अपूर्णता से पूर्णता की ओर

वैज्ञानिक क्षेत्र में प्रगति कर अपने सुख सुविधाओं के साधन एकत्र कर लेना और उन्हें सुनियोजित ढंग से प्रयुक्त कर अपनी जीवन यापन की पद्धति को ऊँचा उठा लेना मानवी पुरुषार्थ का ही कमाल है। उसने प्रकृति के रहस्यों को अपनी पैनी बुद्धि से खोजा और उनका उपयोग करने की विधा विकसित की। उसके लिए गत शताब्दियों के वैज्ञानिक उद्भव को श्रेय दिया जा सकता है। पर यही सब कुछ नहीं है। आत्मिकी के अनुशासन के अभाव में तो भौतिकी के उच्छृंखल होने के अवसर बढ़ जाते हैं। आत्मिकी अर्थात् अध्यात्म के सिद्धान्तों का सुख सुविधाओं के सुनियोजित उपयोग हेतु परिपालन। यह परिधि इतनी विशाल है कि व्यक्ति से लेकर विश्व परिवार के प्रत्येक घटक को अपने अन्दर समाहित कर लेती है।

अध्यात्म मनुष्य को जीवन जीने की विद्या का शिक्षण देता है। मानवी काया के समस्त यन्त्रों तथा उपार्जित वैभव रूपी पुरुषार्थजन्य अनुदानों का दुरुपयोग किन परिस्थितियों को जन्म दे सकता है, इसका समग्र स्वरूप आत्मिकी की शिक्षाओं में देखने को मिल सकता है। अध्यात्म बताता है कि मनुष्य अपने उच्चस्तर से अपनी दुर्बलताओं के कारण ही अधःपतित होता है और दुःख, क्लेश भरा नरक भोगता है। मनुष्य को इस विश्व के साथ सम्पर्क बनाकर सुखानुभूति प्राप्त करने की तीन उपकरण मिले हुए हैं। यदि वह उनका ठीक तरह से उपयोग जान सके तो उसे पग- पग पर यह अनुभव हो कि यह संसार कितना सुन्दर और जीवन कितना मधुर है। इन तीन उपकरणों के नाम हैं-

१. अन्तरात्मा २. मन ३. इन्द्रिय समूह।

इन्द्रियों की बनावट ऐसी अद्भुत है कि दैनिक जीवन की सामान्य प्रक्रिया में ही उन्हें पग- पग पर असाधारण सरसता अनुभव होती है। पेट भरने के लिए भोजन करना स्वाभाविक है। भगवान की कैसी महिमा है कि उसने दैनिक जीवन की शरीर यात्रा भर की नितान्त स्वाभाविक प्रक्रिया को कितना सरस बना दिया है। उपयुक्त भोजन करते हुए जीव को कितना रस मिलता है और चित्त को उस अनुभूति से कैसी प्रसन्नता होती है।

आँख का साधारण काम है वस्तुओं को देखना ताकि हमारी जीवन यात्रा ठीक तरह चलती रह सके। पर आँखों में कितनी विचित्र विशेषता भर दी है कि वह रूप, सौन्दर्य, कौतुक जैसी रस भरी अनुभूतियाँ ग्रहण करके चित्त को प्रफुल्लित बनाती है। संसार में उत्पादन, परिपुष्टि, विनाश का क्रम नितान्त स्वाभाविक है। मध्यवर्ती स्थिति में हर चीज तरुण और सुन्दर लगती है। क्या पुष्प क्या मनुष्य, हर किसी को तीनों स्थितियों में होकर गुजरना पड़ता है। मध्यकाल सौन्दर्य लगता है। वस्तुतः यह तीनों ही स्थितियाँ अपने क्रम, अपने स्थान और अपने समय पर सुन्दर हैं। पर आँखों को सुन्दर असुन्दर का भेद करके मध्य स्थिति को सुन्दर समझने की कुछ विचित्र विशेषता मिली है। फलस्वरूप जो कुछ उभरता हुआ विकसित परिपुष्ट दिखता है, सारे सुन्दर लगता है। सुन्दर असुन्दर का तात्त्विक दृष्टि से यहाँ कुछ भी अस्तित्व नहीं है, पर हमारी विचित्र आँखें ही हैं जो अपनी सौन्दर्यानुभूति वाली विशेषता के कारण हमारे दैनिक जीवन से सम्बन्धित समीपवर्ती वस्तुओं में से सौन्दर्य वाला भाग देखतीं, आनन्द अनुभव करतीं, उल्लसित और पुलकित होती हैं, चित्त को प्रसन्न करती हैं।

इसी प्रकार जननेन्द्रिय की प्रक्रिया है। प्रजनन मक्खी- मच्छरों, कीट- पतंगों, बीज- अंकुरों में भी चलता है। यह सृष्टि का सरल स्वाभाविक क्रम है। पर हमारी जननेन्द्रिय में कैसा अजीब उल्लास सराबोर कर दिया है कि सम्भोग के क्षण ही नहीं, उसकी कल्पना भी मन के कोने- कोने में सिहरन, पुलकन, उमंग और आतुरता भर देती है। तत्त्वतः बात कुछ भी नहीं है। दो शरीर के दो अवयवों का स्पर्श, इसमें क्या अनोखापन, क्या निरालापन, क्या उपलब्धि है? फिर स्पर्श का कुछ प्रभाव हो भी, तो उसकी कल्पना से किस प्रकार, क्यों, किस लिए चित्त को बेचैन करने वाली ललक पैदा होनी चाहिए? बात कुछ भी नहीं है। मात्र जननेन्द्रिय की बनावट में एक अजीब प्रकार की सरसता का समावेश मात्र है जो हमें सामान्य स्वाभाविक दाम्पत्य जीवन के वास्तविक या काल्पनिक प्रत्यक्ष और परोक्ष क्षेत्र में एक विचित्र प्रकार की रसानुभूति उत्पन्न करके जीने भर के लिए प्रयुक्त हो सकने वाले जीवन को निरन्तर उमंगों से भरता रहता है।

ऊपर जीभ, आँख और जननेन्द्रिय की चर्चा हुई। कान और नाक के बारे में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। यहाँ कान भाग वाला इन्द्रिय समूह अपने साथ रसानुभूति की विलक्षणता इसलिए धारण किए हुए है कि सरस, स्वाभाविक सामान्य जीवन क्रम ऐसे ही नीरस ढर्रे का जीने भर के लिए मिला हुआ प्रतीत न हो, वरन् उसमें हर घड़ी उत्साह, उल्लास, रस, आनन्द बना रहे और उसे उपलब्ध करते रहने के लिए जीवन की उपयोगिता, सार्थकता और सरसता का भान होता रहे। इन्द्रिय समूह हमें इसी प्रयोजन के लिए उपलब्ध हैं। यदि उनका उचित, संयमित, विवेकपूर्ण, व्यवस्था पूर्वक उपयोग किया जा सके तो हमारा भौतिक सांसारिक जीवन पग- पग पर सरसता, आनन्द उपलब्ध करता रह सकता है।

दूसरा उपकरण मन इसलिए मिला है कि संसार में जो कुछ चेतन है, उसके साथ अपनी चेतना का स्पर्श करके और भी ऊँचे स्तर की आनन्दानुभूति प्राप्त करे। इन्द्रियाँ जड़ शरीर से सम्बन्धित हैं। जड़ पदार्थों का स्पर्श करके उस संसर्ग का सुख लूटती हैं। जड़ का जड़ से स्पर्श भी कितना सुखद हो सकता है। इस विचित्रता का अनुभव हमें इन्द्रियों के माध्यम से होता है। चेतन का चेतन के साथ, जीवधारी का जीवधारी के साथ स्पर्श सम्पर्क होने से मित्रता, ममता, मोह, स्नेह, सद्भाव, घनिष्ठता, दया, करुणा, मुदिता जैसी अनुभूतियाँ होती हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में द्वेष, घृणा जैसे भाव भी पैदा होते हैं, पर उनका अस्तित्व है इसीलिए कि मित्रता के वातावरण में सम्पर्क संसर्ग का आनन्द बिखरता रहे। यदि अन्धकार न हो तो प्रकाश की विशेषता ही नष्ट हो जाय। वस्तुतः मन की बनावट दूसरों के सम्पर्क, सहयोग, स्नेह भावों के आदान- प्रदान का सुख प्राप्त करने में है। मेलों- ठेलों में, सभा- सम्मेलनों में जाने की इच्छा इसीलिए उठती है कि उन जनसंकुल स्थानों से व्यक्ति की घनिष्ठता न सही, समीपता का अदृश्य सुख तो अनायास मिलता ही है।

चूँकि इन्द्रिय सुख और जन सम्पर्क की घनिष्ठता में सहायक एक और नया माध्यम सभ्यता के विकास के साथ- साथ बनकर खड़ा हो गया है, इसलिए अब प्रिय वह भी लगने लगा है। इस तीसरे मनुष्यकृत आकर्षण तत्व का नाम है- धन। धन में स्वभावतः कोई आकर्षण नहीं। इसमें इन्द्रिय समूह या मन को पुलकित करने वाली कोई सीधी क्षमता नहीं है। धातु के सिक्के या कागज के टुकड़े भला आदमी के लिए प्रत्यक्ष क्यों आकर्षक हो सकते हैं? पर चूँकि वर्तमान समाज व्यवस्था के अनुसार धन के द्वारा इन्द्रिय सुख के साधन प्राप्त होते हैं, मैत्री भी सम्यक् होती है, इसलिए धन भी प्रकारान्तर रूप से मन का प्रिय विषय बन गया है। अस्तु, धन की गणना भी सुखदायक माध्यमों से जोड़ ली गई है।


तीन शरीरों को जीवात्मा धारण किए हुए है। तीनों की तीन रसानुभूतियाँ हैं। ऊपर दो की चर्चा हो चुकी। स्थूल शरीर की सरसता इन्द्रिय समूह के साथ जुड़ी हुई है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन जैसे सुख इन्द्रियों द्वारा ही मिलते हैं। सूक्ष्म शरीर का प्रतीक मन है। मन की सरसता मैत्री पर, जन सम्पर्क पर अवलम्बित है। परिवार मोह से लेकर समाज सम्बन्ध, नेतृत्व, सम्मिलन, उत्सव- आयोजन जैसे सम्पर्क परक अवसर मन को सुख देते हैं। घटित होने वाली घटनाओं को अपने ऊपर घटित होने की सूक्ष्म सम्वेदना उत्पन्न करके वह समाज की अनेक हलचलों से भी अपने को बाँध लेता है और उन घटनाक्रमों में खट्टी- मीठी अनुभूतियाँ उपलब्ध करता है। उपन्यास, सिनेमा, अख़बार, रेडियो आदि मन को इसी आधार पर आकर्षित करते और प्रिय लगते हैं।

तीसरा रसानुभूति उपकरण है- अन्तरात्मा। उसका कार्यक्षेत्र कारण शरीर है। उसमें उत्कृष्टता, उत्कर्ष, प्रगति, गौरव की प्रवृत्ति रहती है जो उच्च भावनाओं के माध्यम से चरितार्थ होती है। मनुष्यता की श्रेष्ठता और सन्मार्गगामिता प्रखर होती रहे, इसके लिए उसमें भी एक रसानुभूति विद्यमान है, उसका नाम है- वर्चस्व, यश, कामना, नेतृत्व, गौरव प्रदर्शन। उस आकांक्षा से प्रेरित होकर मनुष्य अगणित प्रकार की सफलताएँ प्राप्त करता है ताकि वह स्वयं दूसरों की तुलना में अपने आपको श्रेष्ठ, पुरुषार्थी, पराक्रमी, बुद्धिमान अनुभव करके सुख प्राप्त करे और दूसरे लोग भी उसकी विशेषताओं, विभूतियों से प्रभावित होकर उसे यश मान प्रदान करें।

कारण शरीर के साथ एक तथ्य यह और जुड़ा है कि यदि इसे सही दिशा न मिले और विकृति की ओर मुड़ जाय तो अहंता, बड़प्पन की ललक, उद्दण्डता के रूप में इसकी परिणति हो सकती है। श्रेष्ठता सहज है, मानवी गरिमा के अनुरूप है, परन्तु जन्म- जन्मान्तरों के कुसंस्कार जो मनुष्य के पल्ले बँधे रहते हैं, सतत संघर्ष हेतु उसे उत्तेजित करते हैं। उनके सामने माथा टेक देने वाले आत्मिक दृष्टि से उन्नति नहीं कर पाते, भ्रम में उलझकर अपनी दुर्गति और करा लेते हैं। कारण शरीर रसमय सम्वेदना का समुच्चय काया का एक अमूल्य उपकरण है। इसका सुनियोजन कर व्यक्ति देशभक्त, सुधारक, परमार्थपरायण, विभूतिवान बनता है। सत्प्रवृत्तियों के साथ सम्मान एवं यश तो सहज ही जुड़ा रहता है। ऐसे व्यक्ति छोटे- छोटे आकर्षणों एवं चाटुकारों की निन्दा से प्रभावित न होकर स्वयं को सन्मार्गगामी बनाए रखते हैं।

जब भी कभी प्रयत्न पुरुषार्थ के साथ उच्चस्तरीय प्रयोजन जुड़ जाते हैं तो यही कारण शरीर कलाकारिता, साहित्य, समाज सेवा, राष्ट्रभक्ति, दलितोत्थान, वैज्ञानिक शोध जैसे क्षेत्रों में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ पद पर पहुँचाकर रहता है। अभी तक हुए महामानवों ने इसी स्तर की साधना की है व दैवी अनुग्रह उन पर लोक सम्मान और जन सहयोग के रूप में बरसा है। यश न पचाने वालों ने अब तक विश्व में सारी दुरभिसन्धियाँ रची हैं। सारे षडयन्त्री कलह, द्वेष के मूल में अहं की विकृति ही मुख्य भूमिका निभाती है। इन सभी में वे सभी विशेषताएँ विद्यमान थीं जो उन्हें ऋषि, देवदूत स्तर तक पहुँचा सकती थीं। लेकिन जीवन का एक भटकाव, शरीर के इस उपकरण का विकृत मोड़ मनुष्य को उस श्रेष्ठता से वंचित कर देता है जिसका कि वह श्रेयाधिकारी आसानी से बन सकता था। मानव का यह विश्लेषण उस स्तर तक करना इस कारण अभीष्ट भी है कि अगणित व्यक्ति अपने जीवन प्रवाह के हिचकोलों के मूल कारण को समझ नहीं पाते।

संक्षेप में यह मनुष्य के तीन शरीरों की, तीन रसानुभूतियों की चर्चा हुई। हमारी अगणित योजनाएँ इच्छा, आकांक्षाएँ, गतिविधियाँ इन्हीं तीन मूल प्रवृत्तियों के इर्द गिर्द घूमती हैं। जो कुछ मनुष्य सोचता और करता है, उसे तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। भगवान ने यह तीन उपहार जीवन को सरसता से भरा पूरा रखने के लिए दिए हैं। साथ ही उनका अस्तित्व इसलिए भी है कि व्यक्ति निरन्तर सक्रिय बना रहे। इन सुखानुभूतियों को प्राप्त करने के लिए उसके तीनों शरीर निरन्तर जुटे रहें।






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