सेवा ही सच्चा धर्म

Akhand Jyoti May 2013

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 ‘‘बचाओ! बचाओ! कोई है, जो हमारे मित्र को कुएँ से निकाल सकता है, हमारा मित्र डूब रहा है, कोई उसे बचा लो! बचा लो!’’ बच्चों की इस आर्त और करुण चीत्कार ने फकीर बाबा के हृदय को मथनी के समान मथ दिया। वह अपने साथ बैठे रामलाल के कंधे को खींचकर उधर सरपट दौड़ने लगे। बावली के पास जाकर देखा तो दस- बारह वर्ष के पाँच- सात बच्चे चीख- चिल्ला रहे थे। वे फकीर बाबा को देखकर और भी चिल्लाने लगे। बच्चे बोले—‘‘फकीर बाबा! कुछ करो। हमारे मित्र को बचा लो! बचा लो बाबा! बचा लो!’’ फकीर ने झाँककर कुएँ में देखा। एक बच्चा कुएँ के अंदर डूब रहा था।

फकीर बाबा ने अपनी तसबीह और चादर को एक ओर फेंका तथा बावली की सीढ़ियाँ उतर कर झप्प से कुएँ के अंदर छलाँग लगा दी। बच्चा कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा था। उन्होंने साँस रोककर डुबकी लगाई और पानी के अंदर उसे खोजते रहे। फकीर की साँसें फूलने लगीं, पर बच्चा हाथ नहीं लगा। उनका कलेजा मुँह तक आ गया कि बच्चे को नहीं बचा पाए। वह मन ही मन काँप उठे। किसी की जान बचाने का एक अवसर आया और उसमें भी वह उसे बचा नहीं पाए। उनका हृदय छलक उठा और आर्तनाद करने लगा कि हे परवरदिगार! बच्चे को बचा, फिर चाहे इसके बदले मेरी जान ही क्यों न चली जाए। सोच की इस उधेड़बुन में फँसकर उन्होंने पानी से बाहर आकर गहरी साँस ली और फिर से डुबकी लगा दी।

तीसरी डुबकी में बच्चे का हाथ उनके हाथ में आया। उनकी जान में जान आई। फकीर बाबा बच्चे को उठाकर बावली की सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आए। बच्चा बेहोश था। वे प्राथमिक चिकित्सा में दक्ष थे। बच्चे का पेट फूल गया था; क्योंकि बहुत सारा पानी उसके पेट में चला गया था। उन्होंने बच्चे को लिटा कर उसके पेट का पानी निकाला और बच्चे को अपने मुँह से साँस दी। करीब दस- बीस मिनट बाद बच्चे को होश आया। उसने आँखें खोलीं। उसे होश में आया देख उसका मित्रमंडल खुशियों से झूम उठा। फकीर ने अल्लाह को शुक्रिया देते हुए कहा—‘‘या अल्लाह! तुने मुझ पर बड़ी रहम की। मुझ जैसे पापी एवं गुनहगार को एक बेगुनाह मासूम बच्चे की जान बचाकर अपने गुनाहों का भीषण बोझ हलका कर लेने दिया।’’

फकीर के साथ रामलाल भी अत्यंत हर्षित था कि एक बच्चे की जान बच गई, लेकिन यह खुशी एवं प्रसन्नता बाबा के चेहरे से अमृत बनकर टपक रही थी। संभवत: आज के समान वे इतना प्रसन्न कभी नहीं थे। उन्हें लग रहा था अल्लाह ने उन पर बड़ी रहम की है। बच्चे को जब होश आया तो उसके सारे मित्र एक साथ, एक साँस में, एक स्वर से पूछने लगे—‘‘किशनदेव! कैसे हो?’’ कुएँ में डूबते बच्चे का नाम किशनदेव था। किशनदेव ने कहा—‘‘अब मैं ठीक हूँ।’’ वह धीरे- धीरे बोल रहा था। मौत के भय से एवं डूबने से उसका चेहरा पीला पड़ गया था और शरीर में कंपन हो रहा था, परंतु सबको अपने साथ पाकर वह सँभलने लगा।

किशनदेव के नाम से फकीर चौंक उठे। उन्हें आश्चर्यमिश्रित खुशी हो रही थी। उन्होंने बच्चे को प्यार से अपनी गोद में उठा लिया और चूमने लगे। उनके मातृवत् स्नेह से सभी अभिभूत थे। इतने में कुछ बच्चे उसकी माता एवं मामा को बुला लाए थे। वह अपने मामा के घर में रहता था। किशनदेव की माता एवं मामा फकीर के चरणों में गिर पड़े और प्रणाम करने लगे। बेसहारा माँ के एकमात्र सहारे को पुनर्जीवन जो मिला था और वह भी फकीर बाबा के हाथों। किशनदेव अपनी माता और मामा के साथ घर चला गया। फकीर और रामलाल उस खंडहर के पास लौट आए, जहाँ से किशनदेव को बचाने के लिए दौड़ पड़े थे।

पंजाब के दलविंडा ग्राम के बाहर एक खंडहरनुमा प्राचीन बावली में वह मुसलमान फकीर महीनों से ठहरे हुए थे, जाने किसी के इंतजार में। बावली के ऊपर की पक्की छत टूट- फूट गई थी। एक ओर ईंटों का एक चूल्हा था। ईंटें काली पड़ गईं थीं, लगता था बरसों बीत गए, पर किसी ने उसका उपयोग नहीं किया। उसी खंडहर में एक ओर सिर झुकाए गमगीन होकर वह बैठे रहते थे। आज वह गमगीन नहीं, बल्कि खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। लग रहा था उनके दिल पर रखा एक भारी पत्थर किसी ने हटा दिया था। चेहरे की मायूसी के स्थान पर संतोष की चादर चढ़ आई थी। फकीर की उम्र यही कोई ३२- ३३ साल रही होगी, परंतु उनका सारा दर्द एवं बोझ हलका पड़ गया था। इस सबसे रामलाल हैरान एवं हतप्रभ था। वह कहने लगा—‘‘बाबा! ऐसा नहीं लग रहा, जैसे आपने बच्चे को संयोगवश डूबने से बचा लिया है। कोई तो ऐसा राज एवं रहस्य है, जिसे आप अपने दिल में छिपाए अंदर ही अंदर बिलख रहे थे।’’

इतने में किशनदेव की माता फकीर एवं रामलाल के लिए भोजन लेकर आईं। वह आग्रह कर रहीं थीं कि स्वयं अपने हाथों से उन्हें घर ले जाकर भोजन कराएँ। फकीर ने कहा—‘‘अम्मा! आप परेशान न हों, हम फकीरों का क्या? आप हमें भोजन दे दें, हम यहीं रामलाल के साथ उसे ग्रहण कर लेंगे।’’ माता भोजन देकर वापस लौट गईं। रामलाल फकीर बाबा को भोजन परोसने लगा। बाबा और रामलाल भोजन ग्रहण कर रहे थे। फकीर की आँखें खुशी के मारे चमक रहीं थीं, उनकी निगाहें आसमाँ के उन श्वेत बादलों की टुकड़ियों पर टिक गईं थीं, जो झुंड के झुंड उमड़- घुमड़ रहीं थीं।

फकीर बाबा ने कहा—‘‘रामलाल! जानना चाहते हो, इसका राज रहस्य क्या है?’’ रामलाल कुछ कहें, उसके पहले बाबा की आँखों के सामने अतीत के पृष्ठ खुलते चले गए। पृष्ठों में अंकित शब्द चमकने लगे। गुजरे दिनों की इबारत आँखें पढ़ती गईं और जबान बोलती चली गई। फकीर ने कहा—‘‘मेरी कहानी मेरे जन्म से बहुत पहले शुरू हो गई थी, जब हिंदुस्तान के दो टुकड़े हुए थे। इन दो टुकड़ों ने दिलों के टुकड़े कर दिए और नफरत एवं घृणा ने हमें सराबोर कर दिया। मेरा जन्म सन् १९५८ में हुआ था। मेरे अब्बा हुजूर फौजी थे। हम बन्नू में रहते थे। मेरी अम्मीजान हिंदुस्तानी थीं, पर वे वहाँ की कोई बात नहीं करती थीं। कोई बात पूछने पर वह चुप्पी साध लेती थीं, पर अब्बू की जबान से दो- चार गालियाँ अवश्य निकल जाती थीं। अम्मी हमें गुड़ का टुकड़ा देकर बहला- फुसलाकर इन चीजों से दूर ही रखती थीं।’’

फकीर अपने अतीत में खोकर कह रहे थे—‘‘मेरे अब्बू पाकिस्तान की नार्दर्न लाइट इन्फैक्ट्री में नायब सूबेदार थे। १९ साल की उम्र में मैं भी उस टुकड़ी में भरती हो गया। बदकिस्मती से कश्मीर की सरहद पर एक झड़प में मेरे अब्बू की मौत हो गई। घर में हम तीन ही इनसान थे—मैं, अब्बू और अम्मी। अब्बू को खोकर जैसे मेरा सहारा टूट गया, सब कुछ लुट गया। मेरे अंदर हिंसा, नफरत एवं घृणा की आग धधकने लगी। मैं अत्यंत हिंसक हो उठा कि हिंदुस्तानियों को मारना है।

‘‘मेरी हिंदुस्तानियों के प्रति नफरत की भावना को देखते हुए मुझे मेरे कमांडर ने कारगिल की चोटियों पर तैनात कर दिया। बड़ा ही जोखिम भरा कार्य था वह। मेरे जोश और जज्बे से मेरा कमांडर बड़ा प्रसन्न हुआ। कारगिल की चोटियों पर हमने बंकर बनाकर तोप रख दी थी, परंतु ऊपर वाले को कुछ और ही मंजूर था। हमारी खबर हिंदुस्तानी सिपाहियों को लग गई। उन्होंने सौरभ कालिया और उसके साथ आए चार सिपाहियों के एक गश्ती दल को हालात का पता लगाने भेजा। मैं ऐसे ही किसी मौके की तलाश में था। हमने सौरभ कालिया के साथ चार सिपाहियों को पकड़कर अमानवीय एवं बर्बरतापूर्वक ढंग से मारा। हमने उनके कानों को गरम सलाखों से फोड़ा, उनकी नाक काट दी, फिर उनको गोली मार- मारकर छलनी कर दिया। इसके बाद हमने उनकी लाशों को हिंदुस्तानी फौजों को सौंप दिया।’’

फकीर की आँखों में बसी क्रुरता अब पश्चात्ताप के आँसुओं के रूप में पिघल- पिघलकर बह रही थी। वह कह रहे थे—‘‘घर आकर मैंने इस घटना को अपनी अम्मीजान को बड़े फक्र से सुनाया। मैं एक सिपाही के पहचानपत्र को उठा लाया था, जिसे मैंने बड़े उत्साह के साथ अम्मी को दिखाया। अम्मी ने जब वो पहचानपत्र देखा तो उनके मुँह से एक चीख निकली और वे बेहोश हो गईं। यह चीख इतनी भीषण एवं दरदभरी थी, जिसे बयाँ करना मुश्किल है।’’ वह टूट गईं और अंतिम साँसों के साथ बोलीं—‘‘हुसैन! मेरा अंत निकट है। मेरी बात गौर से सुन। मैं हिंदुस्तान और पाकिस्तान की सरहद के जम्मू के मनसा गाँव में एक हिंदू घर में पैदा हुई थी। जब मैं १७ साल की हुई तो उस गाँव के रामदेव से मेरा विवाह हो गया और मेरा एक बेटा हुआ। उसका नाम सोमदेव था। चार साल बाद मुझे दूसरा गर्भ रह गया। एक शाम मैं अपने खेत में सब्जियाँ तोड़ रही थी कि सरहद पार से सिपाही आए और मुझे उठाकर ले गए तथा मेरा निकाह तेरे अब्बू से कर दिया। अगर तू गर्भ में न होता तो मैं उसी समय खुदकुशी कर लेती, पर तेरे आने के इंतजार में सारे कष्ट सहती चली गई। मैं तेरे लिए जिंदा रही। तुम्हारे अब्बू ने तुझे अपना बच्चा समझ लिया।’’

अम्मी की साँसें हलक में फँस जाती थीं। बड़ी मुश्किल से वह आगे बोलीं—‘‘तूने जिसकी हत्या की और पहचानपत्र लाया है, वह सोमदेव तेरा बड़ा भाई था। सोमदेव के वालिद रामदेव मेरे पति और तेरे वालिद हैं। बेटे! तूने बड़ा गुनाह किया है। अब इस गुनाह का प्रायश्चित कर और हिंदुस्तान जाकर उसके परिवार को खोजकर उनकी परवरिश करके अपना गुनाह हलका कर।’’ फकीर की आँखों में अश्रुधारा की बाढ़ आ गई थी, उसके कपड़े भीग रहे थे। वह सिसकते- सुबकते बोले—‘‘एक करुण कराह के साथ अम्मी की आँखें सदा के लिए मुँद गईं। इस सबको सुनकर मेरा दिल फट गया। मेरे अंदर अम्मी जाने से पूर्व इनसानियत जगा गईं थीं।’’

रामलाल ने कहा—‘‘बाबा! आगे क्या हुआ।’’ फकीर की आँखें भर आईं थीं और गला रुँध गया था। फकीर ने कहा—‘‘मैं एक हत्यारे से एक फकीर बन गया तथा हिंदुस्तान आकर सोमदेव का पता लगाने लगा। पता चला कि मेरे असली अब्बा ने शहीद सोमदेव की लाश से लिपटकर प्राण त्याग दिए थे। सोमदेव की पत्नी और किशनदेव अपनी ससुराल छोड़ पंजाब के दलविंडा, जो कि उनका मायका था, आकर रहने लगे। मैं पिछले दस साल से गाँव- गाँव घूमकर उनका पता लगाने की कोशिश करता रहा, पर कुछ पता न लग सका। आज अचानक एवं औचक ही किशनदेव के रूप में मुझे वह सब कुछ मिल गया, जिसकी मुझे तलाश थी। मैंने किशनदेव को नहीं, बल्कि स्वयं को मरने से बचाया है, अब शेष जीवन अल्लाह के बंदों की सेवा करके अपने गंभीर गुनाहों का प्रायश्चित करता रहूँगा।’’

फकीर बाबा बोले—‘‘रामलाल! तुम गृहस्थ हो। गृहस्थ धर्म का पालन करना। सुख- दु:ख सहते हुए सदाचरण का मार्ग कभी नहीं छोड़ना। सेवा ही जिंदगी का सच्चा धर्म है। इससे कभी वंचित नहीं रहना। मेरी जिंदगी तो बस, उस अल्लाह के हवाले है, वह जहाँ मुझे ले जाए, जैसे रखे, सब कुछ मंजूर है, उसका हर फैसला सिर आँखों पर।’’ इतना कहकर वे वहाँ से उठे और चल दिए। वे बोलते जा रहे थे—अल्लाह सबका भला करे, तुम्हारा भी भला करे। धीरे- धीरे उनका स्वर और वे स्वयं, दोनों ही रामलाल की आँखों से ओझल हो गए।

हातिम विदेश यात्रा पर निकले, तो अपनी पत्नी से पूछा—‘‘तुम्हारे लिए खाने का कितना सामान रख जाऊँ?’’ पत्नी बोली—‘‘उतना, जितनी मेरी उम्र हो।’’ हातिम बोले—‘‘मैं नहीं जानता कि तुम्हारी उम्र कितनी है, वो तो परवरदिगार ही जानता होगा।’’ पत्नी बोली—‘‘तो फिर मेरे खाने- पीने की फिक्र भी उसे ही करने दीजिए, जिसने दुनिया बनाई है, जो आपको देता है, वही मुझे देने का बंदोबस्त भी कर लेगा।’’ हातिम अपनी पत्नी कि निष्ठा पर मुग्ध होकर यात्रा पर निकल पड़े। सच्चे भक्त अपनी परेशानियों के लिए इनसान पर निर्भर नहीं होते।
    


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