अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -1

...तब भी मैं अकेली नहीं थी

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        सन् २००१ की बात है। हम सोलह- सत्रह महिलाओं की टोली टाटानगर से शान्तिकुञ्ज के लिए चली। हमें नौ दिवसीय सत्र में भाग लेना था। साथ में एक- दो भाई भी थे।

        सभी यह सोचकर बहुत खुश थे कि पहली बार लगातार कई दिनों तक सेवा दान का अवसर मिलेगा। हम बहिनों को भोजनालय में खाना बनाने का काम मिल गया। सभी ने मिल- जुलकर बड़े प्रसन्न मन से खाना बनाया। वैसे तो, मैंने गुरुदेव को कभी देखा नहीं था, पर ऐसा लगता था, मानो उन्हीं के लिए खाना बना रही हूँ। पूरे प्रवासकाल में बड़ा आनन्द आया।

        नौ दिनों के बाद सभी भरे मन से विदा हुए। चूँकि हम टोली में थे, इसलिए सब की टिकट एक साथ ही बनी थी। नियत समय पर गाड़ी आई और हम सभी चढ़ भी गए। लेकिन आपा धापी में मैं जिस डिब्बे में चढ़ी थी, उसमें मेरे ग्रुप के कोई नहीं थे। घबराहट में उस डिब्बे से उतरकर दूसरे डिब्बों में जा- जाकर उन्हें ढूँढ़ने लगी- क्योंकि मेरे पास न तो टिकट था, न पैसे थे। मैं उन्हें ढूँढ़ ही रही थी कि इतने में गाड़ी खुल गई।

        मैं डर गई कि कहीं बिना टिकट के पकड़ी जाऊँगी, तो मुसीबत आ जाएगी। उतर कर स्टेशन पर आ गई। गाड़ी की रफ्तार तेज होती जा रही थी। ट्रेन के डिब्बे एक- एक करके आँखों के आगे से गुजरते जा रहे थे। अपनी टोली की बहिनों को खोजने के क्रम में मैं डिब्बे के भीतर झाँकती हुई उनके नाम ले- लेकर जोर- जोर से पुकार रही थी। एक- एक कर सभी डिब्बे मेरी आँखों के सामने से गुजर गए।

        मैं प्लेटफार्म पर ही खड़ी रह गई, किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में। तभी तेजी से जा रहे किसी व्यक्ति के टकरा जाने से मेरी तन्द्रा भंग हुई। थके- हारे कदमों से चलकर सामने के खाली बैंच पर जा बैठी। बैठी- बैठी यही सोच रही थी कि अब क्या किया जाए।

        सोचते- सोचते थक गई, लेकिन कोई उपाय नहीं सूझा। समय तेजी से आगे बढ़ रहा था। धीरे- धीरे आने- जाने वालों की संख्या घटती जा रही थी।

        थोड़ी ही देर में चारों ओर सन्नाटा छा गया। एक अनजाना- सा भय मुझे बेचैन किये जा रहा था। इक्का- दुक्का लोग दिख रहे थे। उन अपरिचितों से अपनी समस्या नहीं कह सकती थी, पता नहीं इनमें कौन कैसा है। कहीं किसी गलत आदमी से कह बैठी, तो बजाय घटने के मेरी परेशानियाँ और बढ़ जाएँगी।

        इसी उधेड़- बुन में डूबी थी कि इतने में एक वृद्ध सज्जन आए। उन्होंने मुझसे पूछा- बेटी कहाँ जाना है? मैंने कहा- टाटानगर जाना है। उन्होंने बताया टाटानगर की गाड़ी तो अब कल रात में आएगी। फिर थोड़ा रुककर अपनेपन से कहने लगे, सारी रात अकेले प्लेटफार्म पर गुजारना तो तुम्हारे लिए ठीक नहीं हैं।  इस समय कहीं जाना चाहती हो, तो बताओ?

        मैं सोचने लगी, एक तो ये भी अकेले हैं, ऊपर से बूढ़े -- इनसे क्या कहूँ। फिर मन में आया कि कहीं पू. गुरुदेव ने मुझे मुसीबत में देख इन्हें मेरी सहायता के लिए प्रेरित किया हो। मैंने कहा- शांतिकुंज जाती, पर मेरे पास पैसे नहीं हैं।

        वे बोले, चलो मैं तुम्हें शान्तिकुञ्ज पहुँचा देता हूँ। मैंने पूछा- आप कौन हैं? तो उन्होंने बताया मैं बलिया का हूँ। मैं फिर डरी- अकेले आदमी हैं, पता नहीं कैसे हों। वे मेरे हाव- भाव से मेरे मन की बात समझ गए, बोले- डरो नहीं बेटी, मेरे साथ मेरी पत्नी और बच्चे भी हैं। उन्होंने अँधेरे में एक ओर हाथ उठाकर दिखाया, थोड़ी दूर पर दो- तीन औरतें और कुछ बच्चे खड़े थे। वृद्ध ने एक टेम्पो बुलाया। हम सभी उसमें जा बैठे।

        उन्होंने कहा- अच्छा ही हुआ कि तुम छूट गईं, नहीं तो उस ट्रेन से जाकर रास्ते भर बेकार परेशान होती। उनकी बातों का अर्थ मेरी समझ में नहीं आया। २० मिनट के बाद गाड़ी शांतिकुंज के गेट पर पहुँची। तब तक काफी रात हो चुकी थी। सुरक्षा कर्मी ने गेट खोलने से मना कर दिया।

        दो- तीन बार अनुरोध करने के बाद भी जब प्रहरी ने गेट नहीं खोला, तो वृद्ध ने ऊँची आवाज में डाँटकर कहा- मैं बाहर खड़ा हूँ और तुम कहते हो, गेट नहीं खुलेगा। बूढ़े बाबा की आवाज में ऐसा कुछ था कि सुरक्षाकर्मी ने तुरंत गेट खोल दिया। मैं तेजी से अंदर आ गई। आगे दाहिनी तरफ कुर्सी पर बैठे सुरक्षा अधिकारी ने मुझसे पूछा- कहाँ से आईं हैं? मैंने अपनी परिस्थिति और समस्या संक्षेप में बताई। जब मैंने बताया कि ये बाबा मुझे यहाँ ले आए, तो पूछने लगे- कौन बाबा?

        मैंने पीछे मुड़कर देखा, तो वहाँ न तो वे वृद्ध पुरुष थे, न ही उनकी पत्नी और न उनके बच्चे। टेम्पो तक का पता नहीं था। सब कुछ खड़े- खड़े ही गायब हो चुका था। मैं हतप्रभ होकर सुरक्षाकर्मी की ओर पलटी। बहुत कोशिश करने पर भी मेरे मुँह से बोल नहीं फूट पा रहे थे।

        सुरक्षा कर्मियों ने मेरी स्थिति को संदिग्ध समझकर पहले तो अन्दर जाने देने से साफ मना कर दिया, पर उनमें से एक ने मेरी दशा देखकर कुछ सोचते हुए कहा- आप यहाँ शांतिकुंज में किसी को जानती हैं? मुझे भास्कर भाई साहब याद आए। उत्साहित होकर मैंने उनका नाम लिया। उन लोगों ने तुरन्त उन्हें फोन पर सारी बातें बताईं।

        कुछ ही देर में मेन गेट पर उन्होंने एक महिला को भेजा, जो टाटानगर की थीं। वो मुझे अच्छी तरह से पहचानती थीं। उन्होंने सुरक्षाकर्मियों को सन्तुष्ट किया और मुझे अपने साथ ले गई। रात काफी हो चुकी थी, इसलिए अधिक कुछ बातचीत नहीं हुई। हम सभी सो गए।

        अगले दिन रसोई में गई, तो वह कोई विशेष दिन था इसलिए कई प्रकार के विशेष व्यंजन बन रहे थे। मैं भी उसमें शामिल हो गई। श्रद्धेया जीजी ने मेरी आपबीती सुनीं तो बोलीं तुम्हें एक दिन और यहाँ प्रसाद पाना था, इसीलिए नहीं जा सकी।

        टिकट के पैसे की व्यवस्था में एक दिन और रुकना पड़ा। तीसरे दिन भास्कर भाईसाहब से पैसे लेकर मैं टाटानगर के लिए रवाना हुई। टाटानगर पहुँची, तो मालूम हुआ कि तीन दिन पहले की चली वह गाड़ी, जो मुझसे छूट गई थी, अभी दो घंटे पहले पहुँची है। उस ट्रेन से आने वाली बहिनों से पता चला कि रेल की पटरियों में पैदा की गई गड़बड़ी के कारण वह गाड़ी दो दिन तक रास्ते में ही खड़ी रही। अब तक मैं इस बात को अच्छी तरह से समझ चुकी थी कि ट्रेन छूट जाने के बाद मेरी असहाय अवस्था में बूढ़े के रूप में मेरी मदद करने वाले स्वयं परम पूज्य गुरुदेव ही थे।

        वे पहले से ही जानते थे कि जो ट्रेन मुझसे छूट गई, वह रास्ते में धक्के खाती हुई दो दिनों बाद पहुँचेगी। तभी तो वे मुझे दिलासा देकर कह रहे थे कि ट्रेन का छूट जाना मेरे भले के लिए हुआ है। सचमुच अगर मैं इस ट्रेन से जाती तो मुझे भी टोली के दूसरे लोगों की तरह ही दो दिनों तक की यात्रा के दौरान विभिन्न प्रकार की असुविधाओं का सामना करना पड़ता। यह मेरा सौभाग्य ही था कि शांतिकुंज वापस जाकर मैंने स्वादिष्ट पकवान भी खाए और टोली के सभी परिजनों के पीछे- पीछे ही वापस टाटानगर पहुँच भी गई।

प्रस्तुतिः आशा शर्मा
आदर्शनगर (झारखण्ड)   
     
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