कर्मफल की स्वसंचालित प्रक्रिया

क्रिया की प्रतिक्रिया का नियम शाश्वत है। इसे सर्वत्र देखा और अनुभव किया जा सकता है। क्रियाओं के जैसे बीज होगे वैसे ही फल परिणाम के रूप में सामने आयेंगे। गेहूँ का बीज गलकर अपने अदृश्य असंख्यों बीज पैदा करता है। आम का बीज गलकर आम ही पैदा करता है। नीम का बीज गलता है तो नीम का वृक्ष ही पैदा करता है। गेहूँ के बीज से नीम का वृक्ष पनपे ऐसा न तो देखा गया और न ही सुना गया। प्रकृति के उपवन में कर्मफल व्यवस्था के उदाहरण सर्वत्र देखे जाते है।

दैनन्दिन जीवन में भी इसके प्रमाण मिलते हैं। अपवादों को छोड़कर बिना कोई पढ़े विद्वान बन गया हो ऐसा देखा नहीं जाता। बिना नियमित निर्धारित समय तक अध्ययन किये किसी को विशिष्ट डिग्री मिल गयी हो यह सामान्य क्रम में नहीं होता। डाक्टर, इंजीनियर, वकील, वैज्ञानिक बनने के लिए नियत समय तक निर्धारित पाठ्यक्रम पढ़ना और उसमें उत्तीर्ण होना पड़ता है। विद्यार्थी को अभीष्ट प्रकार की योग्यता सम्पादन के लिए पूरे धैर्य का परिचय देना होता तथा परिश्रम की कीमत चुकानी पड़ती है।

माली मन चाहे पुष्पों के लिए उनके पौध लगाता, तत्काल बिना किसी प्रकार के प्रतिदान की अपेक्षा किये उन्हें सींचता रहता है, निराई गुड़ाई करता है। किसान भी इसी प्रकार के मनोयोग, धैर्य का परिचय देता है। फल पाने की उतावली उनमें नहीं होती क्योंकि उन्हें यह मालूम होता है कि समय के परिपाक पर फल मिलेगा ही। कर्मों का सुनिश्चित फल एक अकाट्य नियम है जिसे कुछ बातों में स्पष्ट देखा जा सकता है।

पर कुछ मानवी कृत्य ऐसे होते हैं जिनका तत्काल फल नहीं मिलता। भले कर्मों के सुनिश्चित परिणाम होते हुए भी तुरन्त मिलते न देखकर कितने ही व्यक्ति उस शाश्वत व्यवस्था पर उँगली उठाते, संदेह करते है जिसे कर्मफल सिद्धान्त के रूप में जाना जाता है। कितने व्यक्ति तो सृष्टा तथा उसकी नियम व्यवस्था पर भी आशंका व्यक्त करने लगते हैं। उन्हें यह बात भली भाँति जानना चाहिए कि भगवान किसी को न तो दण्ड देता है और न पुरस्कार। वह केवल विधि व्यवस्था का विधायक और नियन्ता मात्र है। सृष्टि की क्रमबद्धता और समस्वरता को बनाये रखने भर का ध्यान रखता है। व्यक्तिगत जीवन में उसका हस्तक्षेप नहीं के बराबर है। हर किसी को उसने यह पूरी आजादी दी है कि जो चाहे जिस तरह सोचे या करे। साथ ही विवेक का अनुदान देकर यह भी स्पष्ट कर दिया है कि चिन्तन कर्तृत्व का स्तर ही उसके सामने दण्ड पुरस्कार के रूप में सामने आयेगा। स्वतन्त्रता दिशा अपनाने भर की है। पर जो कँटीले मार्ग पर चलेगा वह चुभन से बच न सकेगा यह तथ्य भी पूरी तरह स्पष्ट कर दिया गया। धर्मशास्त्र, तत्व दर्शन और प्रमाण उदाहरणों से भरा इतिहास इसी यथार्थता का पग- पग पर प्रतिपादन करते रहे हैं।

घृणित कर्म करने वाले आप ही अपने को दण्ड देते हैं और सन्मार्ग पर चलने वाले अपनी गतिविधियों के कारण स्वयं ही पुरस्कृत होते हैं। शृंखला अपनी गति से चल रही है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कुमार्ग पर चलने वाले सुख शान्ति से रहे और सन्मार्ग अपनाने वालों को दु:ख दारिद्रय से ग्रसित होना पड़े। यदि ऐसा होता तो यहाँ उचित अनुचित के बीच कोई भेद ही न रह जाता और कोई कुकर्म से बचने एवं सत्कर्म अपनाने के लिए तैयार ही न होता। अधर्म का तात्कालिक आकर्षण यदि चिरस्थायी लाभ दे सका होता और उसके दुष्परिणामों की कोई आशंका न होती तो कदाचित् ही कोई उस कष्ट साध्य प्रतीत होने वाली प्रक्रिया को अपनाता।

ईश्वर ने मनुष्य को जितना स्वावलम्बी बनाया है उतना ही परावलम्बी भी। सर्वत्र स्वतन्त्र मनुष्य नहीं, ईश्वर ही है। ईश्वर इसलिए स्वतन्त्र है कि उसने नियम व्यवस्था बनाई है और उसने सर्वप्रथम अपने को बाँधा है। जहाँ विश्व का कण- कण किसी विधान से बँधा है उसी प्रकार ईश्वर भी मर्यादा पुरुषोत्तम है। मर्यादाऐं टूटने न पायें, उन्हें तोड़ने का कोई दुस्साहस न करे इसलिए उसने अपने को भी प्रतिबन्धित किया है। पात्रता की मर्यादा से अधिक अनुदान किसी को नहीं मिलते। कर्मफल की मर्यादा का उल्लंघन करके वह न तो किसी को क्षमा प्रदान करता है और न किसी को भक्त- अभक्त होने के नाम पर राग, द्वेष की नीति अपनाता है। न्याय और निष्पक्षता की रक्षा उसके लिए प्रधान है। बिजली मनुष्य की बहुत सेवा सहायता करती है पर करती तभी तक है जब तक उसे विधि पूर्वक प्रयुक्त किया जाता है। अविधिपूर्वक व्यवहार करने पर यज्ञाग्नि भी होता को जला सकती है। प्रचुर खर्च करके बिजली के यन्त्रों को सुसज्जा एवं मनोयोग पूर्वक लगाने वाले भी यदि प्रयोगों में प्रमाद बरतें तो वह प्रतिष्ठापित विद्युत यन्त्र प्रयोक्ता के प्राण लिये बिना न छोड़ेंगे। ईश्वर को कर्मफल शृंखला में अग्नि या विद्युत के समतुल्य माना जाय तो उसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी।

कर्मफल तत्काल मिले ऐसी विधि व्यवस्था इस संसार में नहीं है। क्रिया और प्रतिक्रिया के बीच कुछ समय का अन्तराल रहता है। बीज बोते ही फल- फूलों से लदा वृक्ष सामने प्रस्तुत नहीं होता। गर्भाधान के अगले क्षण ही प्रसव नहीं होता और प्रसव के उपरान्त तत्काल नवजात शिशु किशोर या प्रौढ़ नहीं बन जाता। अभिभावकों को उसके लिए धैर्य रखना होता है। बीज का फल वृक्ष और गर्भाधान का फल समर्थ सन्तान होता है यह सही है, पर यह भी सही है कि आरम्भ और परिणाम के बीच कुछ अन्तर अवश्य रहता है। हथेली पर सरसों बाजीगर ही जमा सकते हैं। किसान को उसके लिए छः महीने तक साधना और प्रतीक्षा करनी पड़ती है। गाय के पेट में घास जाकर दूध में बदलती है इसे कौन नहीं जानता पर यह लाभ धैर्यपूर्वक ही उठाया जा सकता है। कोल्हू से तेल निकलने की तरह गाय को एक ओर घास खिलाने और दूसरी ओर दूध पाने की आशा की जाय तो सफलता न मिलेगी। ठीक इसी प्रकार कर्म को फल रूप में परिवर्तित होने की प्रक्रिया कुछ समय चाहती है।

जन्मजात अपंग, बाधित, असमर्थ, रुग्ण व्यक्तियों को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि उद्धत आचरण करने वालों के प्रगति साधनों का प्रकृति ने किस प्रकार अपहरण कर लिया। बन्दूक का दुरुपयोग करने वालों का लाइसेन्स जब्त हो जाता है, इसी प्रकार मोटर चलाने में प्रमाद बरतने वालों का लाइसेन्स छिन जाता है। अपराधियों को न्यायालय में समाज से पृथक रहने का यातनापूर्ण कारावास मिलता है और उनके नागरिक अधिकार छिन जाते हैं। जन्मजात बाधितों को देखकर हम अनुमान लगा सकते हैं कि मिली हुई कर्म स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करने वालों से प्रकृति किस प्रकार प्रतिशोध लेती है।

सुविधाजनक प्रगतिशील वातावरण में सुसंस्कारी परिवार में जन्म होना पूर्वकृत सत्कर्मों का फल कहा जा सकता है। दुर्भागी व्यक्ति कुसंस्कारी परिस्थितियों में जन्म लेकर असुविधाजनक अड़चन भरे वातावरण में रहते हैं और प्रगति पथ पर बढ़ने में भारी अड़चन अनुभव करते हैं। इस विभेद के पीछे पूर्व जन्मों में संग्रहीत शुभ- अशुभ कर्म के परिणाम झाँकते देख सकते हैं। यों इन अड़चन भरी परिस्थितियों में भी सत्कर्म करने की, आगे बढ़ने की स्वतन्त्रता अक्षुण्ण रहती है और कोई चाहे तो नियत अवरोधों को सहन करते हुए भी आगे बढ़ने, ऊँचे उठने में सफल हो सकता है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं, जिनमें अन्धे, अपंग, मूक, बधिर जैसी विषमताओं से ग्रसित लोगों ने इतनी उन्नति कर ली जिसे देखकर सर्व सुविधा सम्पन्न व्यक्तियों को भी आश्चर्यचकित रह जाना पड़ा।

यदि इस संसार में ऐसी व्यवस्था रही होती कि तत्काल कर्मफल मिला करता तो फिर मानवी विवेक एवं चेतना की दूरदर्शिता की विशेषता कुण्ठित अवरुद्ध हो जाती। यदि झूठ बोलते ही जीभ में छाले पड़ जायें, चोरी करते ही हाथ में दर्द उठ खड़ा हो, व्यभिचार करते ही बुखार आ जाय, छल करने वाले को लकवा मार जाय तो फिर किसी के लिए भी दुष्कर्म कर सकना सम्भव न होता। एक ही निर्जीव रास्ता चलने के लिए शेष रह जाता। ऐसी दशा में स्वतन्त्र चेतना का उपयोग करने की, भले और बुरे में से एक को चुनने की विचारशीलता नष्ट हो जाती और विवेचना, ऊहापोह का बुद्धि प्रयोग सम्भव न रहता। तब दूरदर्शिता और विवेकशीलता की क्या आवश्यकता रहती और इसके अभाव में मनुष्य की सर्वतोमुखी प्रतिभा का कोई उपयोग ही न हो पाता। बुरे कार्य के दुष्परिणाम और भले कार्य के सत्परिणाम समझने के लिए अंतःप्रेरणा, अध्यात्म तत्त्वदर्शन, धर्म विज्ञान, नीति सदाचरण, श्रेय साधना का जो उपयोगी एवं आकर्षक सतोगुणी धर्म कलेवर खड़ा किया गया है उसकी कुछ आवश्यकता ही न रहती। सब कुछ नीरस हो जाता यहाँ जो कौतुक कौतूहल दीख रहा है, बहुरंगी, कटु- मधुर अभिव्यंजनाएँ सामने आ रही है उनमें कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर न होता। इन परिस्थितियों में और कुछ लाभ भले ही होता, मनुष्य की वह चेतनात्मक प्रतिभा कुण्ठित ही रह जाती जिसके कारण प्रगति पथ पर इतना आगे तक चल सकता सम्भव हो सका है।

कर्म का फल शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक दृष्टि से कुछ विलम्ब से भी मिल सकता है पर आन्तरिक दृष्टि से तुरन्त तत्काल मिलता है। सद्भावनायें धारण करने वाला अन्तःकरण अपने आप में अत्यधिक प्रफुल्लित रहता है। सुगन्ध विक्रेता बिना प्रयास किए निरन्तर उस महक का लाभ उठाता रहता है जिसके लिए दूसरे लोग तरसते ललचाते रहते हैं। सत्कर्म का सबसे बहुमूल्य लाभ आत्म- संतोष है जिसे प्राप्त करने में तनिक भी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। सन्मार्ग पर चलने वाले का अन्तरात्मा अपने आप को प्रोत्साहन भरा आशीर्वाद देता रहता है। इस आधार पर बढ़ता हुआ आत्मबल मनुष्य की वास्तविक शक्ति को इतना अधिक बढ़ा देता है जिसकी तुलना उपनिषद्कार की उक्ति के अनुसार हजार हाथियों के बल से भी नहीं की जा सकती।

सद्भाव सम्पन्न सन्मार्गगामी का कोई स्वार्थवश कितना ही विरोध क्यों न हो पर भीतर ही भीतर उसके लिए गहन श्रद्धा धारण किये रहेगा। महात्मा गाँधी पर आक्रमण करने वाले गोड्से ने गोली दागने से पूर्व उनके चरण स्पर्श करके प्रणाम किया था। ईसा मसीह को क्रूस पर चढ़ाने वाले लोग आँसुओं की धार से अपनी श्रद्धाञ्जलि चढ़ा रहे थे। सुकरात को विष पिलाने वाले जल्लाद ने आत्म प्रताड़ना से अपना माथा पीट लिया था।

महामानवों के पास भौतिक सम्पदायें भले ही न रही हो पर उनकी चरित्र निष्ठा, आदर्शवादिता और उदारता की पूँजी इतनी प्रचुर मात्रा में उन्हें विभूतिवान बनाये रही है और वह वैभव इतना बढ़ा रहा है जिसके ऊपर धन कुबेरों की सम्पन्नता को न्यौछावर किया जा सके। ऋषियों के चरणों में राजमुकुट रखे देखकर यह समझा जा सकता है कि सन्मार्गगामी सर्वथा निर्धन नहीं होते, उनके पास अपने ढंग की ऐसी सम्पदा होती है जिसे पाकर मानव जीवन को सब प्रकार सार्थक एवं धन्य हुआ माना जा सके।

भौतिक विज्ञानियों ने एक स्वर से स्वीकार किया है कि शारीरिक स्वास्थ्य का आधार मात्र पौष्टिक आहार एवं व्यायाम नहीं है वरन् मनःक्षेत्र की समस्वरता पर आरोग्य एवं दीर्घ जीवन की नींव रखी हुई है। इसी प्रकार मस्तिष्कीय रोगों के विशेषज्ञ यह कहते हैं कि अधिक मानसिक श्रम करने आदि के कारण वे रोग उत्पन्न नहीं होते वरन् छल, प्रपंच, क्रूर दुराचरण जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ ही मनःसंस्थान में अन्तर्द्वन्द्व मचाती हैं और उन्हीं के फलस्वरूप अनिद्रा एवं सनक से लेकर उन्माद जैसे रोग अपने विभिन्न आकार- प्रकार में उठ खड़े होते है। कोई समय था जब वात, पित्त, कफ़, आहार- विहार कृमि कीटाणु, छूत संक्रमण, ऋतु प्रभाव, गृहदशा, भाग्य प्रारब्ध आदि को विभिन्न रोगों का कारण माना जाता था। वे बातें पुरानी हो गई। मनःशास्त्र के विज्ञानी अब उस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि अनैतिक, असामाजिक और अवांछनीय चिन्तन से, इस प्रकार की घुटन से भरा आन्तरिक विग्रह उत्पन्न होता है जो ज्ञान तन्तुओं के माध्यम से अपने विद्रोह की कोशिकाओं तक पहुँच कर उन्हें रुग्ण कर देता है। इस मानसिक विद्रोह को शान्त करने के लिए अपनी रीति- नीति को सन्मार्गगामी बना लेना ही रोग निवृत्ति का एक मात्र उपाय है। इस आधार पर मनोविज्ञान वेत्ता रोगियों से उनकी भूलें कबूल कराते हैं पश्चाताप और परिवर्तन के संकल्प कराते हैं तदनुसार रोग निवृत्ति का लाभ भी मिलता है।

भारतीय धर्म शास्त्र आधि और व्याधि का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध मानता रहा है। आधि अर्थात् मनःक्षेत्र की दुष्प्रवृत्तियाँ जिस व्यक्ति में भरी होंगी वह शरीर और मस्तिष्क के रोगों से ग्रसित होता चला जायेगा और वे रोग मात्र औषधि चिकित्सा से कदापि अच्छे न हो सकेंगे। कष्टसाध्य रोगों की एक श्रेणी कर्मजन्य भी होती है। उन्हें अंतःक्षेत्र में जमी हुई दुर्भावनाओं की प्रतिक्रिया ही कह सकते हैं। इन्हें पश्चाताप और प्रायश्चित द्वारा उखाड़ने का विधान है। असाध्य महारोगों के लिए यह प्रायश्चित्त चिकित्सा प्राचीन अध्यात्मविज्ञान और भौतिक मनोविज्ञान के आधार पर समान रूप से उपयुक्त मानी गई है। मन की निर्मलता से बढ़कर शारीरिक रोगों की निवृत्ति का और कोई कारगर उपाय नहीं है।

निश्चित रूप से मनुष्य एक स्वसंचालित यन्त्र है जो कर्म करने में स्वतन्त्र होते हुए परिणाम भोगने की शृंखला में मजबूती के साथ जकड़ा हुआ है। यदि हम सद्भावनाओं का, सत्प्रवृत्तियों का चिन्तन और कर्तृत्व अपनायें तो सहज ही सुख- शान्ति की परिस्थितियाँ प्राप्त कर सकते हैं। इसके प्रतिकूल चलना अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने की तरह है। सुख और दुःख ईश्वर प्रदत्त दण्ड पुरस्कार नहीं वरन् अपने ही सत्कर्म- दुष्कर्म के प्रतिफल हैं।







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