आओ हम मोसमो को सहज कर देखें

Akhand Jyoti May 2013

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मौसम की रंगत अनूठी एवं अनोखी है। इसकी अठखेलियाँ सदियों से हमारी जिंदगी के गहरे मर्म को स्पर्श करती रही हैं, हमारे संवेदनशील तारों को झंकृत करती रही हैं, जिसमें समाहित होकर सारी सृष्टि हर्षोल्लास का नवीन सृजन करती रही है। सरदी, गरमी, बरसात और वसंत की बयार तन- मन के सुकोमल तंतुओं को झंकृत कर उमंग, उत्साह, ताजगी एवं स्फूर्ति का अदभूत संचार करती रही है। यही वजह है कि हर ऋतु के आहट के पूर्व ही इसकी खुशबू सर्वत्र बिखर जाती है और उसमें तन, मन भीगने लगता है।

प्रकृति की हर धड़कन में, इसकी हर धड़कन के एहसास में सृष्टि के रचयिता के शृंगारित मन का बेहद खूबसूरत एवं सुकोमल स्पर्श होता है। इस स्पर्श को और भी प्यारा बनाता है मौसम। इसलिए तो इसकी रंगत में हम सब झूमने लगते हैं। जाड़े में ठिठुरना, बारिश में भीगना, गरमी में हरे- भरे घने पेड़ों की शीतल छाँह और वसंत की अनिर्वचनीय उमंग इसके एहसास को ताजा करते हैं। इन सब में मौसम के अनूठे रंगत की झलक झलकती है, एक नई यादों की बातें बयाँ करती है। सच मानें तो प्रकृति की नब्ज में एक अपूर्व एवं अदभूत ज्ञान की पाठशाला समायी हुई है। आवश्यकता तो इसकी है कि हम हमारे चारों ओर इस नैसर्गिक सौंदर्य का बोध तो करें।

हम प्रकृति से दूर भागते चले जा रहे हैं और प्रकृति है कि हमें अपनी ममतामयी गोद में सिमटाए हुई है, पर हम उसमें सिमटकर इसके एहसास को पाना नहीं चाहते, वरना आँखें खुलते ही पहाड़ की छाती चीरकर निर्झर झरने की शीतल फुहारों में तन की थकान एवं मन की उलझन, दोनों को भगा सकते थे। एक कवि की खूबसूरत कल्पनाओं में प्रकृति का सौंदर्य एवं दर्शन, दोनों समाहित हैं। वह कहता नहीं गाता है; क्योंकि मन भाव जब भीग जाते हैं तो उस एहसास में हम थिरकने लगते हैं, नाचने लगते हैं, बोलते कुछ नहीं, मदमस्त हो जाते हैं। कवि के भाव में ‘मैं’ का मर्म कहता है—‘‘मेरे घर के पीछे पहाड़ी झरना पहाड़ फोडक़र बहता है, नदी के रूप में अठखेलियाँ करते, किलकारी करते, आगे बढ़ता है, धरती एवं जीवों को जो तृप्त करता है और सागर में मिलकर विलीन हो जाता है। मिलन का परिणाम तो विसर्जन एवं तदाकार होता है, दो का एक में मिलकर खो जाना है। समंदर का पानी सूरज तक पहुँचता है और फिर हमें परिणामस्वरूप बारिश के रूप में उपहार देता है। बारिश से जीव, जंतु सरोवर में जाते हैं, खेत लहलहा उठते हैं और चक्र अहर्निश चलता रहता है।’’

अपने देश भारत में प्रकृति की असीम अनुकंपा रही है, विशेष वरदान रहा है। प्रकृति ने इस देश को मुक्त- हस्त से अपना वरदान सौंपा है। इसलिए समस्त विश्व में केवल अपने देश में ही वे ऋतुएँ पूरे सौंदर्य के साथ पदार्पण करती हैं। इन ऋतुओं के आगमन से हमारा तन, मन झूमने लगता है और सर्वत्र आनंद बहने लगता है। सारे त्योहार एवं पर्व प्रकृति के साथ एकाकार होकर झूमने लगते हैं। इसलिए अपने यहाँ पर्व एवं त्योहार प्रतीक के रूप में जाने जाते हैं, जिनका प्रकृति से गहरा तादात्म्य होता है।

खेतों में जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगें, आम की मंजरियों की मदमस्त गंध छाने लगे, हर तरफ रंग- बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगें तो ऋतुराज वसंत के आगमन का एहसास होने लगता है। इसी के आगोश में प्रकृति के सभी जीव- जंतु नई उमंग से उमंगित होते हैं और इसी मौसम में वसंत पर्व एवं होली का त्योहार मनाया जाता है। आषाढ़ के साथ बारिश की पहली- पहली बूँदें जमीन पर गिरने लगती हैं तो जमीन एवं जीवन में प्राणों का नवीन संचार होने लगता है। सारी प्रकृति सृष्टि के इस अनोखे रंग- रूप में अभिभूत एवं सम्मोहित हो जाती है। इस मौसम में हरियाली का पर्व उमंग- उत्साह के संग मनाया जाता है। जीवन एवं प्रकृति का अदभूत  संगम है  यह।

इसके बाद ठिठुरती शीत दस्तक देती है। पेड़, पौधे, जीव सभी इस कँपकँपाती ठंढ का आनंद उठाते हैं। ठंढ के बाद प्रकृति अपने जीर्ण- शीर्ण वस्त्रों का त्यागकर नए कलेवर  को ओढऩे लगती है। यही तो है पतझड़, जिसके पश्चात उमंग एवं उत्साह का नया संदेश लेकर कोयल की कूक के साथ वसंत फिर से पदार्पण करता है। हमारे यहाँ परत्योहारों के साथ ऋतुओं का अनोखा सुमेल है, परंतु मानवीय स्वार्थपरता एवं अहंकार ने प्रकृति एवं संवेदनशीलता के बीच सुकोमल संबंधों में गहरी दरार पैदा कर दी है और यह दरार है कि बढ़ती ही जा रही है। इसलिए तो अब मौसम रूठा- रूठा सा रहने लगा है। मौसम का मिजाज बदल गया है।

इनसान ने अपनी बौद्धिकता के दंभ से स्वार्थ को सर्वोपरि ठहराया और इस रंग के कारण उसने मौसम को, प्रकृति को अपने इशारों पर नचाना चाहा। प्रकृति को भला कौन वश में कर सकता है? इनसान प्रकृति को वश में तो नहीं कर सका, परंतु इस सर्वनाशी प्रयास के कारण प्रकृति को, मौसम को अपार नुकसान जरूर पहुँचा चुका है।
कबीरदास का एक दोहा है—

धीरे- धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।

परंतु इस दोहे के उलट अब तो मौसम का बारहमासी चरित्र परिवर्तित हो गया है। मौसम चक्र के तंतु लीन हो जाने से कहीं- कहीं मार्च- अप्रैल में फूलने वाली गुलमोहर  की साख दिसंबर में ही सुर्ख फूलों से लदने लगी है। आम की मंजरी समय से पूर्व आने लगी है। दीपावली पर पकने वाले सीताफल की झाडिय़ों में सावन के फल उगने लगे हैं। एक समय था, जब मौसमी फल व सब्जियाँ उसी मौसम में ग्रहण की जाती थीं, परंतु वे तो अब बारहमासी हो गई हैं। क्या समय से पूर्व इन परिवर्तनों से पर्यावरण में असंतुलन का भयावह खतरा तो नहीं मँडरा रहा है, जिसका परिणाम केवल भीषण विनाश के रूप में प्रस्तुत हो? जो भी हो, पर इस प्रकृति में होने वाले ये परिवर्तन के संकेत शुभ एवं मंगलमय नहीं हैं। ये भविष्य की किसी विराट एवं अवांछित अनहोनी की ओर इशारा कर रहे हैं।

कहीं ऐसा न हो कि ज्येष्ठ की धूप और पौष की कँपकँपाती रात की स्मृतियाँ, कहानियों एवं अनुभवों में ही जीवित रह जाएँ। मौसम के सौंदर्य एवं माधुुर्य कल्पना की बातें न बनकर रह जाएँ। यह इनसान की करतूत का परिणाम है, जिसने मौसम के मिजाज को बदल डाला है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है कि मौसम का मिजाज क्या बदला, मानो सब कुछ बदल गया —

मौसम की साँय- साँय में सन्नाटा- सन्नाटा है
बारिश ने पायल तो पहनी, पर कहीं झंकार नहीं।
फूलों ने शृंगार तो सजाया, पर कहीं खुशबू नहीं।
फिजाओं में कोयल की कूक तो है,
पर कहीं मिलन की हूक नहीं।

अत: हमारे लिए आज यही जरूरी है कि हम प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करें और इन मौसमों को सहेज कर रखें।

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