आदि निर्भर करते हैं । पति-पत्नी का ठीक-ठीक चुनाव होगा तो वे एक-दूसरे के लिए सहायक सिद्ध होंगे । उनका जीवन आनंदमय रहेगा । दोनों अपने सम्मिलित प्रयत्नों से उन्नति की ओर अग्रसर हो सकेंगे । इसके विपरीत वर कन्या के चुनाव में असमानता अनियमितता रहेगी तो, दोनों का जीवन दूभर हो जायेगा । उनके जीवन में नारकीय वातावरण बन जायेगा । परस्पर एक-दूसरे के लिए बोझ बन जायेंगे । उन्नति के लिए बाधक सिद्ध होंगे । इसलिए वर-कन्या का ठीक-ठीक चुनाव एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी सूझबूझ का काम है । इसमें की गई तनिक-सी भूल दोनों के जीवन को बिगाड़ देती है ।

‍ एक समय था जब हमारे यहाँ विवाह वर-कन्या की बहुत छोटी अवस्था में ही कर दिया जाता था । इससे एक लाभ था कि कन्या बचपन से ही पति गृह में रहने की और वहाँ के वातावरण के अनुकूल बनने की अभ्यस्त हो जाती थी । लेकिन इससे लड़के-लड़कियों के जीवन विकास की सम्भावनाएँ ही प्रायः नष्ट हो जाती थीं । लड़कियाँ केवल घर की व्यवस्था करने की मशीन मात्र बनकर चहार दीवारी में घिरी रहती थीं । लड़के भी असमय में ही गृहस्थी के भार से दब जाते थे ।

‍ आज की बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियाँ व्यवस्थाओं मान्याताओं के कारण पुराने आधार प्रायः अनुपयुक्त होते जा रहे हैं । शिक्षा, औद्योगिक विकास, संसार की विभिन्न संस्कृतियों के सम्मेलन के कारण विवाह सम्बंधों के आधार भी बदलते जा रहे हैं । टूटती हुई सम्मिलित परिवार व्यवस्था के कारण यह आवश्यक हो गया है । कि लड़के-लड़की योग्य और समर्थ हों, अपना भार स्वयं वहन करने में । बढ़ते हुए बुद्धिवाद विचारशीलता के कारण यह भी आवश्यक हो गया है कि लड़के-लड़की एक-दूसरे को समझ कर विवाह सूत्रों में बँधे अन्यथा अब वह समय नहीं रहा जबकि एक के अयोग्य होने पर भी दाम्पत्य जीवन-निभता रहता था । आजकल पति-पत्नी का मतभेद कहल, अशांति, तलाक, आत्महत्या तक के परिणाम उपस्थित कर देता है । हमारे यहाँ अभी यह प्रणाली चल रही है कि विवाह सम्बंध माता-पिता या अभिभावकगण तय कर लेते हैं लेकिन इसके दूरगामी परिणाम निकलते हैं और उनके दाम्पत्य जीवन की गाड़ी का चलना मुश्किल हो जाता है । पति-पत्नी के स्वभाव, विचार, रहन-सहन में एकरसता नहीं रहती ।

इसी तरह बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो अपनी सभ्यता संस्कृति की मर्यादाओं को भूलकर विदेशी परम्पराओं को अनुगमन करते हैं । लड़के-लड़कियों में तनिक प्रेम हुआ कि विवाह का प्रस्ताव पैदा हुआ । चटपट विवाह भी हो गये । लेकिन ऐसे प्रेम-विवाहों की सफलता अभी तक संदिग्ध रही है । अधिकांश का परिणाम तलाक और पारस्परिक संघर्ष के रूप में ही मिलता है । इसी तरह विवाह सम्बंधों में वर-वधू के चुनाव के आधार, मान्याताएँ बहुत कुछ बदल गई हैं किन्तु अभी इन्हें स्पष्ट और सर्वसम्मत नहीं माना जा सकता । पुरानी परम्पराओं का ही न तो आँख मींच कर अनुसरण किया जा सकता है, न नई मान्यताओं को ही एकदम अपनाया जा सकता है । वर-कन्या के चुनाव में हमें मध्यम मार्ग का अनुसरण करना पड़ेगा । प्राचीन और अर्वाचीन मान्यताओं को ध्यान में रखकर इस पर निर्णय करना होगा ।

क्या वर-कन्या का चुनाव माँ बाप अथवा अभिभावकगण करें या यह प्रश्न केवल लड़के-लड़कियों पर छोड़ दिया जाय? ये दोनों ही व्यवस्थाएँ अपने आप में अपूर्ण हैं । क्योंकि गृहस्थ की गाड़ी लड़के-लड़कियों पर ही चलेगी माँ-बाप पर नहीं । इसलिए उन्हें एक-दूसरे को समझने-बूझने की आवश्यकता है । विवाह-सूत्र में बँधने से पूर्व विवाह का उद्देश्य, महत्त्व, उसका उत्तरदायित्व समझने की क्षमता भी उनमें होनी चाहिए । जब माँ-बाप अपनी रुचि के अनुसार वर-कन्या का चुनाव कर देते हैं तो आगे चलकर इनमें से बहुतों का दाम्पत्य जीवन विषाक्त हो जाता है, पति-पत्नी के स्वभाव, संस्कार विचार भावनाएँ आगे चलकर नहीं मिलते । लेकिन यह भी निश्चित है कि अनुभवहीन लड़के-लड़की अक्सर भावनाओं के आवेग में बह जाते हैं । वे एक-दूसरे को नहीं समझ पाते और गलत निर्णय कर डालते हैं और इस तरह के विवाह भी आगे चलकर परिणाम में अहितकर ही सिद्ध होते हैं । आवश्यकता इस बात की है कि दोनों के मध्य का मार्ग अपनाया जाय ।

लड़के-लड़कियों को परस्पर एक-दूसरे को समझने-बूझने का अवसर दिया जाये यह आवश्यक है । यह अच्छा है कि वे एक-दूसरे को समझ लें, जाने लें । परस्पर के विचार आदर्शो से परिचित हो जायें किन्तु यह स्वतंत्र न होकर माता-पिता की सहमति से ही होना चाहिए ।

‍ इस संबंध में देवदास गाँधी (महात्मा गाँधी के पुत्र) के विवाह की घटना प्रेरणास्पद है । निकट सम्पर्क में रहने पर देवदास जी और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की पुत्री में प्रेम हो गया, जो आगे चलकर दोनों के अभिभावकों के समक्ष विवाह प्रस्ताव के रूप में आया । गाँधी जी और राजाजी ने इस संबंध में विचार करके निर्णय किया कि पाँच साल तक यदि इनका प्रेम स्थायी रहा तो विवाह कर देंगे । दोनों ने पाँच साल तक प्रतीक्षा की और पवित्र जीवन बिताया । इस परीक्षा के बाद भी जब इनका प्रेम स्थायी पाया गया तो विवाह कर दिया गया । इसी तरह जब तक प्रेम की परीक्षा न हो जाय, वह आन्तरिक और शुद्ध न हो तब तक प्रेम-विवाहों को टाल देना ही श्रेयस्कर होता है । स्मरण रहे भावावेश का नाम प्रेम नहीं है ।

ऐसे विवाह तो हमारी संस्कृति और आदर्शो तथा भावी दुष्परिणामों की दृष्टि से सर्वथा त्याज्य है जिनमें अनुभवहीन बालक-बालिकायें माँ-बाप की नजर बचाकर अपने पड़ौस में या कहीं सम्पर्क में आने पर परस्पर प्रेम कर बैठते हैं । इससे कई लड़कियाँ अनगढ़, असंस्कृत, आवारा लड़कों के प्रेम में चक्कर में उलझ जाते हैं ।

विवाह संबंधों में धन को कभी महत्त्व न दिया जाय । वर-वधू का चुनाव इस दृष्टि से करना कि वर अधिक धन सम्पत्तिवान् है या वधू के यहाँ से दहेज अधिक मिलेगा तो यह तो बड़ी भूल है । धन की प्रतिष्ठा देकर वर-वधू के गुण, कर्म, स्वभाव, स्वास्थ्य आदि के प्रति उपेक्षा बरतना उनका भावी जीवन नष्ट करना है । क्योंकि धनवान होकर भी लड़का चरित्रहीन, लम्पट, बदमाश, गुण्डा हो सकता है । उधर अधिक दहेज का लोभ देकर कई शारीरिक दृष्टि से अयोग्य, खराब स्वभाव की लड़कियाँ सरलता से ब्याही जा सकती हैं । इसके अतिरिक्त धनी घरानों की लड़कियों के रहने-सहन का स्तर, समस्या आगे चलकर पैदा हो जाती है । अतः वर-वधू के चुनाव में धन का मूल्यांकन गलत है । इस सम्बंध में इतना तो देखना चाहिए कि लड़का खाता-कमाता हो, अपने जीवन निर्वाह में सक्षम हो । इससे अधिक माली हालत को गौण समझना चाहिए ।

विवाह कब किया जा? इसका एक ही उत्तर है कि जब लड़के-लड़की सयाने हो जायें, अपने जीवन, उत्तरदायित्व का भार स्वयं वहन करने में समर्थ हो जायें । वयस्क हों किन्तु अपना भार स्वयं उठाने में असमर्थ हों तो ऐसे लड़के-लड़कियों का विवाह भी आज के युग में अनुपयुक्त ही है । बाल-विवाह, अल्पवस्यकों के विवाह के लिए तो कोई गंुजाइश ही नहीं है । इस तरह के विवाह तो सभी भाँति बुरे हैं ।

वर-वधू चुनाव में सबसे महत्त्वपूर्ण बात स्वास्थ्य के विषय में देखने की है । दोनों में से कोई भी शारीरिक दृष्टि से अयोग्य अथवा रुग्ण हो तो विवाह नहीं करना चाहिए । क्योंकि इससे उन दोनों का ही नहीं दो परिवारों का जीवन दुःखद बन जाता है । उनकी संतान भी रुग्ण पैदा होती है जिससे इन बच्चों को तथा सारे समाज को उनके भार का त्रास अशक्त-अक्षम लोगों को विवाह नहीं करना चाहिए यह मनुष्य की भारी भूल है । जो गृहस्थ की जिम्मेदारियों को शारीरिक, मानसिक या आर्थिक कारणों से ठीक तरह उठा सकने में असमर्थ हैं उनके लिए विवाह से बचे रहना, अविवाहित रहकर आनंद से जीवन-यापन करना ही उचित है ।

(विवाहोन्मादः समस्या और समाधान पृ सं १.९१)

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