भवबन्धन और जीवनमुक्ति

विकास क्रम समस्त ब्रह्माण्ड के प्रत्येक क्षेत्र में गतिशील हो रहा है। जीव भी उस प्रक्रिया से अछूता नहीं है। जीवन का भी क्रमिक विकास हुआ है। यह तम, रज और सत् तीन रूपों में है और क्रमश एक- एक मंजिल ऊपर उठता चला जा रहा है। तम का अर्थ है जड़ता। जड़ सृष्टि को इसी वर्ग में गिनते हैं। जड़ पदार्थों में भी जीवन तो है, पर वह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा है। इससे कुछ ऊँची और अच्छी स्थिति सूक्ष्म जीवाणुओं की है। वे मिट्टी में मिले रहते हैं। हवा और पानी में गतिशील हैं। शरीर में जीवाणुओं की भरभार है। चूंकि इनमें इंद्रियाँ और मस्तिष्क नहीं है इसलिए उन्हें भी जड़ गिना जाता है। उससे थोड़ी और अच्छी स्थिति वृक्ष वनस्पतियों की है। यों उन्हें भी जड़ कहा गया है फिर भी उनमें जीवन प्रत्यक्ष लहलहा रहा है। यह सारा प्रसार, विस्तार जड़ जगत का है। पानी जड़ है; पर उसमें ओतप्रोत जीवन से विज्ञान क्षेत्र भली प्रकार परिचित है। पंच- तत्वों में से प्रत्येक में अपने- अपने ढंग की हलचल और चेतना विद्यमान है। इसे तमस् स्थिति में पड़ा हुआ अविकसित जीवन कह सकते हैं ।।

इससे अगली स्थिति ‘रजस्’ की है। जीवन के इस वर्ग में इन्द्रिय चेतना युक्त चल फिर सकने वाले प्राणी आते है। जलचर, नभचर वर्ग के असंख्यों जीवधारी इस श्रेणी में गिने जाते है। कीट- पतंग, पशु- पक्षी उद्भिज, श्वेदज, अंडज, जरायुज प्राणी इसी स्तर के है। इसमें उच्च वर्ग के प्राणी है जिन्हें सूक्ष्म जीवों की तरह अदृश्य कह सकते हैं। इनमें पितरों, देवात्माओं, जीवन मुक्तों, देवदूतों की गणना होती है। वे कभी शरीर धारण करते हैं, कभी अशरीरी रहते हैं। अशरीरी रह कर वे अपनी सूक्ष्म शक्ति से अधिक व्यापक क्षेत्र में अधिक महत्वपूर्ण कार्य कर सकते है। अधिक सत्पात्रों को अधिक उपयोगी एवं अधिक मात्रा में प्रेरणायें दे सकते है। किन्तु जब जन- साधारण को प्रत्यक्ष मार्गदर्शन करते हुए उन्हें साथ लेकर चलना होता है और कोई परम्परा स्थापित करनी होती है, तो शरीर धारण करके अवतारी देवदूतों की तरह काम करते है। वे कर्मफल भोगने के लिए विवश होकर जन्म मरण के चक्र में घूमने वाले प्राणियों की तरह शरीर धारण नही करते वरन् समय की आवश्यकता पूरी करने के लिए व्यक्ति और समाज को ऊँचा उठाने के विशेष प्रयोजन से जन्म लेते है और अपना उद्देश्य पूरा करके पुन: वापिस लौट जाते है।

तथ्य को और भी स्पष्ट रूप से समझना हो तो संक्षेप में उसे इस प्रकार जानना चाहिए कि पदार्थ की रचना तो पंच तत्वों, परमाणुओं एवं रासायनिक योगिकों की सहायता से हुई है। ऊर्जा विविध स्वरूप में उन्हें कई प्रकार की हलचलों के लिए प्रेरित कर रही है। चेतना के संबंध में बात दूसरी है। वह तम, रज और सत् इन तीन भागो में विभक्त है अथवा तीन स्थितियों में रह रही है। चेतना की प्रथम स्थिति है तम- जिसे जड़, निर्जीव कहा जाता है। जिसमें खनिज, वनस्पति एवं सूक्ष्मजीवी आते हैं। बोध के अविकसित स्थिति में होने के कारण ही उन्हें जड़ वर्ग का ठहराया गया है। चेतना की दूसरी स्थिति है ‘रज’ अर्थात् विकसित जागरुकता मन प्रधान प्रेरणा। उपलब्धियों के लिए आतुर सक्रियता। उसे अहंता, संचय और उपभोग के तीन रूपों में काम करते हुए देखा जा सकता है। शास्त्रकारों ने इसे अहंकार, तृष्णा और वासना में निरूपित किया हैं। विकसित कहे जाने वाले प्राणियों के विविध क्रिया- कलापों के प्रेरणा स्रोत यही तीन है। इन्हें मनोवैज्ञानिकों ने जीव की मूलभूत प्रवृति कहा है और उनका न्यूनाधिक विभाजनों के साथ वर्णन किया है। इस स्तर के प्राणियों को शास्त्रकार जीवित कहते है। इनका चिन्तन और कर्तृत्व रजस् स्तर का कहा जाता है। इससे ऊँची सत् तत्व में विकसित चेतना है। इसे शरीरधारी और इससे ऊँची सत् तत्व में विकसित चेतना है। इसे शरीरधारी और अशरीरी दोनों रूपों में देखा जा सकता है। आत्मशोधन में एवं ब्रह्मवर्चस की साधना में संलग्न ब्राह्मण और इससे आगे परिपक्व स्थिति में पहुँचे हुए साधु कहलाते है। ब्राह्मण परिवार बना कर रहते है और ज्ञान संवर्धन की सेवा में संलग्न रहते हैं। साधु पके फल की तरह परिवार भर के उत्तरदायित्वों से छुटकारा पाकर विश्व नागरिकों में सम्मिलित हो जाते हैं ।। उनका अपनापन असीम हो जाता है। व्यापक लोकहित को महत्त्व देते है और ऊँचा उठाने वाली प्रेरणाएँ देने की पुण्य- प्रक्रिया में संलग्न रहते हैं। उनकी गतिविधियाँ बादलों जैसी परिव्राजक स्तर की रहती हैं। वे सर्वत्र बरसते हैं। कही भी मोह बन्धन में नहीं बँधते। इन्हें महात्मा कह सकते है। महामानव, सन्त, सुधारक, शहीद तत्त्वदर्शी, युगदृष्टा, मनीषी आदि विशेषणों से इन शरीरधारी देवताओं को पहचाना जाता है। इन्हें भूसुर अर्थात् पृथ्वी के देवता भी कहते हैं।

स्थूल जगत की तरह सूक्ष्म जगत में भी तम और सत् की स्थिति रहती है। वहाँ भी आसुरी और दैवी सत्ता ताने- बाने की तरह, जीवन मरण की तरह, रात- दिन की तरह, धूप- छाँह की तरह काम करती है। अपनी दुनियाँ में सुख- दुख, पाप- पुण्य की परस्पर विरोधी गतिविधियाँ चलती है। सूक्ष्म जगत में भी दैवी और आसुरी सतोगुणी और तमोगुणी तत्व काम करते हैं। वहाँ भी देवासुर संग्राम मचा रहता है। अशरीरी आत्माओं में भी दुष्ट प्रवृति पाई जाती है। वे भी देवताओं की तरह ही अपने स्वभाव के अनुरूप काम करती हैं और दुष्ट संभावनाएँ साकार करने में लगी रहती हैं। दुष्कर्मों में भी कई बार बढ़ी- चढ़ी सफलता मिल जाती है। इनमें अशरीरी आसुरी तत्वों का योगदान रहता है। साधना विज्ञान में दैवी और आसुरी दोनों प्रकार के विधान हैं। दैवी स्तर की उपासना दक्षिण मार्गी कहलाती है उससे साधक में सत् तत्वों की वृद्धि होती है और देव अनुग्रह उपलब्ध होता है। इसके प्रतिपक्षी तन्त्रोक्त वाम मार्ग द्वारा आसुरी शक्तियों से भी संपर्क साधा जा सकता है। उनके सहयोग से मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण जैसे क्रूर कर्म किये जा सकते हैं।

चेतना का उच्च स्तर अशरीरी किन्तु सुविकसित होता है उसमें देव और असुर दोनों प्रकृति के हो सकते है। यह उभयपक्षी स्थिति तो रज और तम में भी होती है। रजस् स्तर के प्राणियों में गाय जैसे दयालु और व्याघ्र जैसे हिंसक पशु मौजूद हैं। हंस और काक का भेद इसी प्रकार का है। सर्प और नेवला की भिन्नता स्पष्ट है। शरीर के भीतर विघातक विषाणु भी पाये जाते है और जीवन रक्षा के प्रहरी श्वेत रक्त कण भी अपना काम करते है। जड़ पदार्थ में प्राणघातक विषों की भी कमी नहीं और अमृतोपम औषधियाँ भी प्रचुर परिमाण में मौजूद है। अग्नि जैसे दाहक और हिम जैसे शीतल पदार्थों में परस्पर विरोधी प्रकृति काम करती पाई जाती है। चेतना के तम, रज और सत् स्तरों में से प्रत्येक को शुभ- अशुभ के दो- दो भागो बाँटा जाय तो स्पष्ट ही वे छ: की संख्या में हो जाते हैं ।।

यहाँ लगे हाथों अद्वैत, और त्रैत का अन्तर भी समझ लेना चाहिए। सृष्टि के मूल में एक ही तत्व है चेतना। वैज्ञानिक विकास के साथ अब प्रकृति की नई परतें खुली हैं और किसी समय जो पदार्थ की मूलभूत ईकाई परमाणु समझी जाती थी, अब वह मान्यता वापिस ले ली गई है। परमाणु भी अनेक घटकों का सम्मिश्रित पिण्ड बन गया है। उन घटकों का शवच्छेद करने पर वे स्वयं समाप्त हो जाते है और उनके मूल में ऊर्जा रह जाती है। इसे ‘क्वांटा’ कहते है। अब पदार्थ की मूल इकाई परमाणु नहीं है वरन् प्रकृतिगत हलचलों के लिए उत्तरदायी व्यापक ऊर्जा है, अब यही प्रकृति है और इसी का नाम क्वांटा है।

क्वांटा अचेतन है या चेतन? इस प्रश्न का समाधान अब वैज्ञानिक क्षेत्र ही इस तरह करने जा रहे है जिस तरह अध्यात्म द्वारा प्रतिपादित किया जाता रहा है। ‘इकॉलाजी’ के सिद्धांतानुसार प्रकृति की, पदार्थों की समस्त हलचलें एक दूसरे की पूरक है। पारस्परिक हित साधन, सहयोग और संतुलन की रीति- नीति ठीक इसी प्रकार चल रही है मानों किसी सुव्यवस्थित शासन ने अपनी प्रजा को बिना टकराये स्नेह सहयोग पूर्वक रहने का विधान बना रखा हो। गृहपति अपने परिवार की व्यवस्था करता है। जीवात्मा अपने शरीर के अवयवों और जीवाणुओं को घड़ी के कलपुर्जों की तरह सहयोगी बनाये हुए है। मनुष्य की गन्दी सांस को वनस्पति खाती है और वनस्पतियों द्वारा छोड़ी सांस को मनुष्य खाते है। भूमि की उर्वरता पौधों को उगाती है और पौधे सूख कर खाद बनते और भूमि को उर्वरता लौटाते हैं। समुद्र, बादल, वर्षा, नदी और फिर समुद्र के क्रम से जल राशि का भ्रमण चक्र चलता रहता है। ग्रह नक्षत्र आपस में टकराते नही वरन् अपनी- अपनी कक्षाओं में शान्तिपूर्वक भ्रमण करते है। वे एक दूसरे के साथ छेड़खानी नहीं करते वरन् स्नेह सहयोग भरा आदान- प्रदान करते है। दुर्बल प्राणियों का प्रजनन अधिक और समर्थों का स्वल्प होना प्रकृति की विवेकशील द्योतक है। जब भी अवांछनीय परिस्थिति बढ़ती हैं तो उनकी विरोधी प्रतिक्रिया होती है और उस तूफान द्वारा फिर से वातावरण स्वच्छ हो जाता है। अवतारों का दृश्य, अवतरण इसी सृष्टि सन्तुलन के लिए होता रहता है। ‘इकालाजी’ विज्ञान की जितनी गहरी परतें खुलती जा रही है उसी अनुपात से यह स्पष्ट होता जाता है कि प्रकृति अन्धी नहीं वरन् अत्यन्त दूरदर्शी, विवेकशील एवं क्रिया- कुशलता से सुसम्पन्न है। इसका अर्थ हुआ प्रकृति को चेतना युक्त होने की मान्यता मिलना। विश्वास किया जाना चाहिए कि अगले दिनों ‘क्वांटा’ भी मर जायगा और इसके स्थान पर सृष्टि का उद्गम स्रोत ‘चेतना प्रवाह’ घोषित कर दिया जायगा। विभिन्न पदार्थ और प्राणी उसी चेतना समुद्र की लहरें ठहराये जायेंगे और सर्वत्र एक ही परमेश्वर संव्याप्त होने की बात स्वीकार की जायगी। हमें धैर्य रखना चाहिए और विश्वास करना चाहिए कि शोध में निरत विज्ञान भी अध्यात्म के स्वर में स्वर मिला कर एक ही तथ्य का प्रतिपादन कर रहा होगा- ‘ईशावास्य मिद’ सर्व यत्किंचित जगत्याँ जगत्’ यहाँ सर्वत्र ईश्वर संव्याप्त है। ‘सर्व खलु इदं ब्रह्म’ का वेदान्त उद्घोष अगले ही दिनों विज्ञान की कसौटी पर भी सत्य और तथ्य सिद्ध होकर रहेगा।

वैज्ञानिकों की दृष्टि से परमाणुओं का अन्धड़ तूफान ही यह संसार है। रेगिस्तान में आँधी आने पर यहाँ की रेत वहाँ उड़कर जा पहुँचती है और रेत के टीले इधर से उधर उखड़ते जमते रहते हैं। बादलों की कई तरह की आकृतियां बनती बिगड़ती रहती हैं। इसी प्रकार परमाणुओं के अन्धड में तरह- तरह के पदार्थ, प्रणियों के शरीर बनते बिगड़ते रहते है। मूलसत्ता अणु प्रवाह है। प्राणियों की मस्तिष्कीय संरचना एवं परमाणुओं की भगदड़ का सम्मिश्रित स्वरूप ही यह संसार है, जिसमें हम रहते और तरह- तरह के अनुभव करते है। हर प्राणी की दुनियाँ उसके चेतना स्तर के अनुरूप एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है। मेढ़क इस संसार को जिस दृष्टि से देखता है, जैसा सोचता अनुभव करता है, इन्द्रियों की सहायता से उपभोग सामग्री तथा परिस्थिति में से जिस प्रकार की अनुभूति पाता है, वह मनुष्य की अनुभूतियों से सर्वथा भिन्न प्रकार की है। दोनों के बीच जमीन आसमान जितना अन्तर हो सकता है। ऐसी दशा में संसार का वास्तविक रूप क्या हो सकता है? यह निर्णय कर सकना सर्वथा असम्भव है। एक ही खाद्य पदार्थ का विभिन्न प्राणी विभिन्न प्रकार का स्वाद लेते हैं, तो किसी पदार्थ का मूल स्वाद कैसे घोषित किया जाय? जब एक ही दृश्य से अनेकों प्रकार के निष्कर्ष निकाले जाते हैं तो उनकी वास्तविकता किस आधार पर निरूपित की जाय? इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए वेदान्त में इस संसार को माया- मिथ्या आदि नामों से पुकारा है।

ब्रह्म को सत् कहा गया है, प्रकृति उसकी स्फुरणा है। एक को चेतन दूसरे को जड़ कहा गया है। दोनों के मिलन से पदार्थ में हलचल और प्राणियों में चिन्तन चलता है। सृष्टि के मूलतत्व ब्रह्म को सत् कहा गया है और उसके आवरण, उपकरण को प्रकृति एवं तमस् कहते है। इस प्रकार प्रकृति और पुरुष की दो सत्ताए बनती है और इन्हें सत् एवं तम् की तात्विक स्थिति कह सकते हैं। यह द्वैत कहलाया। वस्तुत: इस संसार में जड़ चेतना, प्रकृति- पुरुष, प्रकाश- अन्धकार, सर्दी- गर्मी, जल- थल की तरह दो ही बड़े तथ्य है। अकेला ब्रह्म होता तो वह अपने आप तक ही सीमित रहता। अकेली प्रकृति होती तो सब कुछ निस्तब्ध नीरस, निष्प्राण होने के कारण अविकसित एवं भयावह स्थिति में बना रहता। चमत्कार तो मिलन से हुआ है। दो के मिलने से तीसरी वस्तु बनती है इसे हर कोई जानता है। दिन और रात की मिलन बेला को संध्या काल कहते है। नीला और पीला रंग मिलाकर हरा बनता है। दो गैसैं मिलने से पानी बन जाता है। आग और पानी के मिलने से भाप बनती है। जड़ और चेतन का मिलन ही ‘जीव’ है। त्रैतवाद में ईश्वर प्रकृति और जीव की तीन सत्ताएँ मानी गयी है। जीव एक सम्मिश्रण है। मुक्ति की स्थिति में माया हट जाती है और जीव अपने शुद्ध स्वरूप परमेश्वर में जा मिलता है, इस प्रकार उसकी द्विधा स्थिति का अन्त हो जाता है। माचिस में आग लगती है तो लौ उठती है। तीली समाप्त हो जाती है और व्यापक अग्नि तत्व में जा मिलती है। जड़ और चेतन के सम्मिश्रण से बँधी हुई एक अहंता ग्रन्थि को जीव कहते है। अहम् का तात्पर्य जड़ शरीर एवं भौतिक साधनों सहित चेतना की आत्म मान्यता होती है। इसी जकड़न को भव बन्धन कहते है। आत्मा और प्रकृति की भिन्नता की अनुभूति यदि अन्त:करण को हो सके, तो आत्म- ज्ञान का, ब्रह्मज्ञान का उद्देश्य पूरा हो जायगा। इसी अनुभूति को भूमा, ऋतम्भरा, प्रज्ञा, तुरियावस्था, समाधि, ईश्वर प्राप्ति, जीवन मुक्ति आदि के नाम से जाना जाता है।

प्रगति का क्रम नीचे से ऊपर की ओर है। तमस् से रज, रज से सत् की ओर जीवन बढ़ता है। यहीं उचित है और यही शोभनीय। जीव इसी क्रम को अपनाये रहे तो उसकी प्रशंसा है। निम्न योनियों में से प्रगति करते- करते जीव को मनुष्य स्थिति में आने का सौभाग्य मिल गया है। अब प्रतिष्ठा इसी में हैं कि आगे बढ़ा जाये तो जीवात्मा भर न रह कर महात्मा, देवात्मा और अनन्त परमात्मा बनने का चरम लक्ष्य प्राप्त किया जाय।







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