१९७० के दशक में हमारा परिवार गाँव का एक आदर्श परिवार था। पढ़ लिखकर मैं सन् १९७९ ई. में सरकारी सर्विस में आया। पढ़ाई के दिनों से ही मैं अपनी कमाई परिवार के सभी सदस्यों पर खर्च करने के मीठे सपने देखता रहा था, इसलिए मामूली जेब खर्च को छोड़कर अपना पूरा वेतन घर भेजने लगा। उन दिनों मेरी खूब आवभगत होती, कमाऊ पूत जो था। मैं स्वयं को धन्य मानता कि मैंने अपने परिवार का सारा कर्ज उतार दिया है और सभी सदस्यों की छोटी- बड़ी जरूरतें पूरी करता जा रहा हूँ।
धीरे- धीरे परिवार बढ़ता गया। पहले पत्नी आयी, फिर एक- एक कर तीन बच्चियों की किलकारियों से घर चहक उठा। किन्तु फिर भी मैं पहले की तरह ही परिवार वालों के काम आता रहा। पत्नी कभी कभार इस बात को लेकर शंका व्यक्त करती रहती थी कि जब बेटियाँ बड़ी हो जाएँगी, तो उनका घर बसाने में कोई भी हमारा साथ न देगा। तब मैं उन्हें झिड़क देता था। कुछ वर्षों बाद बड़ी बेटी की शादी तय हुई, तो शादी के खर्च की बात को लेकर घर में हंगामा खड़ा हो गया। सभी ने एक- दूसरे के सुर में सुर मिलाते हुए कहा- इतना खर्च हम कहाँ से करेंगे, जमा पूँजी तो कुछ भी नहीं है।
जैसे- तैसे बिटिया का विवाह तो संपन्न हो गया लेकिन बाहर से आए मेहमानों के एक- एक कर चले जाने के बाद घर में बैठक हुई और भाइयों ने कहा कि हमने आपके हिस्से की जमीन बेचकर यह विवाह सम्पन्न कराया है अतः आपका अब गाँव में कुछ नहीं बचा। भाइयों की बात सुनकर मैं सकते में आ गया। मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस परिवार की बेहतरी के लिये हमने पत्नी तक की बात नहीं सुनी, उसी परिवार के सदस्य हमें हिस्सेदारी से वंचित कर देंगे। किससे क्या कहा जाए, कुछ समझ में नहीं आ रहा था।
पत्नी का सामना करना मेरे लिए कठिन हो गया था। उसने तो कई बार टोका था- सँभल कर खर्च कीजिए न, तीन- तीन बेटियों की भी जिम्मेदारियाँ आपके ऊपर हैं। उनका भी तो आप पर कुछ अधिकार है आदि- आदि। उसकी इन बातों को मैंने कभी महत्त्व नहीं दिया। पर आज जब उसकी बातें सच साबित हुईं तो मेरे पास सिवाय पछताने के और बचा ही क्या था?
इसी बीच बड़ी बेटी ससुराल में न जाने किन परिस्थितियों का शिकार हुई कि आखिरकार दुनिया ही छोड़कर चली गई। बदली हुई विषम परिस्थितियों पर दिन- रात सोच- सोच कर मैं डिप्रेशन में चला गया। खाना- पीना सब कुछ अनियमित हो गया। इसका स्वास्थ्य पर असर तो पड़ना ही था। पत्नी बार- बार समझाती रही कि जो हो गया, उसे भूल जाएँ। नए सिरे से जिन्दगी को सम्भालें, सब ठीक हो जाएगा, पर मैं अन्दर से इतना टूट चुका था कि उसकी इन बातों का मुझ पर कोई असर नहीं होता। मेरे दिमाग में तो दिन- रात एक ही बात चक्कर काटती रहती कि काश हमने परिवार पर अपनी समस्त पूँजी न लुटाई होती? अवसाद इस सीमा तक पहुँच गया कि नौकरी से छुट्टी लेनी पड़ी। किसी प्रकार समय बीतने लगा, और धीरे- धीरे पूरा साल निकल गया। गृहस्थी का खर्च कैसे चलता था, मुझे कुछ नहीं मालूम।
सहधर्मिणी ने खूब साथ निभाया। कैसे भी, सिलाई बुनाई कर, बच्चों की परवरिश की। साथ ही दिन- रात मुझे अपने पहरे में रखती। बाद के दिनों में तो मैं दिन- रात कभी भी घर से निकल कर कहीं भी चला जाता। मुझे संसार से, स्वयं अपने जीवन से वितृष्णा हो गई थी। लगता था संसार के सारे व्यक्ति स्वार्थी, लोभी, लालची हैं। इनके साथ क्या जीना?
मैं विचारों से इतना संकीर्ण हो गया था कि बच्चों की ममता में भी मुझे स्वार्थ की बू आने लगी थी। सबको पराया मान कर स्वयं को समाप्त कर देने की मनःस्थिति आ गई थी कि इसी दौरान एक चमत्कार हुआ। कहीं से मुझे गायत्री यज्ञ का एक पर्चा मिला। उसमें लिखा था- जीवन से निराश, हताश व्यक्ति भी दुगुने उत्साह से जीवन जीने हेतु घीयामण्डी, मथुरा से सम्पर्क कर नवजीवन पाएँ व यहाँ से जीवनोपयोगी पुस्तकें मँगा कर पढ़ें।
इसे पढ़कर मेरे मन में आशा की नई किरण फूट पड़ी। मैंने वहाँ से एक पुस्तक मँगाई। उसमें लिखा था- महान व्यक्ति सदैव अकेले ही चले हैं। जो किसी दूसरे के आधार पर खड़ा होता है, वह तो निश्चित रूप से गिरता है, भला कभी नींव रहित मकान भी स्थाई हो सकता है? आदि- आदि।
इन बातों से मेरा अवसाद मिटने लगा। थोड़ा बहुत आत्मविश्वास लौटा तो लगा कि जीने की कोशिश तो कर ही सकता हूँ। अगले दो दिनों में मैंने गायत्री महाविज्ञान के तीनों भाग पढ़े तो मन विश्वास से भर उठा। शान्तिकुञ्ज जाने की व्याकुलता बढ़ी। पड़ोस के लोगों से गिड़गिड़ाकर कहने लगा कि कोई कृपा करके मुझे शान्तिकुञ्ज पहुँचा दे, पर सभी मुझे पागल समझकर मेरी बात टाल दिया करते थे। अन्त में एक भोले पड़ोसी को मुझ पर तरस आया और उसने मुझे पास के गाँव से शांतिकुंज जा रहे एक व्यक्ति के साथ लगा दिया। शान्तिकुञ्ज पहुँचकर कुछ समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूँ। किसी से कुछ पूछने का साहस भी नहीं हो रहा था। आत्मबल नाम की कोई चीज तो रह ही नहीं गई थी।
अन्ततः मैं माताजी व पूज्य गुरुदेव की समाधि के आगे बैठ गया और खूब देर तक रोता रहा। अपने हृदय में विराजमान ईश्वर से मन की व्यथा सुनाकर उनसे प्रार्थना करता रहा कि मुसीबतों के इस दौर से मुझे उबार लें। रो- रोकर मेरा मन बहुत हल्का हो चुका था। वहाँ का सुरम्य वातावरण मुझे भाने लगा। तीन दिन कैसे कट गए मुझे पता ही नहीं चला।
घर वापस आने पर नहा धोकर पूजा कक्ष में गया और पूज्य गुरुदेव का ध्यान करने लगा। अचानक पूरे कमरे में रोशनी की बाढ़ सी आ गई। मैंने देखा कि पूज्य गुरुदेव सामने खड़े मुस्करा रहे हैं। मुझे उनकी आवाज साफ- साफ सुनाई पड़ी।
गुरुदेव कह रहे थे- चिन्ता क्यों करता है- तेरी सभी समस्याओं का निवारण धीरे- धीरे होगा, प्रयत्न कर। मैं हमेशा तुम्हारा साथ दूँगा। पूज्य गुरुदेव के इस आश्वासन से मेरा खोया हुआ मनोबल लौट आया। जिन परिस्थितियों से मैं दूर भागना चाहता था, अब मैंने उन्हीं से लड़ना शुरू कर दिया था। पत्नी और बच्चों का जो प्रेमपूर्ण व्यवहार मुझे मोह माया का बंधन लगने लगा था, वही मुझे ईश्वर का अनुदान लगने लगा।
घर के लोगों द्वारा उपकार के बदले में मुझे जो तिरस्कार मिला, उसे मैं अब ईश्वर द्वारा ली गई परीक्षा मानने लगा था। यह बात मेरी समझ में आ चुकी थी कि परिवार के लोगों के लिए इतना कुछ करके मैंने उन पर कोई उपकार नहीं किया, बल्कि अपना ही ऋण चुकाया है। धीरे- धीरे मेरे परिवार की गाड़ी पुनः पटरी पर आ गई। वैसे तो मेरी समस्याओं के निदान में कुछ वक्त लग गया, लेकिन उन समस्याओं से लड़ने में मैं जहाँ भी लड़खड़ाने लगता था, किसी न किसी रूप में पूज्य गुरुदेव पास आकर मुझे संभाल ही लेते थे। आज मैं समृद्धि की जिस सीढ़ी पर हूँ, वहाँ पहुँचना गुरुसत्ता के अनुदान के बिना कतई संभव नहीं था।
प्रस्तुति: पारस नाथ तिवारी, राँची (झारखण्ड)