अमृत वचन जीवन के सिद्ध सूत्र

त्याग और समर्पण

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     मैंने अपना ज्ञान जो दुनियाँ से सीखा था, वास्तव में मैं बराबर आपसे बोलता रहा हूँ, रात भर आपसे बात करता रहा हूँ। आप सोये रहे हैं और मैं आपके सिरहाने बैठा-बैठा आपको थपकियाँ लगाता रहा हूँ, लोरियाँ सुनाता रहा हूँ, मोहब्बत के गीत सुनाता रहा हूँ। न जाने क्या से क्या कहता रहा हूँ और मैंने बहुत खुशामद की है आपकी। इन्सानो! मेरे मित्रो!  तुम मुझे देख नहीं पाओगे क्या? तुम मुझे केवल गुरुजी, आशीर्वाद देने वाले ही मानते रहोगे क्या? मैं जलता हुआ इन्सान हूँ और मैं सही इन्सान हूँ। क्या तुम जलते हुए इन्सान नहीं बन सकते? क्या भगवान् की लौ में समाने के लिये, लोगों के अन्दर लौ की आग, ज्ञान की आग पैदा नहीं कर सकते। न जाने मैं क्या से क्या कहता रहा हूँ? मेरी चारों वाणियाँ (परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी) बोलती रही हैं। आपके हृदय से मैं बोलता रहा हूँ। आत्मा से बोलता रहा हूँ। कानों से बोलता रहा हूँ। मस्तिष्क से बोलता रहा हूँ। आप जाइए और आप मेरी आवाज को आज बाँध कर के चले जाइए। मैं आपको छोड़ने वाला नहीं। जहाँ कहीं भी रहूँगा, बोलता रहूँगा और आपसे लड़ता रहूँगा। कहता रहूँगा। जैसे अभी इन चादरों में आप सोये रहे हैं, तब मैंने आपको बहुत कुछ कहा है। यह कहना उस वक्त बन्द हो जायेगा, जब आप मेरी राह पर चलेंगे। उस राह पर, जिस राह पर मैं अपने गुरु के इशारे पर चला और मैंने अपनी जिन्दगी सारी की सारी उनके कहने के मुताबिक़ ही खर्च कर डाली।

     मैं चाहता हूँ आपका वक्त, उन कामों में खर्च हो। मैं चाहता हूँ आपका पसीना, उन कामों में खर्च हो। मैं चाहता हूँ आपका पैसा, उन कामों में खर्च हो। जिन कामों के लिये मैं जीया, जिन कामों के लिये मैं पैदा हुआ। जिन कामों में मैं ये कल्याण चाहता हूँ, संसार का कल्याण देखता हूँ और मानवता का उत्थान। इसीलिये छोटी साधना के रूप में मैं आपको दस पैसा रोज खर्च करने की बात कहता रहा, एक घण्टे समय खर्च करने की बात कहता रहा। छोटी-छोटी बातें थी शुरुआत की। लेकिन ये तो शुरुआत है, जो मैं बहुत चाहता हूँ, हर वक्त कहता हूँ। अगले दिन आयेंगे, जब आपको मेरे तरीके से अपना सर्वस्व भगवान् के चरणों पर समर्पित करना होगा और अपनी सारी की सारी चीजें समेट करके भगवान् के पाँवों पे लाकर रखनी पड़ेंगी, ताकि भगवान् के पास जो कुछ है, उन सबको पाने के हकदार आप बन जायें।

     रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक छोटी वाली कहानी। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक गीत गाया, कविता गायी, ‘‘मैं गया दरवाजे-दरवाजे भीख माँगने के लिये, अनाज की भर ली मैंने झोली। एक आया भिखारी मेरे सामने, उसने कहा, तेरी झोली में से कुछ हमको भी दे।’’ रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उस महत्त्वपूर्ण कविता में लिखा है, ‘‘मैंने बड़ी हिम्मत की और एक दाना झोली में से निकाला और उसकी हथेली पर रख दिया और भिखारी मुस्कुराता हुआ चला गया एक दाना लेकर। मैं आया अपने घर।’’ रविन्द्रनाथ टैगोर ने गाया ‘‘मैंने अपनी झोली को पलट दिया और उस अनाज की झोली में से एक बड़ा वाला सोने का दाना रखा हुआ मैंने देखा। फूट-फूट करके रोया, मैंने कहा, क्यों न मैंने अपनी झोली के सारे के सारे दाने उस भिखारी को सौंप दिये; ताकि झोली सारे के सारे सोने के दानों से भर जाती।’’ यही है, मेरे सारे के सारे जीवन का निचोड़। यही है, मेरी उपासनाओं का निचोड़। यही है, मेरी साधना का निचोड़। यही है, मेरे जीवन का निचोड़। मैंने अपनी सारी झोली, सारा वक्त, सारा पैसा, सारी शक्ति, सारा अकल, सारा दिमाग अपने भगवान् के चरणों पर रख दिया और भगवान् के पास जो कुछ भी चीजें थीं, जो कुछ भी उसके पास करामातें थीं, जो कुछ भी सिद्धियाँ थीं। जो कुछ भी चमत्कार थे। जो कुछ भी विभूतियाँ थीं। वो सारी की सारी लाकर के मुझे दे दिया। मैं कहता रहा ‘‘मुझे नहीं चाहिये, तेरी ऋद्धियाँ’’ वो कहता रहा ‘‘मुझे नहीं चाहिये, तेरा धन’’ मैं कहता रहा ‘‘मुझे नहीं चाहिये, तेरी सिद्धियाँ’’ वो कहता रहा ‘‘मुझे नहीं चाहिये, तेरा वैभव’’।

     मित्रो ! हम तो इसी तरीके से धक्का−मुक्की करते रहे और हमारी धक्का−मुक्की दूसरे तरह की होती तो कहते ‘‘भगवान् तेरी जेब काट करके रहूँगा’’ और भगवान् कहता ‘‘जरा भी नहीं दूँगा।’’ ऐसी धक्का−मुक्की रही होती तो आपके तरीके से मैं भी भगवान् से लड़ाई लड़ता, लेकिन मेरी लड़ाई बड़ी महत्त्वपूर्ण लड़ाई है।

     मैं चाहता हूँ, ऐसी लड़ाई आपके और भगवान् के बीच में खड़ी हो तो आप लोग भी मेरे तरीके से आध्यात्मिकता का आनन्द उठायें, आध्यात्मिकता का लाभ लें और अपने इसी जीवन में धन्य होकर के जायें। जैसा मैं धन्य होकर के अपने 60 वर्ष के जीवन को पूर्ण करता हुआ विदाई आप लोगों से ले रहा हूँ।

आज की बात समाप्त।
।।ॐ शान्तिः।।
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