संवेदनाएँ जागेंगी तो समाज भी बदलेगा

Akhand Jyoti May 2013

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मानव जीवन का समस्त क्रियाक्षेत्र बहिरंग में बुद्धि पर आधारित रहा है। शरीर बल और भौतिक वैभव के बाद तीसरी महत्त्वपूर्ण आवश्यकता बौद्धिक कुशलता मानी गई है। वस्तुत: बीसवीं सदी बुद्धि के चरम उत्कर्ष की रही है। समस्त आविष्कार इन्हीं वर्षों में हुए हैं। ये आविष्कार बौद्धिक विकास की पराकाष्ठा के परिचायक हैं, परंतु इन तीनों विभूतियों के होते हुए भी एक रिक्तता दृष्टिगत होती है। वर्तमान विकास मेें चारों ओर तर्क-वितर्कों का जाल, धूर्तता, मनोरोग, कलह-क्लेश ही दिखाई पड़ते हैं। इसका कारण यह है कि जिंदगी की सभी उलझनों को बौद्धिक क्षमता (आई० क्यू०) के द्वारा ही सुलझाने का प्रयत्न किया गया है। बौद्धिक प्रखरता का जीवन की सफलता में केवल २० प्रतिशत योगदान है। शेष ८० प्रतिशत चतुर्थ विभूति भावनात्मक प्रतिभा अर्थात इमोशनल कोफिशिएण्ट (ई० क्यू०) से ही संभव है। आज व्यक्ति के जीवन में ई० क्यू० को ही सफलता का मानदंड माना जा रहा है।

वैज्ञानिकों ने अपने प्रयासों में पाया है कि जिंदगी को संचालित करने के दो केंद्र हैं, एक तो मस्तिष्क से उपजे विचार तथा दूसरी हृदय से निस्सृत भावना। विचार व भावना की संतुलित स्थिति ही ई० क्यू० है। व्यवहार मनोविज्ञान पर शोध करने वाले डेनियल गोलमैन ने इस विषय पर पहली बार ‘इमोशनल इंटेलीजेंस’ नामक पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने आई० क्यू० का प्राचीन परंपरा के रूप मेेें उल्लेख किया है। उनके अनुसार वर्तमान समाज एक संक्रमण काल से गुजर रहा है। ऐसी स्थिति में उसके आंतरिक भावों में जो परिवर्तन आ रहा है उसका अध्ययन मात्र बुद्धि द्वारा नहीं, बल्कि भाव- प्रवण सोच के आधार पर ही संभव है।

वैज्ञानिक प्रगति की चरम स्थिति में पहुँचे इस युग के वैज्ञानिक भी अब स्वीकारने लगे हैं कि विचार- बुद्धि की उड़ानमात्र ही पर्याप्त नहीं है। व्यक्ति में संवेदनशीलता का होना भी अत्यावश्यक है। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक राबर्ट फ्रॉस्ट का कथन है कि आज मनोरोग बड़ी तेजी से पनप रहे हैं; क्योंकि मनुष्य का केवल बौद्धिक विकास ही हो रहा है, भावनात्मक नहीं। परमपूज्य गुरुदेव का कहना था कि मनोरोग और कुछ नहीं दबी-कुचली गई भावनाएँ मात्र हैं। भाव- संवेदना का अभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व को खंडित बना देता है व एक दरद भरा और त्रासदी युक्त जीवन जीते हुए उन्हें देखा जा सकता है। भावनात्मक प्रतिभा, भाव-विकास ही इसका एकमात्र निदान है। अब ई० क्यू० को ही व्यक्ति के सर्वांगीण व समग्र विकास के लिए उत्तरदायी माना जा रहा है। विकसित ई० क्यू० ही मानवीय मूल्यों को पहचानने, दूसरों का दरद समझने, जीवन लक्ष्य को तदनुसार कटिबद्ध करने, आंतरिक शक्तियों को बढ़ाने एवं संपदा का सुनियोजन करने का कार्य करता है।

एवमैन एवं राबर्ट कूपर ने अपने बहुचर्चित शोध ‘एग्जीक्यूटिव ई० क्यू०’ में इस पर अपना गहन मंथन प्रस्तुत कर प्रबंधन विधा को नए आयाम प्रदान किए हैं। उनके अनुसार अकेला बौद्धिक चिंतन मानव जीवन को शुष्क व नीरस ही नहीं, विकृतियों से पूर्ण भी बना देता है। मनोवैज्ञानिक अब इस निष्कर्ष पर पहुँचने लगे हैं कि ई० क्यू० जीवन के विराट अनुभव, समझदारी एवं बहुमुखी व्यक्तित्व के समुच्चय की कुंजी है। यह बाह्य व आंतरिक जीवन को जोड़ने का कार्य भी करता है, जो आज की सर्वोपरि आवश्यकता है। संवेदना और विचारणा का यह समन्वय व्यक्तित्व के बहुआयामी पक्ष को उजागर करता है। इससे सामाजिक दायित्वों, नैतिक मूल्यों के प्रति प्रतिभाओं में जागरूकता भी आती है।

विक्टर बंधुओं द्वारा लिखित ‘बिल्ड योर ब्रेन पावर’ नामक पुस्तक में उल्लेख है कि मनुष्य अपने संपूर्ण जीवनकाल में मस्तिष्क के मात्र एक हजार भाग का ही उपयोग कर पाता है, शेष बुद्धि इसके दायरे से बाहर होती है। इसी बात की व्याख्या करते हुए आर० जे० स्टेनवर्ग ने भी अपनी कृति ‘इमोशनल इंटेलीजेंस’ में लिखा है कि यह दुनिया मात्र निष्क्रिय बुद्धि द्वारा नहीं देखी जा सकती। इस बुद्धि से जीवन के हर पहलू को नहीं परखा जा सकता। यह सब भावपूरित विचारधारा से ही

संभव हो सकता है। आज के बौद्धिक ऊहापोह में जकड़ी मानवता को बुद्धि की आवश्यकता तो है ही, परंतु यही सर्वमान्य मानदंड नहीं है। एकांगी विकास के कारण भले ही सफलता के एक पक्ष को प्राप्त कर लिया जाए, परंतु इसका परिणाम किसी से छिपा नहीं है। आधुनिक अर्थप्रधान युग में धन- वैभव होने के बावजूद शांति, सहानुभूति, संवेदना कहाँ है? समाज के बहुमुखी विकास में नीतिगत व्यवस्था कहाँ तक सफल हो सकी है? नित्य नए यंत्रों, तकनीकी आविष्कारों के बाद भी इतनी अराजकता, आतंक एवं कटुता का वातावरण किसने पैदा किया, इस प्रश्न के पीछे दृष्टि डालने पर बुद्धि का निरंकुश उपयोग ही दिखाई पड़ता है। इसीलिए दार्शनिक से लेकर समाजशास्त्री तक एवं अधिकारी से लेकर न्यूरोसांइटिस्ट तक, सभी विचारों के साथ- साथ भावपक्ष के समन्वय की बात करते हैं।

भाव- संवेदना का अभाव मनुष्य को क्रूर और बर्बर बना देता है। आज का अतिसभ्य समाज और संसार संभवत: पुराने युग की ओर अग्रसर होता प्रतीत हो रहा है। आयोवा कॉलेज ऑफ मेडिसिन यूनिवर्सिटी के न्यूरोलॉजी विभाग के अध्यक्ष आर० डोमसीसो के अनुसार वर्तमान मानव जाति के असामान्य एवं असभ्य व्यवहार का कारण है, संवेदनशून्यता। इन्होंने आगे स्पष्ट किया है कि मस्तिष्क के विचार केंद्र ‘रीजनिंग’ तथा इसके लिए जिम्मेदार तंत्र ‘डिसीजन मेकिंग’—संवेदना और भावना से जुड़े होते हैं। इनका पारस्परिक साम्य ही संतुलन का आधार है। इन दोनों के मध्य आए व्यतिक्रम के कारण ही सारी विसंगतियाँ उठ खड़ी हुई हैं।

इस समस्या का समाधान हार्वर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक राबर्ट रोसेंथाल ने सुझाया है कि विचारों और भावों के सुनियोजित संबंधों से बुद्धि की क्षमता और शक्ति में असाधारण रूप से वृद्धि हो जाती है। यही भावपूर्ण बौद्धिक ऊर्जा एक संतुलित व्यक्तित्व का निर्माण करती है।

इस तरह भाव अंतर्जगत को संचालित करता है, तो विचार बाह्यजगत को व्यवस्थित करता है। ई० क्यू० दोनों के मध्य साम्य एवं संतुलन बैठाता है। एम० स्काट फिट्जगेराल्ड के अनुसार, मानव मस्तिष्क में एक साथ दो तरह के विचार उठते हैं उन्हीं को इमोशन और आइडिया कहते हैं। यदि इन दोनों का तारतम्य रहे एवं व्यक्ति इन भावतरंगों का सूक्ष्म विश्लेषण करे जिसे मोटी बुद्धि नहीं जान सकती तो उसकी अंतर्दृष्टि विकसित होने लगती है, जो जीवन के समस्त आयामों को सफलतापूर्वक देख सकती है और उपयुक्त मार्गदर्शन कर सकती है। अमेरिका के क्रांतिकारी विचारक पित्रिम सोरोकिन ने तो यहाँ तक कहा है कि इमोशन एवं इंट्यूशन ही वह नींव हैं, जिन पर दर्शन और मनोविज्ञान का भवन खड़ा हो सका है। ग्लोबल एथिक्स इन्स्टीट्यूट के संस्थापक रूशमोर कीडर का कहना है कि अनियंत्रित बुद्धि के प्रयोगों ने ही बीसवीं सदी में हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन जैसे क्रूर निरंकुश नायक विश्व को दिए थे।

दुनिया के हर कोने, विश्व की हर जाति एवं संसार के हर देश के विचारशीलों का मत है कि वर्तमान जीवन उन तनावों से मुक्ति पाने के लिए आकुल है, जो उसकी अपनी बौद्धिक क्षमताओं के कारण पनपे हैं। इस तनाव को भावनात्मक प्रतिभा के माध्यम से ही समाप्त किया जा सकता है। मनुष्य में भावनात्मक जागरण ही उसे शांति, प्रेम एवं सहानुभूतिपूर्ण वातावरण दे सकता  है। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के प्रोफेसर डॉ० एल्विन पीसेंट जिंदगी के उलझे हुए इन धागों को सुलझाने का एकमात्र उपाय ई० क्यू० ही मानते हैं। इनके अनुसार अति बौद्धिकता की ज्वालाओं में झुलसे मानव के लिए भाव- प्रवणता शीतल जल के समान है। इसी में वैयक्तिक व पारिवारिक से लेकर विश्वव्यापी समस्याओं का समाधान निहित है।

भावनात्मक प्रतिभा के विकास के लिए कोलंबिया विश्वविद्यालय के वाल्टर माइकल प्रार्थना को कारगर उपाय मानते हैं। उनके अनुसार जब हम अपने अस्तित्व की गहराइयों में एकाग्र होकर उस परम दयालु परमात्मा से प्रार्थना करते हैं तो हमारा संबंध ब्रह्मांडव्यापी भावनाओं से हो जाता है। भावनाओं की पवित्र लहरें हमारे व्यक्तित्व में प्रवेश करने लगती हैं और हमारा अपना व्यक्तित्व किसी दिव्य व्यक्तित्व में रूपांतरित होने लगता है। इस रूपांतरण में हम न केवल योग्य बनते हैं, बल्कि समाज एवं विश्व के लिए उपयोगी व उपादेय भी। अतएव हमें अपनी भावनात्मक प्रतिभा को बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए। आज के समय में समस्याएँ अनेकों हो सकती हैं, पर उनके समाधान भावनात्मक गहराइयों से ही निकल कर आ सकते हैं और आएँगे भी, यही दार्शनिकों की सोच है और समय की माँग भी।



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