आत्मविश्वास ही सफलता की जननी है

Akhand Jyoti May 2013

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जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिए आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। आत्मविश्वास सफलता की जननी है। किसी भी प्रकार की सफलता आत्मविश्वास के अभाव में प्राप्त नहीं की जा सकती। स्वामी रामतीर्थ कहते थे—‘‘धरती को हिलाने के लिए धरती के बाहर खड़े होने की आवश्यकता नहीं है; आवश्यकता है—आत्मा की शक्ति को जानने- जगाने की।’’ इस उक्ति में आत्मा की शक्ति की उस महत्ता का प्रतिपादन किया गया है, जिसका दूसरा नाम आत्मविश्वास है। जिसको अपने जीवन में जाग्रत करके कोई भी व्यक्ति स्वयं में एवं समाज में आशातीत परिवर्तन कर सकता है।

आत्मिक, भावनात्मक, बौद्धिक रूप से सक्षम होना, अपनी संभावनाओं एवं क्षमताओं की सही योग्यता पर विश्वास आत्मविश्वास है। यह इस प्रकार का विश्वास होता है कि यदि कोई कार्य विश्व का एक इनसान कर सकता है तो वह कार्य मैं भी कर सकता हूँ, पर आत्मविश्वास का अर्थ अहंकार नहीं है। अहंकारी व्यक्ति को अपने शरीर व मन की क्षमताओं पर अनर्गल भरोसा होता है। सफलता उसे गर्वाेन्मत्त बना देती है और असफलता उसे निराशा के गर्त में धकेल देती है। ऐसा व्यक्ति सफलता पाकर दूसरों को तुच्छ, निकृष्ट समझने लगता है; जबकि आत्मविश्वासी व्यक्ति सफलता को ईश्वरीय अनुदान मानता है।

आत्मविश्वासी व्यक्ति को इस सत्य पर गहरी आस्था एवं विश्वास होता है कि मैं परमात्मा का अंश हूँ, जो शक्तियाँ परमात्मा में हैं, वही मुझमें भी बीज रूप में विद्यमान हैं और इतना ही नहीं बीज रूप में निहित इन शक्तियों में अंकुरित होने की क्षमता भी है। प्रयत्न करने से कुछ भी किया जा सकता है, लेकिन प्रायः अधिकांश व्यक्ति अपने प्रति ही अविश्वास से भरे होते हैं एवं इन क्षमताओं व संभावनाओं के बीजों को अंकुरित व विकसित करने का प्रयास तो दूर रहा इस संबंध में कोई विचार तक नहीं करते। वस्तुतः मनुष्य अपने संबंध में जैसी धारणा बनाता है, वह वैसा ही बनता चला जाता है। जो

स्वयं को तुच्छ व अनावश्यक समझते हैं, वे शक्तिहीन ही बने रहते हैं, इस संसार सागर में तिनके की भाँति इधर- उधर थपेड़े खाते रहते हैं। जिन्हें अपनी महानता का बोध नहीं, उन्हें जीवन के समरांगण में हारना पड़े तो इसमें आश्चर्य भी कैसा? जो स्वयं का मोल नहीं समझते, उन्हें दूसरे कैसे महत्त्वपूर्ण समझ सकते हैं? इसके विपरीत जो स्वयं को शक्तिसंपन्न मानते हैं, वह वैसे ही बन जाते हैं।

आत्मविश्वासी व्यक्ति को यह भरोसा होता है कि वह कठिन से कठिन कार्य को करने में सक्षम है। कोई भी बाधा या विपत्ति उसे न डरा पाती है और न डिगा पाती है। वह भाग्य को अपने पुरुषार्थ का दास समझता है तथा उसे अपने इच्छानुवर्ती बना लेता है।

आत्मविश्वासी व्यक्ति कठिनाइयों, बाधाओं को विपत्ति नहीं मानता, वरन यह सोचता है कि ये तो प्रभु का भेजा हुआ एक ऐसा माध्यम है, जिससे मेरी आत्मशक्ति जाग्रत व विकसित हो सकेगी। वह कठिन परिस्थितियों को चुनौती मानकर स्वीकार करता है। कठिनाइयों में, प्रतिकूल परिस्थितियों में उसके साहस में कई गुना वृद्धि हो जाती है। वह इन अवरोधों व कठिनाइयों को चीरता हुआ, राह के रोड़ों को धकेलता हुआ अपना मार्ग स्वयं निकाल लेता है। प्रकृति अपने नियमों का व्यतिरेक करके ऐसे व्यक्ति का साथ देती है तथा सफलता उसके आगे- आगे चलती है, उसके कदम चूमती है।

इसके विपरीत योग्यता एवं अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर भी आत्मविश्वास के अभाव में व्यक्ति तुच्छता व हीनता अनुभव करता है और जीवन में कोई विशेष सफलता अर्जित नहीं कर पाता तथा जिस किसी तरह जीवन व्यतीत करता है।

वस्तुतः सफलता काफी हद तक व्यक्ति के अपने आत्मविश्वास और उस आधार पर संचित किए गए आत्मबल पर ही निर्भर करती है। यदि अपने भीतर, अपनी शक्तियों के प्रति विश्वास कूट- कूटकर भरा हो तो कदाचित् ही किसी को असफलता का सामना करना पड़े। असफलता का सामना तभी करना पड़ता है, जब सामर्थ्य और साधनों का विचार न करते हुए ऐसे कदम उठा लिए जाते है जो विचारशीलता और विवेक की दृष्टि से उपयुक्त नहीं कहे जा सकते। जैसे कोई व्यक्ति यह सोच ले कि जिस प्रकार हनुमान जी ने समुद्र लाँघा था, उसी प्रकार मैं भी लाँघ सकता हूँ। इस प्रकार के लक्ष्य शेखचिल्ली की कल्पनाओं के समान होते हैं, जिनमें केवल असफलता ही मिलती है। उचित यह होता है कि अपनी सामर्थ्य के आधार पर अपनी आंतरिक शक्तियों व संभावनाओं पर विश्वास करते हुए आरंभ में छोटे- छोटे लक्ष्य बनाए जाएँ, उनमें पूर्ण मनोयोग व श्रम के साथ समर्पण भाव से जुट जाया जाए, ऐसी स्थिति में सफलता अवश्यंभावी होती है और ऐसी सफलताओं से व्यक्ति के आत्मविश्वास में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है।

इसके साथ ही जीवन में थोड़ी- बहुत गलतियाँ व असफलताएँ होना भी स्वाभाविक ही है और इन्हें बार- बार स्मरण करने से आत्मविश्वास घटता है। इन भूलों की उपयोगिता यही है कि उनसे अनुभव प्राप्त कर भविष्य में इन्हें न दोहराया जाए और जो कमी, कमजोरी, दुर्बलता है, उसे दूर कर लिया जाए।

आत्मविश्वास की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा संशय है। कहा गया है—‘संशयात्मा विनश्यतिः’ अर्थात संशय करने वाला व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता; क्योंकि इस स्थिति में उसका आत्मविश्वास घट जाता है। मद्र नरेश शल्य का दुर्याधन ने बहुत सम्मान- सत्कार किया तो शल्य सगे भांजे युधिष्ठिर के बजाय दुर्याेधन के पक्ष में हो गए, लेकिन शल्य ने युधिष्ठिर से एक वरदान माँगने को कहा। तब युधिष्ठिर बोले कि जब आप कर्ण के साथ हों तो कर्ण का मनोबल तोड़ते रहिएगा। जब अर्जुन व कर्ण के मध्य युद्ध हुआ तो शल्य कर्ण के सारथी बने और उसका मनोबल तोड़ते रहे। अंततः कर्ण हार गए। इसके विपरीत यदि कोई बिखरी हुई शक्तियों को एकत्र कर दे तो व्यक्ति सफल हो जाता है। समुद्र लाँघकर लंका जाने के समय सभी वानरों ने समुद्र पार करने की अपनी- अपनी योग्यता बताई, परंतु योग्यता आवश्यकता से कम रही। तब जांबवान जी ने हनुमान जी में आत्मविश्वास जगाया और वह सफल हुए। संशय के अतिरिक्त पर- निर्भरता, कायरता, पलायनवादिता, चिंता करने की प्रवृति, निराशावादिता, तर्कशीलता की अति आदि भी व्यक्ति में आत्मविश्वास की प्राप्ति में बाधक होते हैं। इनको दूर करने का प्रयास करना चाहिए, ताकि आत्मविश्वास जाग्रत हो सके।

संसार की महत्त्वपूर्ण सफलताओं का इतिहास आत्मविश्वास की गौरव- गाथा से भरा पड़ा है। उत्कर्ष व्यक्ति का करना हो, समाज का अथवा राष्ट्र का, सर्वप्रथम आवश्यकता है—अपने अंदर सोये हुए आत्मविश्वास को जाग्रत एवं विकसित करने की। यदि यह कर लिया गया तो सफलताएँ बरसती चली जाती हैं।

एक आदमी जंगल से गुजर रहा था। रास्ते में एक पानी का झरना मिला। उस झरने पर एक यक्ष का वास था, उसने उस आदमी को पकड़ लिया और बोला—‘‘वो उसे तभी छोड़ेगा, जब वह व्यक्ति उसके प्रश्नों का सही उत्तर दे दे।’’ आदमी ने हामी भरी। यक्ष ने प्रश्न पूछा—‘‘इस सृष्टि में सबसे सौभाग्यशाली और दुर्भाग्यशाली प्राणी कौन है?’’ उस व्यक्ति ने उत्तर दिया—‘‘निश्चित रूप से वह प्राणी इनसान ही है। वह चाहे तो अपनी प्रवृत्तियाँ सुधार कर, व्यक्तित्व का परिष्कार कर ऊँचाइयों तक पहुँच सकता है, पर तब भी वह एक घटिया, पशुवत् जीवन व्यतीत करना पसंद करता है।’’ यक्ष ने संतुष्ट होकर उस व्यक्ति को छोड़ दिया।


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