अमृत वचन जीवन के सिद्ध सूत्र

सच्ची आध्यात्मिकता

<<   |   <   | |   >   |   >>
     हमारे इतने ऊँचे संस्कार और मनुष्य का जीवन किस खास काम के लिये मिला हुआ है और तुम्हें भगवान् ने किस खास समय पर भेजा? अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिये भेजा। यह पिछड़ा हुआ देश, पिछड़ा हुआ राष्ट्र, पिछड़ी हुई सभ्यता, पिछड़ी हुई संस्कृति, पिछड़ी हुई कौम सारी की सारी कराह रही थी, त्राहि-त्राहि कर रही थी और तुम्हारी सहायता की जरूरत थी और मानवता तुमसे हाथ पसारे खड़ी थी और तुम इन्कार करते हुए चले गये और तुमने कहा-हमको बाल-बच्चे पैदा करने हैं, हमको धंधा करना है, हमको नौकरी करनी है और हमको पैसे कमाने हैं और हमको पैसा जमा करना है। आपने ये कहा और इंसानियत ने आपसे कहा-आपके पैसे की जरूरत है हमको। इंसानियत ने कहा-आपके वक्त की जरूरत है हमको। इंसानियत ने कहा-आपके पसीने की जरूरत है हमको और आपने इन्कार कर दिया। आप गुनहगार हैं और आप गुनहगार को चाहे वराह भगवान् क्यों न हों, माफ नहीं करता।

     मैंने कहा कि मैं अब चलता हूँ और मैं अब गया। अब मैं हिमालय को चला और मैं अपने मित्रों को इस तरीके से पाप के पंक में कराहते हुए नहीं रहने दूँगा। मैं आपको उठाऊँगा, उठा करके ले जाऊँगा और पेट फाड़ना होगा तो मैं फाड़ डालूँगा आपको। बेरहमी से फाड़ूँगा आपके पेटों को। खाली आशीर्वाद देना मेरा काम नहीं है। पेट फाड़ना भी मेरा काम है।

     आशीर्वाद तो हर उदार आदमी दिया करता है और देना चाहिए। जिन्होंने ये अपना धर्म और अपना ईमान कायम रखा, कि दिया जाना हर आदमी का कर्तव्य है और देना आदमी का फर्ज है। आध्यात्मिकता का तकाजा है ये। आपके ऊपर एहसान नहीं करता मैं। किसी पर नहीं एहसान करता। ये मेरी आध्यात्मिकता है और किसी की भी आध्यात्मिकता उसको चैन से रहने देगी नहीं। उसको हर वक्त कोसती रहेगी, घायल करती रहेगी और ये कहती रहेगी ‘‘इंसान! खाने के लिये तू नहीं पैदा हुआ है, देने के लिये पैदा हुआ है।’’ देने का तेरा अधिकार है, तैने क्या दुनिया में दिया? आध्यात्मिकता कहती है, काटती है, भगवान् पूछता है, भगवान् जवाब-तलब करता है हर इन्सान से और जब भगवान् आता है किसी आदमी के पास तो यही कहता हुआ चला आता है ‘‘मैंने तुझे दुनिया की सबसे बड़ी नियामत और सबसे बड़ी दौलत इन्सान की जिन्दगी दी और इन्सान की जिन्दगी का तैने किस तरीके से इस्तेमाल किया, जवाब दे, गुनहगार! जवाब दे? गुनहगार! मुझे जवाब दे।’’ भगवान् यही सवाल करता हुआ चला आता है। भगवान् एक ओर से पूछता चला आता है ‘‘तैंने मुझे क्या दिया?’’ और हम भगवान् से तकाजा करते हुए चले जाते हैं। हमारे तीन लड़कियाँ हैं, चौथा लड़का कहाँ है? और हमको तो ढाई सौ रुपये मिलते हैं, साढ़े चार सौ रुपये की तरक्की कहाँ हुई? और हमारे पास अस्सी बीघा खेत है, सवा सौ बीघा खेत कहाँ है? हम भगवान् से शिकायत करते चले जाते हैं कि हमको नहीं दिया गया और भगवान् कहता रहता है, हमको नहीं दिया गया। इन्सान! जब भगवान् आयेगा आदमी के भीतर तो यह कहता हुआ चला जायेगा कि इन्सान को उदार होना चाहिए। इन्सान को दयालु होना चाहिए। इन्सान को देने वाला होना चाहिए। आदमी के पास जो है, उसको दोनों हाथों से देना चाहिए।

     मित्रो! ये मैं इंसानियत के तकाजे से, अपनी आध्यात्मिकता के तकाजे से, अपनी आत्मा के तकाजे से और अपने भगवान् के तकाजे से अगर मैं आप लोगों की सहायता करता हूँ, मदद करता हूँ तो आप जान लीजिए आपके ऊपर मेरा कोई एहसान नहीं है। मेरा एहसान मेरे अन्तरात्मा के ऊपर है। जो मुझे हर वक्त कोसती रहती है कि-‘‘बेहूदे! दुनिया को देकर के जा, खा करके मत जा। कर्जदार होकर के मत जा। यहाँ देने के लिये इन्सान पैदा किया गया है।’’

     मित्रो! आप में से हर आदमी की हालत ये हो जायेगी, जब आपके पास भगवान् आयेगा। गायत्री मंत्र जिस दिन आपके पास आयेगा। आप में से हर आदमी की हालत ये होगी, जिस तरह की मेरी है। जब कभी भी राम आपके पास आयेगा, आप इसी तरीके से होकर के रहेंगे, जैसे हनुमान् होकर के रह रहा था और कृष्ण जिस दिन आपके पास आयेगा, उस दिन आप उस तरीके से होकर के रहेंगे, जैसे कि अर्जुन होकर के रहा था।

     मित्रो! ये शिक्षण, ये शिक्षण आध्यात्मिकता का है। ये गायत्री मंत्र का शिक्षण है। आप कहेंगे, गुरुजी, हम तो गायत्री मंत्र का चमत्कार सीखने और आपकी ऋद्धियाँ सीखने आये थे। बेटा, कोई चमत्कार दुनिया में नहीं है और कर्मकाण्ड, कर्मकाण्डों का कोई मूल्य, कोई महत्त्व दुनिया में नहीं है। वाल्मीकि डाकू का मरा-मरा उच्चारण करना सार्थक हो गया और शबरी का राम-राम कहना सार्थक हो गया और आपका विष्णु सहस्रनाम का पाठ करना धूल में चला गया और आपका भागवत् का पाठ करना जहन्नुम में चला गया और आपकी गीता और रामायण के पाठ दोहराने भाड़ में चले गये। लेकिन शबरी, शबरी का राम का नाम चमत्कार दिखाता रहा। भंगिन के थूक का सड़ा हुआ और गंदा वाला बेर, सूखा वाला बेर, सड़ा हुआ बेर खाते हुए चले गये भगवान्। क्यों, क्यों खाया उसने बेर? उन्होंने कहा-शबरी मैं बेर नहीं खाता, मैं मोहब्बत खाता रहता हूँ, मैं आत्मा खाता रहता हूँ, मैं ईमान खाता रहता हूँ,  मैं दृष्टिकोण खाता रहता हूँ, मैं महानता खाता रहता हूँ। मेरी खुराक सिर्फ ये है। जो कोई आदमी ये खुराक मुझे खिला देता है, उसको खाकर के मैं धन्य हो जाता हूँ। मैं तो मोहब्बत पीता रहता हूँ, प्यार पीता रहता हूँ।

     इन्सानों के पास मोहब्बत कहाँ? स्वार्थों से डूबे हुए, कामनाओं से डूबे हुए, तृष्णाओं से डूबे हुए, लोभ से डूबे हुए, इन सब पाप पंकों में जलते हुए इंसान के पास पानी कहाँ है? पानी रहा होता तो उनकी आत्मा शांत हो गई होती, तृप्त हो गयी होती। शीतलता का अनुभव जीवन में किया होता। उल्लास उनके जीवन में आया होता। दूसरों को उल्लास दिया होता। ए अभागे! आग में जलते हुए इन्सान! पानी इनके पास कहाँ? बृज की छोकरियों ने एक कटोरी भर छाछ पिलाया और उसको (कृष्ण को) सारे आँगन में नाच नचाकर के दिखाया।

     मित्रो! यही मेरे जीवन की कहानी है, यही मेरे जीवन का अध्यात्म है। यही है मेरी उपासना की विधि। यही है मेरे साधना के संस्कार। 

आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118