मुझे शादी के सात वर्षों के बाद चार वर्ष के अंतराल पर दो बेटियाँ बड़े ऑपरेशन से हुई थीं और सामाजिक संरचना को देखते हुए मेरी पत्नी एक पुत्र की चाहत में काफी चिंतित रहती थी; क्योंकि उस समय मान्यता थी कि ऑपरेशन के द्वारा तीन बच्चे ही हो सकते हैं। इसलिये मेरी पत्नी सोच में डूबी रहती थी कि अब तो अंतिम चांस है। पता नहीं मुझे पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी भी या नहीं। उन्हीं दिनों वह गर्भवती हुई; और इसी दौरान उन्होंने नवंबर १९८९ में षष्ठी व्रत रखा था। षष्ठी व्रत के दूसरे दिन रात्रि में स्वप्न देखती हैं कि बिल्कुल सादे लिबास में एक बूढ़ी औरत कह रही हैं कि तुम चिंतित मत होओ, तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी। एक दो महीने के बाद ही उसे मलेरिया बुखार हो गया। स्थानीय डॉक्टर और हाजीपुर की डॉ० सुचिता चौधरी (स्त्री रोग एवं प्रसूति विशेषज्ञ) ने कहा कि मलेरिया की दवा देने पर गर्भपात होने की प्रबल संभावना है; और अगर ऐसा नहीं होगा तो भी बच्चा विकलांग पैदा होगा। ऐसा सुनते ही मैं पत्नी को लेकर डॉ० सुभद्रा (स्त्री रोग विशेषज्ञ) के यहाँ पटना गया। वहाँ भी वही बात कही गई; परन्तु उन्होंने कहा कि पहले मरीज की जान बचाइए, बाद में बच्चे के लिए प्रयास किया जाएगा। उन्होंने जो दवा दी, उसे हम लोगों ने एक दिन तक उसे नहीं दिया, क्योंकि दवा से होने वाले बच्चे को खतरा है, यह जानने के बाद हमें हिम्मत नहीं हो रही थी कि दवा पिला दूँ। एक दिन तक हमने दवा रोके रखी। मगर रोगी को ठीक होने के लिए दवा तो लेनी ही होगी। दूसरे दिन रात्रि में गुरुजी- माताजी पर ध्यान लगाकर मैंने उसे दवा खिला दी। वह धीरे- धीरे स्वस्थ हो गई।
समय पूरा होने पर ८ अप्रैल १९९० को पटना की सुप्रसिद्ध चिकित्सक मंजू गीता मिश्रा के यहाँ ऑपरेशन से पुत्र का जन्म हुआ। बच्चा विकलांग तो नहीं हुआ लेकिन बहुत कमजोर था, जिसका वजन मात्र १.६ किलोग्राम ही था। बच्चे को पटना चिकित्सा महाविद्यालय एवं अस्पताल (पी एम० सी एच०) के शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ० अरुण ठाकुर की देख- रेख में प्रेमतारा नर्सिंग होम में इलाज हेतु भर्ती कराया। उसके नाक के एक छिद्र में ऑक्सीजन का पाइप तथा दूसरे छिद्र में ग्लुकोन- डी देने के लिये पाइप लगा दिया गया। दिन रात देखने वालों का ताँता लगा रहता था। लोग आश्चर्यचकित थे कि इतना छोटा और कमजोर बच्चा जीवित कैसे है। चार- पाँच दिन बीतने के बाद बच्चे को कै (उल्टी) हुई और बच्चे का पूरा शरीर नीला पड़ गया। डॉक्टर ने नर्स को सलाह दी कि उल्टी से पूरी गंदगी निकल नहीं पाई है, उसे मशीन से बाहर निकाल दीजिए। वैसे भी अब मेरे वश में नहीं रह गया इस बच्चे को बचाना। इस बच्चे को अब भगवान ही बचा सकते हैं। इतना सुनते ही मेरी बहन बहुत घबरा गई और दौड़ी- दौड़ी अपनी भाभी के पास गई और उन्हें सब कुछ बता दिया। वह अभी नर्सिंग होम में स्वयं ही नाजुक स्थिति में थी। डॉक्टरों ने सख्त हिदायत दे रखी थी कि उसे किसी प्रकार का सदमा न पहुँचे। बच्चे की स्थिति के बारे में सुनते ही उसने उसी अवस्था में अपने कलेजे में मुक्का मारकर बेड से छलांग लगा दी और गुरु देव को कोसने लगी। वह बोली- हे गुरु देव, जब मुझसे मेरा बच्चा छीन ही लेना था तो बेटा दिया ही क्यों?
इसके तुरंत बाद बच्चे का शरीर नीला से सामान्य होने लगा और बच्चे में एक विशेष स्फूर्ति पैदा हो गई। इसके बाद वह बच्चा अपने नाक का पाइप बार- बार पकड़कर बाहर निकाल देता था। डॉक्टर का कहना था- बच्चे को कम से कम तीन महीने उस शीशे के बॉक्स में रखना पड़ेगा। बच्चे की स्थिति को देखकर मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि गुरु जी की कृपा से बच्चा अब पूर्ण स्वस्थ हो चुका है। जो बच्चा कुछ ही देर पहले बिल्कुल निस्तेज- निर्जीव पड़ा था वह अपने हाथ से पाइप पकड़कर बाहर निकाल दे- यह अनहोनी गुरु कृपा से ही संभव थी। मैं पूरे आत्मविश्वास के साथ जिम्मेवारी लेते हुए बच्चे को घर ले आया। डॉक्टर ने कहा था- ऐसा करना खतरे से खाली नहीं होगा। पर मुझे ऐसा लगा कि जबरन नाक में पाइप लगाए रखना ही खतरनाक होगा; इसलिए डॉक्टर के नाराज होने पर भी मैं उसे घर ले आया। आज वह बिल्कुल स्वस्थ है।
प्रस्तुतिः- वीरेन्द्र कुमार सिंह
वैशाली (बिहार)