अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -1

मैं अभागन उन्हें पहचान न पाई

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        सन् २००९ ई. की गुरु पूर्णिमा के दिन अपने पति और बेटे के साथ मैं हरिद्वार पहुँची। दो कुली को साथ लेकर हम तीनों प्लेटफार्म से बाहर आए। सड़कों पर सन्नाटा छाया हुआ था। जगह- जगह सेना के जवान तैनात थे। हमारे बाहर निकलते ही सेना के एक गश्ती दल ने रोककर कहा- शहर में धारा १४४ लागू है। एक साथ पाँच लोगों का घर से निकलना मना है। तुरन्त वापस जाओ। वरना गिरफ्तार कर लिए जाओगे, पर हमारा शान्तिकुञ्ज पहुँचना बहुत ही जरूरी था। हमें अगले दिन से आरम्भ होने वाली विशेष साधना के लिए उसी दिन संकल्प लेना था। पति और बेटे को वहीं छोड़कर मैं सड़क की ओर बढ़ी। पतिदेव ने टोका- कहाँ जा रही हो? मैंने कहा- आगे जाकर देखती हूँ, शायद कोई सवारी मिल जाए। मेरा जवाब सुनकर वे मुझ पर बरस पड़े- तुमने सुना नहीं कि धारा १४४ लागू है। यहाँ कोई तेरा बाप बैठा है, जो तुझे ले जाएगा। मैंने तमककर कहा- हाँ हैं न बाप! वही तो ले जाएँगे।

        बाहर निकलकर काफी देर तक खड़ी रही, पर कोई सवारी नहीं मिली। मैंने घड़ी देखी- बीस मिनट बीत चुके थे। शाम होने से पहले पहुँचना जरूरी था। कुछ देर और रुकी रही तो संकल्प का समय निकल जाएगा। यह सोचकर मुझे रोना आ गया। हे गुरुदेव! अब क्या करूँ? तुमने बुलाया, तो मैं आ गई। अब तुम्हीं कुछ ऐसा करो कि संकल्प ले सकूँ।     

        मुझे रोते देख गश्ती दल वाले आकर पूछताछ करने लगे। मैं उन लोगों को समझाने का प्रयास कर रही थी कि मेरा आज ही शांतिकुंज पहुँचना बहुत जरूरी है। सभी यही कहते- पैदल चले जाओ, मगर मैं उतनी दूर तक पैदल चल नहीं सकती थी और हमारे साथ सामान भी बहुत सारे थे।

        करीब ४५ मिनट बाद सामने से एक रिक्शा वाला आता हुआ दिखा। उसने पीला कुर्ता पहन रखा था। कन्धे पर पीला झोला भी लटकाये हुए था। पास आने पर मैंने उसे रोकते हुए कहा- बाबा मुझे शांतिकुंज जाना है, चलोगे क्या? रिक्शा वाला बोला- बैठ जाओ, पहुँचा देता हूँ। मैंने कहा- मैं अकेली नहीं हूँ, मेरे साथ मेरा बेटा और पति हैं। कुछ सामान भी है। उसने कहा- ले आओ।

        वापस आकर मैंने बेटे से कहा- जल्दी से सामान उठाओ, एक रिक्शा वाला जाने को तैयार है। इतना सुनते ही मेरे पति बेटे से कहने लगे- तुम्हारी माँ तो पागल हो गई है। धारा १४४ में रिक्शे वाले को कौन जाने देगा। इतने में रिक्शा वाला भी हमारे पास आकर बोला- चलना है तो चलो, नहीं तो मैं जा रहा हूँ। मैंने इन दोनों से कहा- कोई जाए या न जाए, मैं तो जाती हूँ। मेरे रिक्शा पर बैठने के बाद वे दोनों भी सामान के साथ आ बैठे।

        रिक्शा अभी थोड़ी ही दूर चला था कि गश्ती दल वालों से सामना हुआ। उन्होंने रिक्शा किनारे लगवाकर कहा- पैदल जाना हो तो जाओ, रिक्शा नहीं जायेगा। रिक्शावाला कुछ देर तो चुपचाप खड़ा रहा, फिर उसने नजर बचाकर निकलने की कोशिश की। लेकिन गश्ती दल वालों ने उसे निकलने नहीं दिया। जब तीन बार ऐसा ही हुआ, तो उसने सिपाहियों से कहा- अब तुम लोग हाँ कहो या ना कहो, मुझे तो इन्हें शांतिकुंज ले ही जाना है। सिपाहियों ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा- बाबा, हम तो नियम से बँधे हैं, यदि तुम्हें जाने दें, तो साहब हमें सस्पेंड कर देंगे।

        रिक्शे वाले ने कहा- तुम्हें कोई सस्पेंड नहीं करेगा। कहाँ हैं तुम्हारे साहब? ले चलो मुझे उनके पास। एक सिपाही रिक्शे वाले को साथ लेकर अन्दर गया। देखते ही साहब कड़ककर बोले- क्या बात है? रिक्शावाले ने बताया- बाबूजी इनका शांतिकुंज पहुँचना बहुत जरूरी है। महिला हैं, इतनी दूर पैदल कैसे चलेंगी? साथ में सामान भी है। दोनों की बहस में दस मिनट बीत गए। अंत में बाबा ने कहा- रिक्शा नहीं जा सकती, तो आप ही पहुँचाइये। आपके पास तो सरकारी गाड़ी भी है।

        इस बात पर पास ही बैठे बड़े साहब को हँसी आ गई। वे बोल पड़े- अरे जाने दो इसे, पागल है, मानेगा नहीं। रिक्शा आगे बढ़ चला। बाबा ने शांतिकुंज के गेट पर पहुँचकर रिक्शा रोका। मैंने बाबा से कहा- तुम भी चलो, सुबह हवन करके चले जाना। बाबा मुस्कराने लगे। अब मेरा ध्यान बाबा के चेहरे की तरफ गया। मैं यह देखकर चौंक पड़ी कि बाबा का चेहरा पूज्य गुरुदेव से मिलता- जुलता है। पूजा घर में मैं देर तक गुरुदेव का फोटो देखती रहती हूँ। मुझे लगा कहीं ये गुरुदेव ही तो नहीं। वहीं कद- काठी, वही ललाट, वैसे ही ऊपर की तरफ लहराते बाल। फर्क सिर्फ इतना था कि बाबा की तरह उनकी दाढ़ी नहीं थी।

        तभी बाबा के बोलने से मेरा ध्यान टूटा। वे कह रहे थे- सामान अन्दर ले जाओ, देर हो रही है। मैंने कहा- पहले भाड़ा तो दे दूँ। वे बोले- एक बार में सारा सामान नहीं जा सकेगा। तुम लोग थोड़ा सामान अन्दर रखकर आ जाओ, तब तक मैं बाकी के सामान देखता हूँ।
        वापस आकर मैंने देखा कि सामान तो गेट के पास ही रखा है, लेकिन न तो वहाँ कोई रिक्शा है और न ही रिक्शे वाले बाबा। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि बिना पैसे लिए ही बाबा चले कैसे गये। अचानक मन में यह सवाल उठा- कहीं ये पूज्य गुरुदेव ही तो नहीं थे। हरिद्वार स्टेशन के पास धारा १४४ होने के बावजूद एक रिक्शे वाले का आना, पुलिस वालों को मनाकर हमें शांतिकुंज पहुँचाना अनायास ही नहीं हुआ। यह गुरुदेव की ही लीला है।

        बात समझ में आते ही मैंने दोनों हाथों से सिर पीट लिया- हाय अभागन! तुमने उन्हें पहले ही क्यों नहीं पहचाना? मैं बिलख उठी- हाय गुरुदेव! मुझे छलावा देकर चले गए। अपने बारे में बता दिया होता, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता। यह अभागन भी तुम्हारे चरणों की धूल अपने माथे से लगाकर अपना जीवन सफल बना लेती।
    
प्रस्तुतिः नीता बेन देवेन्द्र भाई जानी
अहमदाबाद (गुजरात)

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