अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -1

परीक्षा के दिन हुआ बीमारी से बचाव

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        बचपन से ही मैं अपने परिवार में गायत्री साधना का क्रम देखता रहा हूँ। उस वातावरण में पले होने के कारण एक स्वाभाविक विश्वास तो बना हुआ था ही, पर उसमें वह तासीर तो तब आई, जब मैंने खुद अपने जीवन में उस साधना के चमत्कार को प्रत्यक्ष किया।

        एक साधारण किसान परिवार में मेरा जन्म हुआ। सन् १९९६ में हमारे गाँव में पंचकुण्डीय गायत्री यज्ञ का अनुष्ठान हुआ। अनुष्ठान तीन दिनों का था, जिसका आयोजन मेरे पिताजी ने ही किया था। इस अनुष्ठान में कई तरह के संस्कार भी सम्पन्न कराए गए। जिनमें विद्यारम्भ संस्कार और दीक्षा संस्कार कराने वालों की संख्या ही अधिक थी। मुझे भी उसी समय दीक्षा मिली। तब मैं छठी कक्षा में पढ़ता था।

        तब मैं दीक्षा का मतलब समझने लायक तो नहीं था पर इतना याद है कि उस दिन मैं बहुत खुश था, ऐसा लग रहा था, जैसे मैं महत्त्वपूर्ण हो गया हूँ। सच बताऊँ, तो मैं भी कोई हूँ, इसका आभास पहली बार मिला। दीक्षा में मुझे गायत्री मंत्र दिया गया।  मंत्र तो मैं पहले भी जानता था लेकिन बताई गई विधि के अनुसार साधना उसी समय से आरंभ हुई।

        यह घटना उन दिनों की है जब, मैं आठवीं कक्षा में था। एक दिन अचानक मेरी तबियत खराब हुई। पेट में जोरों का दर्द होने लगा। इसके बाद दो- चार दिन बाद नाक से खून गिरने लगा। धीरे- धीरे यह एक सिलसिला बन गया।

        अक्सर ही नाक से खून गिरने लगता और मैं पकड़कर चित लिटा दिया जाता। जब उठकर कुछ इधर- उधर चलने फिरने का प्रयास करता, तो सिर में चक्कर आने लगता और मैं गिर पड़ता। कई डॉक्टरों को दिखाया गया, तीन साल तक इलाज चलता रहा, पर बीमारी ज्यों की त्यों बरकरार रही। कई तरह की जाँच के बाद भी डॉक्टर यह समझ नहीं पाए कि हुआ क्या है।

        इस बीच पढ़ाई जैसे- तैसे चलती रही। आठवीं से दसवीं में आ गया। बोर्ड की परीक्षा नजदीक आ गई। लेटे- लेटे ही पढ़ाई करता था। बैठकर पढ़ने का प्रयास करता तो नाक से खून आने लगता।

        चिंता थी कि बोर्ड की परीक्षा कैसे दूँगा। यहाँ स्कूल में तो सारे ही शिक्षक अपने थे। उन्हें मेरे साथ हमदर्दी थी, इसलिए किसी तरह निभ गया। लेटे- लेटे ही परीक्षा देता रहा। लेकिन यहाँ बोर्ड परीक्षा में मेरी कौन सुनेगा? पिताजी को अपनी चिन्ता बताई। उन्होंने जैसे पहले से ही कुछ सोच रखा हो, वह बोले- देखता हूँ, कुछ तो रास्ता निकलेगा ही।

        एडमिट कार्ड आ गया, तो पिताजी को दिखाया। वे उसे लेकर परीक्षा केंद्र में गए। प्रधानाध्यापक से मिलकर पूरी परिस्थिति बताई। उन्होंने सहयोग का आश्वासन दिया। बोले- मैं ऑफिस में उसके लिए ऐसी व्यवस्था कर दे सकता हूँ कि अकेले बैठकर या लेटे- लेटे ही परीक्षा दे सके। मैं खुश था चलो बोर्ड की परीक्षा छूटेगी नहीं।

        १४ मार्च २००१ को परीक्षा आरंभ होने वाली थी। ठीक उसके एक दिन पहले ऐसा आभास हुआ कि गुरुदेव कह रहे हैं- तुम साधारण तरीके से सबके साथ बैठकर परीक्षा दोगे। डरो मत! हम तुम्हारे साथ हैं। परीक्षा के कुछ दिनों बाद तुम पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाओगे।

        मैंने देखा कि मेरे सामने गुरुदेव और माताजी अभय मुद्रा में हाथ उठाए मुस्करा रहे हैं। अगले ही पल मैं आत्मविश्वास से भर गया और तय कर लिया कि सबके साथ बैठकर परीक्षा दूँगा।

        आश्चर्य की बात है कि परीक्षा के सारे ही पेपर मैंने साधारण तरीके से सब लड़कों के साथ बैठकर दिए। एक दिन भी कुछ नहीं हुआ। इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जैसे- तैसे अध्ययन की प्रक्रिया चलते रहने के बावजूद इस परीक्षा में मुझे ७० प्रतिशत अंक मिले, जिसकी मुझे कल्पना तक नहीं थी। घर के सभी लोग आश्चर्यचकित थे।

        परीक्षा के बाद दिल्ली अस्पताल में मेरा इलाज हुआ। इलाज करने वाले चिकित्सक थे डॉक्टर खक्कड़ साहब, वे भी गायत्री साधक हैं।

        उन्होंने मुझसे कहा- गुरुदेव पर भरोसा रखो, सब ठीक होगा। नियमित गायत्री का जप करना। उन्होंने दवा दी, जिसे ६० दिनों तक खाना था। एक टिकिया की कीमत मात्र २५ पैसे थी।

        जैसा पूज्य गुरुदेव ने कहा था ठीक वैसा ही हुआ। नवम्बर तक मैं पूर्ण स्वस्थ हो गया। अब मैंने अपना जीवन पूज्य गुरुदेव को समर्पित कर दिया। आज मैं इक्कीस साल का हूँ और पटना प्रज्ञा युवा प्रकोष्ठ के सक्रिय सदस्यों में गिना जाता हूँ।

प्रस्तुतिः निशांत रंजन,  सीवान (बिहार)
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