वर्ष १९९९ की बात है। फरवरी का महीना था। पहला सप्ताह रहा होगा। बाहर से अन्दर तक जमा देने वाली ठण्ड में हिम प्रदेश हिमाचल की देवभूमि पर जाने का मौका गुरुकाज से मिला था। हिमाचल के कांगड़ा जिले में पालमपुर तहसील के गाँव दरगील- देवगाँव के निवासी डॉ. अश्विनी कुमार शर्मा, जो इन दिनों लखनऊ स्थित भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान में प्रधान वैज्ञानिक हैं; और उनकी धर्मपत्नी, बहिन श्रीमती कंचनबाला शर्मा, संजय गाँधी पी.जी.आई. लखनऊ में कार्यरत हैं के दो सुपुत्रों चि. अर्णव और प्रणव का यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न कराने हम चार गायत्री परिजन लखनऊ से हिमाचल पहुँचे थे।
हम लोगों का तीन दिनों का हिमाचल प्रवास था। कुल चार बटुकों के यज्ञोपवीत संस्कार, पंचकुण्डीय गायत्री यज्ञ, दीपयज्ञ और विचार संगोष्ठी आदि के त्रिदिवसीय कार्यक्रम सम्पन्न कराकर चौथे दिन प्रातःकाल हम लोगों को पठानकोट के लिए जीप से नीचे आना था। जाड़ा बहुत होता था, हाड़ कँपा देने वाली ठण्ड में सूर्योदय के पहले स्नानादि करके बन्द कमरे में हम लोग जप- ध्यान का क्रम पूरा कर लेते थे। विदाई वाले दिन हम चारों ने सोचा कि आज की प्रार्थना बर्फ से लदे पर्वत देवात्मा हिमालय के सामने खुले आकाश के नीचे की जाए।
हमारे टोलीनायक अग्रज श्री राम महेश मिश्र, भाई श्री राधेश्याम गिरि, श्री रामनाथ यादव और हम गाँव के उत्तरी छोर पर खड़े होकर सामूहिक स्वर में विविध प्रार्थनाएँ कर रहे थे। भावातिरेक में कुछ समय के लिए हमारी आँखें बन्द हो गई थीं। अचानक भाई मिश्र जी ऊँची आवाज में बोले- भाई! सब लोग सामने पहाड़ के ऊपर देखिये। उनके स्वर में अजीब सी उत्तेजना थी।
हम तीनों ने एक साथ आँखें खोलकर पूछा। क्या- कहाँ? उन्होंने दाहिने हाथ की तर्जनी से पर्वत की ऊँची चोटी की ओर इशारा किया। हमने देखा, ट्रेन की हेडलाइट जैसे दो प्रकाशपुँज पर्वत शिखर पर चमक रहे हैं। हम चारों परिजन उन प्रकाशपुंजों को परम पूज्य गुरुदेव और परम वंदनीया माताजी की प्रत्यक्ष उपस्थिति मानकर श्रद्धावनत हो गए।
हम चारों हर्ष- मिश्रित आँसुओं के साथ गुरुसत्ता की स्तुतियाँ गाए जा रहे थे। लगभग छः मिनट तक वे दोनों प्रकाश पुंज चमकते रहे, फिर धीरे- धीरे मध्यम होते हुए विलीन हो गए। हुआ यह था कि श्री राम महेश जी के मन में प्रार्थना के समय अचानक एक भाव आया। भाव के उसी प्रवाह में उन्होंने पूज्य गुरुदेव से कहा- गुरुवर! ०२ जून, १९९० को आप हम लोगों से बहुत दूर चले गए। तब आपने कहा था कि आप सूक्ष्म व कारण शरीर में हिमालय पर रहेंगे। अब तो हम हिमालय के पास ही हैं, गुरुवर! क्या यहाँ भी अदृश्य ही बने रहेंगे? यह सब सोचते हुए उन्होंने आँखें खोलकर हिमालय की ओर देखा। पूरी तरह बर्फ से ढके हिमालय पर्वत की सबसे ऊँची चोटी के समीप की चोटी पर दो प्रकाशपुञ्ज उन्हें दिखे। प्रकाशपुंज देखते ही मिश्र जी ने हम सबका ध्यान उस ओर आकृष्ट कराया था।
उस समय सूर्यदेव नहीं निकले थे। ऊषाकाल था, पर्वत की उस ऊँचाई पर न तो कोई रिहायश थी और न ही कृत्रिम प्रकाश व्यवस्था की कोई संभावना। प्रार्थना शुरू करते समय उस शिखर पर ऐसा कुछ भी नहीं दिखा था। कोई ऐसा निशान नहीं था, जिसे भ्रम कहा जा सके। हम चारों आज भी पूरे विश्वास के साथ यह कह सकते हैं कि प्रकाश पुंज के रूप में प्रकट होकर हमारे आराध्य, हमारे गुरुदेव- माताजी ने अपने उस आश्वासन को पूरा किया, जिसमें उन्होंने कहा था- ‘करोगे याद हमको पास अपने शीघ्र पाओगे’।
आज जब चिरंजीवी अर्णव शर्मा अमेरिका में एम.एस. कर चुके हैं और प्रणव शर्मा इञ्जीनियर बन चुके हैं, देवभूमि हिमाचल में उनके दादा पुण्यात्मा साधक श्री विशनदास शर्मा जी के पुरखों के घर के पास की वे यादें हम चारों भाइयों के जेहन में ठीक वैसी ही बनी हुई हैं।
प्रातःकाल की आत्मबोध साधना में जब भी हम उस हिमक्षेत्र की मानसिक यात्रा करते हैं, क्षण मात्र में हमें अपने आस- पास गुरुसत्ता की पावन उपस्थिति की सहज अनुभूति होने लगती है।
प्रस्तुतिः देवनाथ त्रिपाठी,
वरिष्ठ आरक्षी, जिला कारागार,
सीतापुर- (उ.प्र.)