विवाहोन्मादः समस्या और समाधान

विवाह का महान आदर्श और उसकी प्राप्ति

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पश्चिमी देशों में विवाह जहाँ केवल शारीरिक आकर्षक सुन्दर देहदृष्टि और यौनतृप्ति की आकांक्षा से प्रेरित होकर किये जाते हैं । वहीं भारतीय जीवन पद्धति विवाह को जन्म-जन्मान्तरों का साथ मान कर चलती है । विवाह के आदर्श और उद्देश्य को लोग न समझ पाएँ अथवा उसकी उपेक्षा करें यह बात अलग है किन्तु भारतीय मनीषियों की यह दृढ़ मान्यता है कि विवाह दो आत्माओं का वह मंगल मिलन है जो जन्म-जन्मान्तरों तक चलना चाहिए । चिता की लपटों में पंचीभूत होने के उपरान्त भी विवाह संस्कार के समय बँधी गूढ़ एवं अदृश्य ग्रन्थि सदैव बनी रहनी चाहिए । संस्कार के समय वर वधू से प्रतिज्ञा करता है।

अन्नपाशेन मणिना प्राण सूत्रेण प्रश्चिना । वध्नापि सत्यम् ग्रन्थिना मनश्च हृदमं चेत॥

अर्थात हे वधू, हम अपने निश्चल मन और हृदय को बाँध रहे हैं । मन को अन्नदानादि के पाश में तथा हृदय को अपने प्राणतंतु में सत्यतापूर्वक बाँध कर हम जन्म-जन्मान्तरों तक एक रहें । इस प्रतिज्ञा के बाद वर-वधू दोनों सम्मिलित रूप से देवताओं से प्रार्थना करते हैं-

समंजन्तु विश्वेदेवाः समापो हृदयानि नौ । सं मातरिश्वा सं धाता समुदेष्ट्री दधातु नौ॥

अर्थात हे देवगण! आप निश्चय करके जानें, हम दोनों के हृदय जल के सामन मिले हुए हैं । हम प्राणवायु (मातरिश्वा) की तरह समता रखेंगे, जगत के धारणकर्त्ता (धाता) परमात्मा की तरह एक-दूसरे को धारण करेंगे अर्थात स्वरूप से, स्वभाव से और बुद्धि से एक हो जायेंगे ।

इन प्रतिज्ञा वचनों में विवाह के भारतीय आदर्श की स्पष्ट प्रतीति होती हो कि यह कोई दैहिक, लौकिक आकर्षण या आवेशजन्य कदम नहीं होता बल्कि इस साधना पथ पर आरूढ़ होने का व्रत पर्व है, जो दोनों के भिन्न अस्तित्व को घुला-मिलाकर गंगा-यमुना की तरह एकाकार संगम समन्वय में परिणत करता है । दोनों के मन-प्राण को वायु की तरह अभेद एक एकाकार बनाता है । विवाह का भारतीय आदर्श स्त्री-पुरुष दोनों को एक सूत्र में बाँध कर ऐसे अवयवी का सृजन करता है जिसका आधा अंग पुरुष और आधा अंग स्त्री बनाती है । इस आदर्श की प्रतीकात्मक अभिव्यंजना अर्धनारी-नटेश्वर की प्रतिमा में देखी जा सकती है । पति-पत्नी को एक दूसरे का अर्धांग और दोनों के संगम समन्वय से एक पूर्ण इकाई की सृष्टि एक ऐसी आदर्श, पवित्र, सुंदर और भव्य संबंध स्थापित करने की प्रेरणा है कि उससे अधिक पवित्र, सुन्दर और भव्य कल्पना कोई की ही नहीं जा सकती ।

इन आदर्शो को व्यावहारिक जीवन में उतारा जाय तो पति-पत्नी का जीवन तमाम अभावों और दैन्य कष्टों से रहते हुए भी स्वर्गोपम आनंदप्रद बन सकता है । विवाह के आदर्श और संस्कार की प्रेरणाएँ दाम्पत्य जीवन को इतना भव्य और अनुपम बनाती हैं कि उसके सामने सभी लौकिक और प्रत्यक्ष आकर्षक फीके पड़ जाते हैं । लेकिन यह सम्भव तभी होता है जबकि इन प्रेरणाओं को आचरण और अंतरंग में उतारा जाय । दाम्पत्य जीवन की सफलता या विवाह की सार्थकता केवल संस्कार सम्पन्न होने अथवा उसके आदर्शो की चर्चा मात्र करने से सिद्ध नहीं हो जाती अपितु उसके लिए प्रेम के उदात्त आदर्शो को जीवन-क्रम में अनवरत उतारते रहना आवश्यक है ।

विवाह की सफलता का मात्र इतना ही अर्थ नहीं है कि पति-पत्नी एक-दूसरे के बनें अपितु उसकी सार्थकता तभी सिद्ध होती है जब विवाह के समय दिये गये वचनों और की गई प्रतिज्ञाओं को आजीवन स्मरण रखा जाय और उन्हें चरित्र तथा व्यवहार में उतारने की साधना की जाती रहे । कई बार पारिवारिक जीवन में अभावों और कठिनाईयाँ आती रहती हैं, पर इसके साथ यह भी एक तथ्य है कि जीवन-सागर में अभावों की सीपियाँ और विपदाओं के जंजाल होने के साथ-साथ सुख और संतोष प्रदान करने वाले बहुमूल्य मणिमुक्तक भी हैं । इस समझ को विकसित करने के साथ जीवन के अभावों और विपत्तियों से त्रस्त न होते हुए कठिनाइयों और चुनौतियों को शक्ति के साथ ग्रहण किया जा सकता है ।

दाम्पत्य जीवन में दुःख या क्लेश उत्पन्न होते हैं और पति-पत्नी में अनबन अथवा मन-मुटाव पैदा होते हैं तो इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि विवाह के आदर्श को भली-भाँति समझा या हृदयंगम नहीं किया गया । स्मरण रखा जाना चाहिए कि पति-पत्नी सुख-दुःख में समान रूप से भागीदार होने का व्रत लेते हैं । यदि सुख में ही अपना स्वत्व समझा जाय और दुःख की घड़ियों में दूसरे पक्ष को अकेले छोड़ दिया जाय तो यह वचन भंग जैसा ही अपराध होगा । होना तो यह चाहिए कि अभावों और विपदाओं के समय पति-पत्नी का प्रेम सान पर चढ़ी धातु की तरह चमक कर, निखर कर आये इस सम्बंध में यदि थोड़ी-सी समझ विकसित कर ली जाय तो दाम्पत्य जीवन के इस संत्रास से मुक्त रहा जा सकता है ।

कई बार ऐसा भी होता है कि पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे के प्रति अटूट और एकनिष्ट प्रेम रखते हैं । इसके उपरान्त भी छोटी-छोटी घटनाएँ कई गलत-फहमियों को जन्म देती हैं । और दोनों के बीच एक झीनी-सी दरार पैदा कर देती है । जिसे यदि ठीक न किया जाये तो वह चौड़ी ही होती जाती है और परिणामतः दाम्पत्य सम्बंध भले ही न टूटे, पर टूटने जैसी स्थिति अवश्य बन जाती है । इस तरह की गलत-फहमियाँ विचार और व्यवहार के, अपने परिवार में मिले परिवेश से उत्पन्न हुए संस्कारों के कारण भी उत्पन्न हो जाती है तो उचित यही है कि जब भी कोई गलत-फहमी या भ्रम पैदा होने की स्थिति आये उसके पूर्व ही उनका समाधान कर लिया जाय ।

बाहरी कारणों या शारीरिक परेशानियों से ही मानसिक सन्तुलन डगमगा जाने की स्थिति में भी कई बार कभी पति या कभी पत्नी के मुँह से ऐसी बात या ऐसे उदगार निकल पड़ते हैं जो दाम्पत्य सम्बंधों में कलह के बीज बो देते हैं । कई बार पारिवारिक और सामाजिक कठिनाइयाँ तथा दुविधाएँ भी तनाव-कसाव का वातावरण उत्पन्न कर देती हैं और भी न जाने कितने ही छोटे-बड़े प्रसंग ऐसे आते रहते हैं जिनके कारण दाम्पत्य जीवन नीरस लगने लगता है या प्रतीत होता है कि जीवन-साथी द्वारा उपेक्षा हो रही है ।

इस तरह के तनाव या तिक्तताएँ उत्पन्न होने का एकमात्र कारण विवाह के आदर्श और उद्देश्यों को न समझ पाना है । पति-पत्नी एक-दूसरे के प्रति उत्तरदायित्वों को भली-भाँति समझते हों, एक-दूसरे के प्रति स्निग्ध, स्नेह और प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हों तो वातावरण चाहे लाख कितना ही दूषित या तनावपूर्ण क्यों न हो उसके कारण कभी तनाव अथवा सम्बंधों मे बिगाड़ नहीं आ सकता है ।

कहा गया है कि दाम्पत्य अपूर्व माधुर्य और प्रीति की संचित नीधि है । इसे बहुत सँभाल कर रखना चाहिए । यह पूर्णतया सत्य है । यदि पति और पत्नी एक-दूसरे के लिए सच्चे भाव से समर्पण कर सकें, अपनी सुविधा छोड़ एक-दूसरे की असुविधा दूरे करने में दोनों पक्ष होड़ करने लगें तो निस्संदेह विवाह का, दाम्पत्य जीवन का उद्देश्य सार्थक और सोद्देश्य सफल हो सकता है जिसके लिए विवाह के समय देवताओं से अभिन्न हृदय जल-धाराओं के संगम की तरह प्राणवायु के समान और एक-दूसरे को परमात्मा के समान धारण करने की प्रतिज्ञा की जाती है ।

(विवाहोन्मादः समस्या और समाधान पृ सं १.६)

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