मैं बचपन से ही बहुत तार्किक स्वभाव का था। ज्यादा पूजा पाठ या साधू बाबा आदि के आडम्बरों से बहुत दूर रहता था। मुझे समाज निर्माण से जुड़े नैतिक और सामाजिक कार्यों में रुचि थी। मुझे आर्यसमाज से जुड़ी हुई कुछ चीजें पसन्द थीं, विशेषकर गायत्री मंत्र। १९७६ की बात है। उन्हीं दिनों मैं पहली बार इस मिशन से परिचित हुआ। मेरे बड़े भाई के समान श्री मंगल प्रसाद लोहिया जी एक दिन मेरे पास आए और बोले कि आपको सोनी माता जी के यहाँ गायत्री यज्ञ में चलना है। चूँकि मेरी गायत्री मंत्र में श्रद्धा पूर्व से ही थी, मैं सहर्ष तैयार हो गया।
मैं सोनी माता जी के यहाँ यज्ञ में पहुँचा। यज्ञ श्री कोलेश्वर तिवारी जी करा रहे थे। मैंने प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ किया। यज्ञ के बाद तिवारी जी बोले अब कुछ दक्षिणा दो। मैं दक्षिणा का अर्थ ठीक से नहीं समझ पाया, तो उन्होंने बताया कि अपने अन्दर की कुछ बुराई यज्ञ भगवान की साक्षी में छोड़ दो। मैंने पान, नॉनवेज तथा आलस्य आदि छोड़ दिया और प्रतिदिन गायत्री मंत्र की उपासना करने लगा। लगभग १५ दिन के अन्दर ही मुझे हरिद्वार जाने की प्रेरणा हुई।
संयोग से मंगल जी शान्तिकुञ्ज जा रहे थे, मैं भी उनके साथ हो लिया। ट्रेन से सुबह ही पहुँच गया था। स्नान आदि के बाद मैं गुरुजी के प्रवचन में पहुँच गया। मुझे शान्तिकुञ्ज के वातावरण से लगा मैं स्वर्ग में पहुँच गया हूँ। उसके बाद जब गुरुदेव का प्रवचन सुना तो लगा मैं बहुत सौभाग्यशाली हूँ, जो ऐसे भगवान स्वरूप गुरु के दर्शन हुए।
प्रवचन समाप्त होने के बाद मंगल जी ने मंच के पीछे मुझे गुरुदेव से मिलाया और मेरा परिचय दिया। गुरुदेव ने कुशल क्षेम पूछा। उनके सरल व्यक्तित्व से मैं बहुत प्रभावित हुआ। वे ऐसे बात कर रहे थे जैसे मुझे बहुत पहले से जानते हों। उनका अपनापन देखकर मेरे हृदय में उनके प्रति अटूट श्रद्धा हो गई।
उसके पश्चात् मैं गुरुदेव से उनके कमरे में मिला। गुरुदेव ने मुझे अपने पास बिठाया। घर परिवार का हाल पूछा। मैं असमंजस में पड़ गया कि क्या उत्तर दूँ। मुझे निरुत्तर देख वे बोले ‘तुम हमारा काम करो, हम तुम्हारा काम करेंगे।’ तुम्हारी दुकानदारी, बीमारी, परेशानी सबकी जिम्मेदारी मेरी है। बस तुम मन लगाकर कार्य करना। इतना बड़ा आश्वासन पाकर मैं कृतार्थ हो गया। उस समय तो दो- तीन दिन वहाँ रहकर मैं घर वापस आ गया। लेकिन शान्तिकुञ्ज का आकर्षण बराबर अनुभव होता रहता। मैंने उस समय ३ शिविर १- १ महीने के कर डाले। इस तरह से मैं किसी न किसी रूप में शान्तिकुञ्ज हमेशा महीने- दूसरे महीने पहुँच ही जाता।
सन् १९८६ की घटना है। मुझे हार्ट में कुछ परेशानी मालूम पड़ने लगी। इधर- उधर कुछ दिखाया, लेकिन आराम नहीं मिला। मेरे मित्र अरविन्द निगम जी को इस बात का पता चला। वे तुरन्त मुझे लखनऊ मेडिकल कालेज लेकर गए। वहाँ डॉक्टरों ने बताया कि हार्ट में प्रॉबलम है। चूँकि इसमें दवा काम नहीं करेगी इसलिए एक छोटा सा ऑपरेशन करेंगे। ऑपरेशन का खर्च लगभग ७० हजार रुपए बताया गया।
खर्च की राशि सुनते ही जैसे लगा कि पैरों के तले की धरती ही खिसक गई। मेरे पास ५ हजार रुपये भी नहीं हैं। ७० हजार कहाँ से लाऊँगा। मैं घर वापस चला गया। मैं मानसिक रूप से बहुत परेशान था। मेरी इतनी बड़ी हैसियत भी नहीं थी कि उधार लेकर ऑपरेशन कराता। वापस करता भी तो कैसे? यह मेरे लिए उस समय असंभव ही था। मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। अचानक मुझे गुरुदेव के वे शब्द याद आये कि बेटा ‘तुम हमारा काम करो, हम तुम्हारा काम करेंगे।’
तुरन्त मैंने हरिद्वार जाने की व्यवस्था बनाई। शान्तिकुञ्ज पहुँचकर डॉ० प्रणव पण्ड्या जी भाई साहब को अपनी रिपोर्ट दिखाई। दवा आदि का पर्चा भी दिखाया। डॉ० साहब भी बोले, स्थिति तो ऑपरेशन की ही बन रही है। फिर मैं गुरुदेव के पास गया। उनसे सारी बातें बताई। रिपोर्ट और सारे पर्चे भी दिखाए। गुरुदेव बोले- तुम्हें कुछ नहीं होगा। तुम्हें कोई बीमारी नहीं है। जाओ मन लगाकर काम करो। खूब साइकिल चलाना। तुम्हें कुछ नहीं होगा।
कहते हैं, गुरु का वाक्य ब्रह्मवाक्य होता है। गुरुदेव का वह वाक्य सचमुच मेरे लिए ब्रह्मवाक्य बन गया। मैं आज तक पूरी तरह स्वस्थ हूँ। मुझे किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं है। गुरुदेव की कृपा से मेरा जीवन संकट बड़ी आसानी से टल गया। मैं उस परमसत्ता का बहुत ऋणी हूँ, जिन्होंने मुझ अकिंचन पर अहैतुक कृपा की। मैं आज भी तन- मन से गुरु कार्य में संलग्न हूँ।
प्रस्तुति :: बिजलेश्वरी प्रसाद कसेरा
चौक बाजार, बलरामपुर (उ.प्र.)