मानवी सत्ता के तीन पक्ष हैं (क) भावना (ख) विचारणा (ग) क्रिया- प्रक्रिया। इन तीनों को परिष्कृत बनाने के लिए पुरातन प्रतिपादन के अनुसार भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग के अभ्यास की आवश्यकता बताई गई है। यह एक नियत समय या नियत स्थान पर नियत विधान के साथ हो सकने वाले कृत्य नहीं है वरन् ऐसे उच्चस्तरीय निर्धारण हैं जिनके अनुसार कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर की गतिविधियों का नियमित रूप से निरन्तर सूत्र संचालन करना पड़ता है। उपासना में अन्तःकरण को, साधना में मनःसंस्थान को और आराधना में क्रिया कलापों को उच्चस्तरीय उद्देश्यों के अनुरूप गतिशील रखना पड़ता है। श्वास- प्रश्वास, आकुंचन प्रकुंचन, निमेष- उन्मेष, ग्रहण- विसर्जन जैसी गतिविधियाँ अनवरत रूप से निरन्तर चलती रहती हैं। ठीक इसी प्रकार आत्मसत्ता के उपरोक्त तीनों पक्षों को इस प्रकार प्रशिक्षित करना पड़ता है कि वे अभ्यस्त कुसंस्कारिता से छुटकारा पाकर सुसंस्कारी शालीनता के ढाँचे में ढलने के लिए विवश हो सकें।
पूजा पाठ के समस्त उपचारों का एक मात्र लक्ष्य यह उत्कृष्टता सम्पादन ही है। परब्रह्म को किसी उपहार मनुहार के सहारे फुसलाया नहीं जा सकता। उसने नियति क्रम जड़ चेतन सभी को बाँधा है। और स्वयं भी बँध गया है। प्रशंसा के बदले अनुग्रह और निन्दा के बदले प्रतिशोध लेने पर यदि भगवान उतर पड़े तो समझना चाहिए कि व्यवस्था परक अनुबन्ध समाप्त हो गए और सर्वतोमुखी अराजकता का उपक्रम चल पड़ा। ऐसा होता नहीं है। लोगों का भ्रम है जो सृष्टा को फुसलाने और नियति क्रम का उल्लंघन करने वाले अनुदान इसलिए माँगते हैं कि वे पूजा करने के कारण पक्षपात के अधिकारी हैं। यह बाल बुद्धि जितनी जल्दी हट सके उतना ही अच्छा है। पूजा उपचार का तात्पर्य चेतना संस्थान को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालने का प्रभावी व्यायाम पराक्रम प्रशिक्षण मात्र है। इस या उस प्रकार जो अपने चेतना क्षेत्र को जितना समुन्नत बना सकेगा वह उतना ही ऊँचा उठेगा, आगे बढ़ेगा और देवत्व के क्षेत्र में प्रवेश पाने का अधिकारी बनेगा।
उपासना का उद्देश्य है- आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देना। आत्मा अर्थात् अन्तःकरण, भाव संस्थान जिसके साथ मान्यतायें आकांक्षाएँ लिपटी रहती हैं। परमात्मा अर्थात् उत्कृष्ट आदर्शवादिता। स्मरण रहे परमात्मा कोई व्यक्ति विशेष नहीं, सृष्टि में जितना भी देव पक्ष है उसके समुच्चय को, आत्माओं के समष्टि समुदाय को परमात्मा कहते हैं। संक्षेप में व्यापक क्षेत्र की सत्प्रवृत्तियों का समग्र रूप ही मनुष्य का इष्ट उपास्य है। इसी के साथ आत्मसात्, घनिष्ठतम, एकाकार होते जाना ही परमात्मा की उपासना है। सर्वविदित है उपासक का स्तर ऊँचा होगा और उपास्य का स्वरूप वास्तविक होगा तो उन दोनों की घनिष्ठता का प्रभाव इसी रूप में प्रकट होगा कि उपासक उपास्य के तद्रूप बनता चला जाय।
ईंधन आग के जितना समीप पहुँचता है उतना ही गरम होता जाता है। जब वह इष्ट से लिपट जाता है उसकी सत्ता अग्नि रूप में प्रकट होती है। नाला नदी में, बूँद समुद्र में, नमक पानी में मिलने पर उन्हें एकात्म होते देखा जाता है। चन्दन के निकट उगे हुए झाड़- झंखाड़ सुगन्धित होते हैं। लोहा पारस का स्पर्श करके सोना बनता है। पेड़ से लिपटकर बेल उतनी ही ऊँची चढ़ती जाती है। पत्नी का समर्पण पति के समस्त यश वैभव, स्नेह सहयोग की भागीदारी खरीद लेता है। यह प्रक्रिया भाव- भरी उपासना से सम्पन्न होती है। परमात्मा के साथ आदर्शवादी देव परिवार के साथ मनुष्य जितना भाव और कर्म से एकीभूत होता जाता है उसी अनुपात में उसका प्रभाव भी हाथों- हाथ बढ़ता है। बिजली घर के साथ सम्बन्ध जुड़ते ही बल्ब जलने और पंखे चलने लगते हैं। दो तालाबों के बीच नाली बना दी जाय तो ऊँचे वाले का पानी नीचे वाले में चलता रहता है। जब तक कि दोनों की सतह एक नहीं हो जाती। उपासना यदि कर्मकाण्ड की चिह्न पूजा मात्र हो, मनुहार की लकीर पिट रही हो तो बात दूसरी है अन्यथा आत्मा के परिष्कृत एवं विशद रूप परमात्मा के बीच यदि घनिष्ठ आत्मीयता जुड़े तो उसकी परिणति स्पष्टतः यही हो सकती है कि मनुष्य में देवत्व उभर पड़े। उसका चिन्तन चरित्र और व्यवहार वैसा बन पड़े जैसा उदात्त दृष्टि वाले भगवद् भक्तों का होना चाहिए। इस संदर्भ में विभिन्न सम्प्रदायों ने कई प्रकार के पूजा विधान बनाये हैं उनमें से कोई भी चुना जा सकता है किन्तु उस कलेवर के अन्तराल में आदर्शों के प्रति आत्म समर्पण की, जीवन को उसी स्तर का बनाने की ललक होनी चाहिए। इसी ललक को भक्ति भावना कहते हैं। इष्ट की आकृति मनुष्य जैसी या सूर्य शिवलिंग जैसे प्रकृति पदार्थ की प्रयुक्त हो सकती है। पर ध्यान रहे उसे विराट की प्रतीक प्रतिमा भर माना जाए। ऐसा न हो कि उस सीमित में असीम को सीमाबद्ध करने की भूल की जाय। उपासना यदि निर्भ्रान्त और श्रद्धा विश्वास से भरी पूरी है तो कोई कारण नहीं कि उसका प्रभाव भक्त में स्तर से क्रमशः उच्च से उच्चतर, उच्चस्तर से उच्चतम बनाने का प्रगति क्रम निरन्तर गतिशील न बना रहे। यह यात्रा परम लक्ष्य तक पहुँच कर ही रुकती है।
उपासना का उपरोक्त तत्त्व दर्शन समझ लेने के उपरान्त शेष इतना ही रह जाता है कि उसे भावनात्मक व्यायाम की तरह पूजा उपचार के क्रिया कृत्यों के सहारे आगे बढ़ाया जाय। इसके लिए किस पद्धति का अवलम्बन किया जाय। इसका उत्तर प्रज्ञा परिजनों के लिए एक ही है कि उनकी जैसी मनोभूमि के लिए ‘प्रज्ञायोग’ की विधि व्यवस्था ही सर्वोत्तम सिद्ध होगी। यह सर्वांगपूर्ण है। इसमें उपासना, साधना और आराधना के तीनों तत्त्वों का समान रूप से समावेश है। संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित रूपरेखा अगले पृष्ठों पर अलग से प्रस्तुत है। कारण शरीर में सन्निहित भाव श्रद्धा को दिशा देने और ऊँचा उठाने के लिए उपासनात्मक आवश्यकता की पूर्ति प्रज्ञायोग के सहारे सम्पन्न की जानी चाहिए।
साधना अर्थात् अपने आपे को साधना। उसके अनगढ़पन, पिछड़ेपन, कुसंस्कार का निराकरण संशोधन, निम्न योनियों से क्रमिक यात्रा करते हुए मनुष्य जन्म तो प्राणी भगवान के अनुग्रह से प्राप्त कर लेता है। पर पिछली कुसंस्कारिता से पीछा छुड़ाना और मानवी गरिमा के उपयुक्त विशिष्टता उत्पन्न करना उसका अपना काम है। भगवान इसी आधार पर किसी की पात्रता जाँचते हैं, और उसे अधिक ऊँचे उत्तरदायित्व, पद, वैभव, प्रदान करते हैं। महामानव मनीषी, ऋषि, सिद्ध पुरुष, देवात्मा, अवतार आदि इसी स्तर की प्रगति पदोन्नति हैं जिन्हें मनुष्य पात्रता, प्रामाणिकता सिद्ध करने के उपरान्त विजेता की तरह उपहार में प्राप्त करता है। चिन्तन और चरित्र में अधिकाधिक उत्कृष्टता का समावेश ही साधना है। इसके लिए पिछले कुसंस्कारी ढर्रे से पग- पग पर जूझना पड़ता है। कुविचारों के सम्मुख सद्विचारों की सेना खड़ी करते हुए उन्हें मल्लयुद्ध में परास्त करना पड़ता है।
मन को मारना अर्थात् साधना, अध्यात्म क्षेत्र का सबसे बड़ा पुरुषार्थ माना गया है। जो मन के पीछे चलते हैं वे अनगढ़ घोड़े की पूँछ में अपनी गरदन बाँधकर झाड़ झंखाड़ों में खिंचते, घिसटते फिरते और लहूलुहान होकर बे मौत मरते हैं। जिस मनोनिग्रह को चित्तवृत्ति निरोध को आत्मिक प्रगति का मेरुदण्ड माना गया है उसे नट- बाजीगरों द्वारा बरती जाने वाली एकाग्रता मात्र नहीं समझना चाहिए। उसका तात्पर्य है मन को कुसंस्कारी भटकावों से रोककर उत्कृष्टता के, लक्ष्य के राजमार्ग पर संकल्प पूर्वक चल पड़ने की अटूट भाव श्रद्धा। कहा गया है- ‘‘जिसने अपने को जीता वह विश्व विजयी है।’’ इस युक्ति में बहुत कुछ सार है जिसका दबाव अपने स्वभाव तक को बदलने में सफल न हो सका उस असफल व्यक्ति को कौन मान्यता देगा? कौन उसकी बात सुनेगा? कौन उसके कहने पर चलेगा? व्यक्तित्व की प्रामाणिकता इसी कसौटी पर कसी जाती है कि वह अनगढ़ मन के इशारे पर कठपुतली की तरह नाचता है अथवा मनस्वी घुड़सवार की तरह अपने वाहन को अभीष्ट दिशा में अभीष्ट गति से चलाने दौड़ाने में समर्थ रहता है।साधना हो या उपासना उसकी चाबी भरने के लिए कोई समय नियत हो सकता है, किन्तु काम इतने भर से बनने वाला नहीं। घड़ी के पुर्जों को अनवरत क्रम से चलना और सुइयों को बिना विश्राम के चलते रहना पड़ता है। दोनों ही प्रक्रिया ऐसी हैं जिनमें अपनी क्रिया, विचारणा और आकांक्षा को हर घड़ी परखना और सुधारना- संभालना पड़ता है। खजाने के रक्षक, जेल के वार्डन और सीमा के प्रहरी निरन्तर चौकस रहते हैं। जीवन सम्पदा में व्यतिक्रम न उत्पन्न होने पाये, इसके लिए जो सर्वदा जागरूक रहता है और अवांछनीयता के प्रवेश करते ही रक्त के श्वेत कणों की तरह विजातियों से गुँथ पड़ता है, उसी को विजेता कहते हैं। प्रशंसा, प्रतिष्ठा, सम्पन्नता, सफलता जैसी विभूतियाँ अर्जन करने में ऐसे पराक्रमी लोग ही समर्थ होते हैं।
आत्म- निर्माण में गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता अपनानी होता है। पर उस प्रयास का अभ्यास कहाँ हो? सिद्धान्त को आदत में बदलने के लिए कहीं न कहीं अभ्यास तो करना ही होगा। बलिष्ठता के लिए व्यायामशाला, विद्वता के लिए पाठशाला, धनाढ्य बनने के लिए उद्योगशाला का आश्रय लेना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार आत्म- निर्माण के लिए व्यक्तित्व में जिन सत्प्रवृत्तियों के समावेश की आवश्यकता पड़ती है उसके लिए कोई ना कोई कार्यक्षेत्र तो चाहिए ही। समझा जाना चाहिए कि इस स्तर का नियमित, निरन्तर, दीर्घकालीन अभ्यास चलाते रहने के लिए एक सुनियोजित प्रयोगशाला का कार्य परिवार के वातावरण में ही सम्भव हो सकता है। पशु जीवन में जिन उत्कृष्टताओं से कोई वास्ता न पड़ा था उसे मनुष्य जीवन में अपनाना पड़ता है। यह कार्य पठन, श्रवण से संभव नहीं। प्रवृत्तियाँ दीर्घकालीन अभ्यास से स्वभाव का अङ्ग बन जाती। परिवार में पग- पग पर ही सदस्य के मर्यादा पालन, अनुशासन, सहकार, आत्मभाव एवं उदार व्यवहार का अभ्यास करना पड़ता है लगता है इसी उद्देश्य की
पूर्ति के लिए मनुष्य को सामाजिक प्राणी बनाया गया है। उस सामाजिकता का अभ्यास करने के लिए परिवार की छोटी प्रयोग शाला का संचालन सौंपा गया है। इसमें दुहरा लाभ है। इसमें आत्मिक सद्गुणों का अभ्यास तथा एक छोटे उद्यान को सुविकसित बनाकर सृष्टि सौन्दर्य बढ़ाने, स्रष्टा का मनोरथ पूरा करने वाला उपक्रम है। यह पारिवारिकता ही है जो आत्म विकास का उद्देश्य पूरा करती है और समुन्नत होते "वसुधैव कुटुम्बकम्" की विश्व परिवार की युग साधना सम्पन्न करती है।
उपासना- साधना के अतिरिक्त तीसरा कार्यक्रम है- आराधना। आराधना अर्थात् विराट ब्रह्म की विश्वमानव की सेवा संलग्नता। हर भगवद्भक्त को भजन एवं जीवन परिष्कार के साथ- साथ इस विश्व उद्यान को सुन्दर समुन्नत बनाने के लिए किसी न किसी रूप में अपने श्रम, समय और साधन का एक अंश नियमित रूप से लगाना पड़ा है। साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजक स्तर के सभी धर्म प्रेमी किसी न किसी रूप में लोक- मंगल के लिए सार भरे अनुदान प्रस्तुत करते रहे हैं। इसके अभाव में आध्यात्मिक प्रगति का लाभ किसी को भी नहीं मिला। भूमिशोधन तथा बीजारोपण को उपासना साधना कहा जा सकता है। पर फसल इतने से ही नहीं काटी जा सकती।
युग सन्धि में सर्वोत्तम लोक- साधना एक ही है- लोक का परिष्कार। इसके लिए जन सम्पर्क साधने और जन- जन को युगान्तरीय चेतना से परिचित अनुप्राणित करना प्रमुख एवं प्रधान कार्य है। व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण के बहुमुखी कार्यक्रम इन दिनों इसी निमित्त चल रहे हैं। प्रज्ञा संस्थानों का निर्माण तथा प्रज्ञा अभियान का संचालन जिन उद्देश्यों को सामने रखकर अग्रसर हो रहा है उसे लोक सेवा की सामयिक एवं सर्वोत्तम प्रक्रिया कहना चाहिए। इसी में सम्मिलित होकर, सहभागी बनकर आराधना का उद्देश्य पूरा होता है। सभी प्रज्ञा परिजनों को अपनी आत्मबल सम्पादन प्रक्रिया में उपासना और आराधना का समावेश करना चाहिए।
आत्मिक प्रगति के लिए जिन तीन सोपानों पर चढ़ना पड़ता है, उनमें उपासना, साधना के अतिरिक्त तीसरा मोर्चा आराधना का रह जाता है। आराधना के लिए अन्तःकरण कुरेदना पड़ता है। साधना के लिए परिवार की प्रयोगशाला में अपने निर्धारणों को परिपक्व करना पड़ता है। आराधना का अर्थ है- लोक मंगल के सर्वोत्तम उपाय सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन में निरत होना। संक्षेप में इसी को समाज सेवा, लोक साधना, जन कल्याण, पुण्य परमार्थ आदि नामों से पुकारते हैं। यह भी मानवी गरिमा का एक सुनिश्चित पक्ष है। इसकी उपेक्षा करने पर सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव का अङ्ग बना सकना संभव ही नहीं हो पाता। सिद्धान्तों का समझना, पढ़ना, सुनना, पर्याप्त नहीं। इतने भर से मनोविनोद भर होता रहता है, पल्ले कुछ नहीं पड़ता। श्रेष्ठता को स्वभाव का अङ्ग बनाने के लिए एक ही मार्ग है- पुण्य परमार्थ का प्रयोग, अभ्यास। इसलिए सेवा- साधना को मानवी गरिमा का अविच्छिन्न अङ्ग ठहराया गया है और स्वार्थ परायण को अपराधी की तरह घृणित बताया गया है। मनुष्य का अस्तित्व पारस्परिक सहयोग पर निर्भर है। अन्य प्राणी तो कुछ दिन ही माता की सहायता लेकर स्वावलम्बी बन जाते हैं, पर मनुष्य को आजीवन दूसरों की सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है। अन्न, वस्त्र, पुस्तक, औषधि आजीविका जैसे साधनों से लेकर पत्नी, पिता, माता, सास, श्वसुर आदि सम्बन्धियों की उदार सहायता बिना एक पल भी काम नहीं चलता। एकाकी जीवन अन्य प्राणी जी सकते हैं, पर मनुष्य की संरचना को देखते हुए वैसा संभव नहीं। समाज सहयोग से रहित व्यक्ति को रामू भेड़िये जैसा वनचर, मूक- बधिर होकर रहना पड़ेगा। इस उपकार का प्रत्युपकार होना ही चाहिए सहयोग, आदान- प्रदान का, उदारता का सिलसिला चलना ही चाहिए। यही प्रकारान्तर से पुण्य परमार्थ है। ऋण मुक्ति, सद्गुणों की उपलब्धि, आत्मीयता विस्तार की विभूति जैसी अनेकों सुखद संभावनाएँ लोक मंगल की साधना के साथ जुड़ी हुई हैं। भजन का वास्तविक तात्पर्य परमार्थ है। संस्कृत की 'भज् सेवायां' धातु से भजन शब्द बना है, जिसका अर्थ होता है- सेवा को जीवन क्रम में सम्मिलित रखना। व्यक्ति समाज को समुन्नत बनाये। समाज व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाने का अवसर करे। यही है- "देवान् भावयतानेन्.........।" का गीता प्रतिपादन। हम देवत्व का सम्वर्धन परिपोषण करने वाली सेवा- साधना में निरत रहें तो बदले में वह परिपुष्ट हुआ देवत्व हमें सर्वतोमुखी प्रगति के साथ जुड़ी हुई अगणित विभूतियों से सुसज्जित करेगा और कृत- कृत्य बनाकर रहेगा।