जरूरी है विकास - पथ का पुनर्मूल्यांकन

Akhand Jyoti May 2013

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‘भूमंडलीकरण’ नाम के चमत्कारी शब्द के मायने व्यापारिक हैं या सामरिक अथवा फिर सांस्कृतिक? वैसे मायने जो भी हों, लेकिन आज, कल के शब्द को विकास के साथ जोड़ने की बड़ी जोरदार मुहिम छिड़ी हुई है। राजनेता हों या अर्थशास्त्री, सभी इस शब्द की जोरों से चर्चा कर रहे हैं। बात मनुष्य सभ्यता की शुरुआत से करें तो व्यापार और युद्ध अभियान, सभ्यताओं और देशों के बीच संपर्क सेतु का काम करते आए हैं। विश्वयात्राएँ, संस्कृति, शिक्षणयात्राएँ भी सशक्त माध्यम बनी हैं, जिनकी शुरुआत और विस्तार सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा वाले देश भारत ने की; क्योंकि स्वस्थ आचरण शिक्षरेण पृथिव्यां सर्व मानवा: (मनुसंहिता) को यहाँ के निवासियों ने अपना उद्देश्य बना लिया था। वसुधैव कुटुंबकम् को भूमंडलीकरण का आधार बना लेना भारत देश की ही अपनी मौलिक विशेषता थी और है।

भारत की इस विशेषता के अलावा दुनिया भर के अन्वेषण व अनुसंधान यही कहते हैं कि सभ्यता के विकास के साथ आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आदान- प्रदान और व्यापार विकसित हुआ। इसके विपरीत युद्धों व लड़ाइयों ने भी अपने नए- नए रूप प्रकट किए। परिणाम में दुनिया की शक्ल बदलती चली गई। आज भी दुनिया में जो खींच- तान है, उसके मूल में या तो व्यापार है अथवा युद्ध। इन दोनों की जड़ में धरती के समस्त संसाधन हैं। जहाँ तक सांस्कृतिक संवेदनशीलता की बात है तो इसके सही व मूल रूप को लोग अभी भी भूले हुए हैं। भारत में प्रारंभ हुई इस विधा का सही स्मरण अभी भारत देश भी सही ढंग से नहीं कर पा रहा।

इस बीच दुनिया न केवल पूरब और पश्चिम में बँटी, बल्कि उत्तर व दक्षिण में भी बँट गई। सभी दिशाएँ एकदूसरे के विपरीत जाने की कोशिश कर रही हैं; जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए था। पिछले ढाई- तीन हजार साल के इतिहास के पन्नों को पलटें तो पाएँगे कि ३२६ ई० पूर्व सिकंदर ने पूरब विजय के लिए नहीं, बल्कि विश्व विजय के लिए अभियान चलाया था। सही कहें तो यूनान के पश्चिम में ऐसा था ही क्या, जिसके लिए कोई अभियान रचा जाता। सारी दुनिया तो उस समय पूरब में ही खुलती थी, फैलती और बढ़ती थी। अपने इस अभियान में सिकंदर ने कितने ही राजवंशों को रौंदा, कितने ही साम्राज्यों का विनाश किया। ऐसा करते हुए वह भारत आ पहुँचा। यहीं उसका भारत की संस्कृति, बौद्धिक एवं भौतिक वैभव से वास्तविक साक्षात्कार हुआ। यहीं उसका पौरस के पराक्रम से सामना हुआ, जिसे बाद में उसने मित्र बना लिया।

हालाँकि पश्चिम का पूरब से यह पहला संपर्क नहीं था। तथ्यपरक अनुसंधान हमें बताते हैं कि सिंधु सभ्यता काल में भी भारत के मेसोपोटामिया एवं मिस्र से गहरे व्यापारिक व सांस्कृतिक संबंध थे। बाद में भले ही सिकंदर विजय की कामना से भारत आया, परंतु भारत ने सिकंदर व यूनान को ज्ञान- विज्ञान के अनेकों उपहार दिए। इसके बाद रोमन साम्राज्य का आविर्भाव व उत्थान हुआ। इतिहास बताता है कि रोमन साम्राज्य पहली सदी ईसा पूर्व से पाँचवीं सदी ईसा पूर्व तक पश्चिमी सभ्यता का केंद्र बना रहा। यही वह काल था, जब पश्चिम पर पूर्व का गहरा प्रभाव पड़ा। इसका असर न केवल अभी तक है, बल्कि समय के साथ इसमें मजबूती भी आई है। मध्य पूर्व यहूदी- ईसाई और बाद में इसलाम धर्म के अभ्युदय का केंद्र बना। यहूदी व ईसाई धर्म पूर्व की ओर उतना नहीं फैले, जितना कि पश्चिम की ओर। शुरुआत में तो रोमवासियों ने ईसाईयत का विरोध किया, लेकिन बाद में उसे स्वीकार कर लिया।

इसके बाद छठवीं शताब्दी में इसलाम जब उभरा तब रोमन साम्राज्य का पतन हो रहा था। इसके पश्चिमी भाग का तो पतन हो चुका था, लेकिन साम्राज्य का पूर्वी भाग फिर से खड़े हो जाने की कोशिश में था। बाइजैन्टाइन साम्राज्य के रूप में यह कोशिश उभरी, जिसकी राजधानी बनी कौन्सटैनटिनोपोल। शायद यही वजह थी कि इसलाम पश्चिम की ओर बढ़ने के बजाय पूरब की ओर बढ़ा। ईसाई व इसलामी सत्ताओं के बीच हुए लंबे धर्मयुद्ध का भी संभवत: यही कारण रहा। यूरोप पर पूर्वी रोमन साम्राज्य या बाइजैन्टाइन साम्राज्य का प्रभाव पंद्रहवीं शती तक रहा। इस समय तक इसलाम एशिया व अफ्रीका के बड़े हिस्से का प्रमुख धर्म बन चुका था।

इससे बहुत पहले—तकरीबन ढाई हजार साल पहले बौद्ध धर्म भारत में जन्मा और बाद में विश्व भर में इसका प्रसार हुआ। यह घटना ईसा के भी पाँच सौ साल पहले घटित हुई। हालाँकि इसका प्रसार- विस्तार भी पूर्वाभिमुख हुआ। पश्चिम की ओर अफगानिस्तान तक ही यह प्रसारित हुआ। एक जमाने में अफगानिस्तान बौद्ध धर्म का बड़ा केंद्र था, बाद में यह इसलाम के प्रभाव में आया। बौद्ध धर्म चीन, वियतनाम, कंबोडिया और जापान तक फैला, लेकिन पश्चिम एशिया व यूरोप को अपने प्रभाव में नहीं ले पाया, फिर भी यह सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अमेरिका समेत समस्त यूरोप की जो धर्म में आस्था है, उसकी जड़ें कहीं न कहीं पूरब की जमीन में ही हैं। इसे पूरब की पश्चिम को देन के रूप में भी जाना जा सकता है।

यह पूरब व पश्चिम का मिलन बिंदु भी है। इस प्रकरण में सबसे बड़ा अचरज तो इस बात का है कि यह सब सत्य व तथ्य प्रामाणिक होने के बाद भी पूरब के प्रति पश्चिम की दृष्टि हमेशा औपनिवेशिक रही। हमेशा पश्चिम ने पूरब को हीन दृष्टि से देखने की कोशिश की। विशेष रूप से पाँच सौ सालों से तो यही बात सामने आ रही है। यह कौन नहीं जानता कि गणित व विज्ञान के सूत्रों का आदि देश भारत है, बाद में इसे अरबवासियों ने जाना व सीखा। उसी के आधार पर आज की दुनिया का भौतिक एवं वैज्ञानिक परिवेश बनाया जा सका है।

हाँ! यह सच है कि आधुनिक ज्ञान- विज्ञान का विकास ज्यादातर पश्चिम की देन है। यंत्र शक्ति का उपयोग करके उद्योग पर आधारित एक नई सभ्यता का निर्माण पश्चिम ने किया है। पश्चिम में दर्शन व चिंतन की अनेकों प्रणालियाँ भी विकसित हुई हैं। शिक्षा, कला, स्थापत्य, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, अंतरिक्ष विज्ञान, समुद्र विज्ञान जैसी कितनी ही युगांतरकारी स्थापनाएँ पश्चिमी दुनिया ने की हैं। आज के दौर का यही सच है। पश्चिम में कितने ही शास्त्र व ज्ञान- विज्ञान की शाखाएँ जन्मी हैं।

इस सच के साथ एक महत्त्वपूर्ण सवाल भी जुड़ा है, क्या पश्चिम यह सब अपने बूते कर सका है? तो इसका जवाब स्पष्ट व साफ- सुथरी न में है। यह सब करने में उसने न केवल भारत, बल्कि सारी दुनिया के देशों के संसाधनों का भरपूर शोषण व दोहन किया है। अपनी सभी कुशलताओं का उपयोग उसने उपनिवेश बनाने में किया। यथार्थ में यह एक नई दासता की शुरुआत थी। पूरब व पश्चिम का पिछले पाँच सौ सालों से जो संबंध बना, उसकी नींव इसी लूट नीति पर रखी गई। उपनिवेशवाद में सभ्यता और आधुनिकता के नाम पर स्थानीय शासन व प्रजा को अपने आधीन करने की कुटिल चाल चली जाती रही। स्थिति अभी भी लगभग वैसी ही है। पहले यह उपनिवेशवाद राजनीतिक अधिक एवं आर्थिक कम था, पर अब आर्थिक ज्यादा और राजनीतिक कम है। जिन पश्चिमी शक्तियों ने उपनिवेश स्थापित किए उन्होंने स्थानीय लोगों को यही बताया कि तुम्हारा अतीत त्याज्य, वर्तमान दयनीय है। हाँ! यदि तुमने हमारी आर्थिक दासता स्वीकार कर ली तो तुम्हारा भविष्य अवश्य सुखमय हो सकता है।

पश्चिम के इसी चिंतन व दृष्टिकोण ने पूंजीवाद को जन्म दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विकास का भारी हो- हल्ला मचाया गया। इसके पीछे भी उपनिवेशवादी सोच ही थी। सच की तह में जाएँ तो विकास ही एक ऐसा चमत्कारी शब्द था, जिसके बलबूते औपनिवेशिक शासक अभी भी भारत सहित एशिया, अफ्रीका व अन्य देशों के संसाधनों का दोहन- शोषण कर सकते थे। इस नए मकसद के लिए विकास को पश्चिम व पूरब के बीच पुल की तरह इस्तेमाल किया गया। जो सोच सकते हों, वे सोचें, जो देख सकते हों, वे देखें, यह नवउपनिवेशवाद जिसका नया नाम भूमंडलीकरण है, विकास की काल्पनिक ईंटों से ही बनाया गया है।

आज सभी अमेरिका व यूरोप के दिखाए रास्ते पर चलने के लिए विवश हो रहे हैं। जो वे कहें, वही सही, बाकी सब व्यर्थ। आखिर मशाल तो उन्हीं के हाथों में है, हम सब अँधेरे में जो ठहरे। कहने को दुनिया एक हो रही है, दूरियाँ समाप्त हो रही हैं, लेकिन यथार्थ में इस विश्वव्यवस्था का हिस्सा एकाधिकार व भेदभाव से भरा- पूरा है। मुक्त बाजार की आड़ में इसे प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसके लिए तरह- तरह के तर्क हैं। राजनीतिक संस्थाएँ कठपुतली की तरह किन्हीं के इशारों पर नाच रही हैं, जनता की राजनीति की इसमें कोई जगह नहीं बच रही है। एक तरह से यह निषिद्ध व निष्कासित है।

जो देश लोकतांत्रिक है, वह अपना देश भारत हो या फिर कोई और देश, वहाँ के नीतिनिर्माता, बड़े अधिकारी, औद्योगिक घराने, राजनीति का कारोबार करने वाले, सभी ने मिल- जुलकर जनता की राजनीति को विकास की राजनीति से विस्थापित कर देने का सफल प्रयास किया है। विकास के नाम पर मायावी मारीच स्वर्णमृग बनकर सभी को लुभा रहा है। अब तो यह राष्ट्रीय उद्देश्य व लक्ष्य बन चुका है।

अपने चिंतन के सूत्रों को तनिक देश के पहले के इतिहास से जोड़ें तो कहना यही पड़ेगा कि आज जो कुछ भी हो रहा है, वह सब पहले के औपनिवेशक काल का विस्तार है, फैलाव है। कहने को तो भूमंडल मिल रहा है, लेकिन यहाँ वसुधा कुटुंब नहीं बन पा रही है, बल्कि विकसित कहा जाने वाला पश्चिम अपना वैभव बढ़ाने के लिए अविकसित पूरब को, विकास के रास्ते ले जाने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहा है। इससे पर्यावरण की क्षति, मानवीय क्षति होती है, तो हुआ करे, इसकी उसे कोई परवाह नहीं है। नकली, सतही सरोकारों से इनसान को परिभाषित करने की कोशिश हो रही है। भोग- विलास को जीवन मूल्य एवं मानव मुक्ति के साधन के रूप में स्थापित किया जा रहा है। इन कोशिशों के परिणामस्वरूप मानव जीवन प्रकृतिद्रोह, आत्मद्रोह की सीमाएँ पार करता हुआ अब ईश्वरद्रोह के द्वार तक आ पहुँचा है।
खोखली होती दुनिया ने अपने माया जाल में सभी को समेट लिया है। भारत हो या चीन, दक्षिण अफ्रीका या ब्राजील, सभी इसकी भँवर में हैं। ऐसी विश्व- व्यवस्था को बचाने की अपेक्षा करें भी तो किससे? हाँ, इस अँधियारे में भारत के नन्हे पड़ोसी भूटान ने अपनी तरह से इस मायावी बुद्धि एवं विकास को अस्वीकारा है। इस छोटे से देश भूटान ने अपने देशवासियों के जीवन की खुशहाली नापने के लिए सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता को मानक बनाया है। यह बात बड़ी है, यह पहल अनुकरणीय है, जिसमें मानव जीवन की कुशलता, समृद्धि एवं सुख के लिए भौतिक उपलब्धियों को एकमात्र पैमाना नहीं स्वीकार किया गया है।

इस देश भूटान में पर्यावरण व मनुष्य के बीच सहज स्वाभाविक संबंध को स्वीकारा गया है। आत्मनिर्भरता को जीवन की सार्थकता के रूप में मान्यता दी गई है। हिमालय की गोद में बसा यह नन्हा सा देश, जिसके अधिकांश जन भगवान बुद्ध के अनुयायी हैं, दुनिया को एक अनूठा संदेश देने में लगा है। अभी हाल में ही इसने लोकतंत्र को स्वीकारा है। भले ही इसकी आवाज क्षीण लगे, फिर भी इतना तो कहना

ही होगा कि यह पश्चिमी दुनिया को पूरब का सटीक उत्तर है। साथ ही इसमें इस बात का आह्वान भी है कि आज मानव जीवन व इसके उद्देश्यों को नए सिरे से परिचित कराने व परिभाषित करने की आवश्यकता है।

भारत को अपने विकास- पथ के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है। यहाँ के जन- मन एवं राजनीतिक व्यवस्था को फिर से महात्मा गांधी के विचारों पर मनन करना चाहिए, जिन्होंने आडंबर, झूठ के विकल्प में सत्य, शोषण व दमन के विकल्प में सत्याग्रह सुझाया था। जिन्होंने स्वावलंबन, स्वरोजगार का मार्ग दिखाया। ग्राम स्वराज्य उनकी कल्पना थी, जिसकी आज जरूरत है। महात्मा गांधी के अनुयायी, सहयोगी एवं सहकर्मी रहे युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव ने अपने विचारों में देश व देशवासियों को बताया कि विश्व को परिवार बनाएँ न कि विश्व को बाजार में बदल दें। भूमंडलीकरण अवश्य हो, लेकिन उसका आधार सांस्कृतिक संवेदना बने न कि आर्थिक साम्राज्य का उपनिवेशवाद। इस सत्य पर चिंतन आवश्यक है, मायावी मारीच को स्वर्णमृग समझने की भूल न की जाए, अन्यथा संस्कृति की सीता को फिर से निर्वासित होना पड़ेगा।

ईश्वर से पाना और उसे जरूरतमंदों में बाँटना, इसी में सच्ची संपन्नता, समर्थता एवं जीवन की सार्थकता है।


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