उन दिनों मैं राजकीय रेलवे पुलिस में डी.आई.जी. के पद पर कार्यरत था। मेरे कई मित्रों ने पूज्य गुरुदेव के बहुआयामी व्यक्तित्व के विषय में इतना कुछ कहा कि हरिद्वार जाकर उनसे मिलने की इच्छा जाग उठी। इसलिए जब यू.पी. पुलिस के साथ सहयोग बैठक के क्रम में हरिद्वार का कार्यक्रम बना, तो मन ललक उठा- कुछ ही देर के लिए सही, समय मिल जाता तो उनसे भी मिल लेता।
सहयोग बैठक के व्यस्त कार्यक्रमों के कारण शांतिकुंज जाने का समय निकल पाएगा, इसमें कुछ संदेह- सा लग रहा था। फिर भी मैंने उत्तर प्रदेश के संबंधित अधिकारी से अनुरोध किया कि मेरी शान्तिकुञ्ज जाने की प्रबल इच्छा है। अतः वहाँ जाने के लिए मुझे थोड़े समय का अवकाश दिया जाय। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार बैठक के बीच में दो घण्टे का अवकाश था। उतना ही समय मिल पाया। अनुमति मिल जाने से मुझे काफी खुशी हुई। मैं इतने से ही खुश हो रहा था कि भागते दौड़ते ही सही, आचार्यश्री के दर्शन तो कर लूँगा। क्या पता, फिर बाद में कभी मौका मिले या नहीं।
शान्तिकुञ्ज पहुँचा, तो पता चला कि गुरुदेव सूक्ष्मीकरण साधना में हैं। अब वे किसी से मिलते- जुलते नहीं हैं। वन्दनीया माताजी, शैल जीजी, डॉ. साहब -- इन तीनों के अलावा और कोई मिल नहीं सकता। यह जानकर बड़ी निराशा हुई। इतने दिनों से सोच रखा था, लेकिन यहाँ आकर भी दर्शन नहीं हुए। अपने- आप पर बहुत कोफ्त हुई। चाहता, तो कभी खुद ही कार्यक्रम बनाकर आ सकता था। किसी ने कहा- माता जी से मिल लीजिए, अब तो सारी शक्तियाँ उन्हीं के पास हैं। मन में एक उम्मीद बँधी, माताजी के पास जाकर उनसे प्रार्थना करूँगा। शायद दर्शन हो ही जाएँ। माताजी से मिला। विगलित स्वर में उनसे विनती की- एकबार आचार्यश्री से मिलवा दें, बड़ी उम्मीद लेकर आया हूँ।
माताजी ने आँखें मूँद लीं, कुछ देर मौन रहीं, फिर उठकर अन्दर चली गईं। मैं चुपचाप बैठा भगवान से प्रार्थना करने लगा- हे भगवान बड़ी मुश्किल से अधिकारियों को मनाकर यहाँ तक आया हूँ। अब मुझ पर इतना अनुग्रह तो कर ही दो कि मैं उनसे मिल सकूँ। पल भर के लिए ही सही एक बार उनके दर्शन तो करा दो, प्रभु! मैं उधेड़बुन में पड़ा अकेला बैठा हुआ था। थोड़ी देर बाद माताजी लौट आईं। उन्होंने हँसते हुए मुझसे कहा- जाओ बेटा, मिल लो। गुरुदेव ने तुम्हें बुलाया है।
मैं उठकर तेजी से चल पड़ा। जिस कमरे में गुरुदेव बैठे थे, उसके अन्दर जाते ही तेज प्रकाश से आँखें चकाचौंध हो गईं। पूरा कमरा एक अलौकिक प्रकाश से भरा था। थोड़ी देर में आँखें उस प्रकाश की अभ्यस्त हुईं तो कमरे में फर्श से लेकर छत तक फैले उस प्रकाश के बीच मुझे पूज्य गुरुदेव दिखे, उनके अंग- अंग में प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा था। मैंने उनकी ओर देखा, लेकिन क्षण भर के लिए भी उनसे आँखें नहीं मिला सका।
मैंने महसूस किया कि उनकी आँखों से दिव्य प्रकाश की किरणें निकलकर मेरे अन्दर प्रविष्ट हो रही हैं। इस प्रक्रिया के प्रारंभिक क्षण तो असह्य- से थे, किन्तु शनैः शनैः वह प्रकाश मेरे संपूर्ण शरीर के लिए सहनीय होने लगा। अब मैं पूज्य गुरुदेव को आसानी से देख पा रहा था। वे शांत, प्रफुल्लित बैठे थे। वे मेरी ओर गहरी नजरों से देखकर मुस्कराये। फिर उन्होंने कहा- यह दिव्य प्रकाश तुम्हारे लिए अभेद्य रक्षा कवच का काम करेगा। सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तुम जो चाहोगे, वही होगा। अब कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।
..... और सचमुच हुआ भी ऐसा ही। पहले मेरी कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी और सख्ती के कारण प्रशासनिक तथा राजनैतिक जगत की कुछ बड़ी हस्तियाँ मेरे विरुद्ध हो गई थीं, लेकिन, पूज्य गुरुदेव द्वारा किए गए उस शक्तिपात से मेरे सभी विरोधी एक- एक कर धराशाई होते चले गए और गुरुकृपा से मेरी चर्चा ईमानदारी तथा कर्तव्यनिष्ठा के उदाहरण के रूप में होने लगी।
प्रस्तुतिः शिवमूर्ति राय
सेवानिवृत्त डी.जी.पी., (बिहार)