विवाहोन्मादः समस्या और समाधान

विवाहों की असफलता कारण और निवारण

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विवाह एक संस्कार है, शरीरों का आदान-प्रदान मात्र नहीं । संस्कार उसे कहते हैं, जो मनुष्य का सुसंस्कृत मार्ग दर्शन करे । लोगों को व्यवस्थित-कला और सुरुचिपूर्ण जीवन की प्रेरणा भी दे और मानव जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक भी हो ।

इस परिभाषा में अब अपने यहाँ प्रचलित विवाह पद्धति का विश्लेषण करें तो यह पता चलता है कि विवाह अब संस्कार न रहकर रूढ़िवादी परम्परा का रूप धारण कर चुके हैं । जातियों, उपजाजियों के बवेले, दहेज विवाह के अनाप-शनाप व्यय, नेग-निष्ठोन कुण्डली से गुण मिलाना, मुहूर्त और कई-कई दिन तक लम्बी बरातें रोकना यह सारी बुराइयाँ इतनी बढ़ गई हैं कि विवाह को संस्कार कहना भी ठीक नहीं लगता ।

पुरुष अपने आप में अपूर्ण है, उसे जीवन व्यवहार में और आत्मिक आकांक्षाओं में सहयोग के लिए समान, गुण, संस्कार और सिद्धांतों वाली धर्मपत्नी की आवश्यकता पड़ती है । उसी प्रकार स्त्री को भी अपनी आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सहायक साथी की आवश्यकता होती है । विवाह को उन दोनों आत्माओं के 'जीवन लक्ष्य की प्राप्ति में सहयोग' का संकल्प कहना चाहिए । उस दृष्टि से ऊपर वर्णित जटिलताओं की कहीं भी कोई भी उपयोगिता दृष्टिगोचर नहीं होती ।

देवताओं, अग्नि और भगवान की साक्षी में सम्पन्न होने वाला विवाह एक प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान है । दो आत्माओं के भावनापूर्ण आध्यात्मिक विलयन को विवाह कहते हैं । पर अब जो परम्पराएँ प्रचलित हैं, उनमें कहीं भी न तो ऐसी प्रेरणा मिलती है ओर न शिक्षा का ही प्रावधान रखा गया है । इसलिए परम्परागत विवाहों को अब आदर्श विवाहों के रूप में ढालने की नितांत आवश्यकता है ।

यह सब आदर्श विवाह होंगे जिनमें पति-पत्नी यह अनुभव करें कि ये वासना की पूर्ति, बच्चे पैदा करने अथवा सामान्य जीवन बिताने के लिए ही प्रण्य-सूत्र में नहीं आबद्ध हो रहे वरन् वे परस्पर हित के लिए कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य, विवेक और अपने साथी को अधिक महत्त्व देने के लिए तैयार रहेंगे । विवाह अपने आपको समाज सेवा में ढालने की प्रारम्भिक किन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कदम है, उसके अनुरूप ही मानसिक और भावनात्मक तैयारी भी होनी आवश्यक है ।

तैयारी न होने के कारण ही आजकल विवाह असफल हो रहे हैं । कहीं दहेज को लेकर पति-पत्नी झगड़ते हैं, विचार-वैषम्य के कारण टकराव है । शरीर, रूप और स्वास्थ्य का आकर्षण कुछ दिन ही चलता है । इनका थोड़ा भी अभाव होने पर पति-पत्नी परस्पर खिंचने लगते हैं, एक घर में रहते हुए भी मन से कोसों दूर । ऐसे दम्पत्ति जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति करना तो दूर पार्थिव जीवन ही ऐसे जीते हैं, जैसे कोई हजार मन वजन का पत्थर उनकी छाती पर चढ़ा हो ।

होना यह चाहिए कि दोनों शरीर और स्वास्थ्य के साथ-साथ भावनात्मक एकता का भी परिपालन पूर्ण निष्ठा के साथ करें । इसके लिए न तो दहेज आवश्यक है, न लम्बी बारातें । उस वातावरण के विकास की आवश्यकता है, जो उनके मन सूक्ष्म रूप से वह संस्कार भर सकें और उन्हें इस बात की सशक्त प्रेरणा दे सकें कि विवाह का आध्यात्मिक उद्देश्य की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । यदि वह बात मन में बैठ जाये तो असफल विवाहों की समस्या स्वयंमेव हल हो जाय ।

अस्तु अब विवाह-परम्परा को जटिलताओं से उन्मुक्त रखकर आदर्शवादी बनाने की आवश्यकता है । बुद्धिवाद ठीक है पर जब तक इसमें भावनात्मक समन्वय न हुआ, विवाहों की आध्यात्मिकता विकसित न होगी । इसलिए पुरानी पद्धति को धीरे-धीरे हटाकर उसके स्थान पर विवाहों को धार्मिक आयोजन के रूप में मनाने की परम्परा डालनी पड़ेगी ।

(विवाहोन्मादः समस्या और समाधान पृ सं १.३९)

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