साधना से सिद्धि का सिद्धान्त और स्वरूप

सामान्य जन अनेकानेक क्षुद्र योनियों के कुसंस्कारों से लदे होते हैं। शिश्नोदर परायण पशु प्रदर्शन में ही उनका मन रमता और प्रयत्न चलता है। इस क्षेत्र से उठकर मानवी गरिमा के क्षेत्र में प्रवेश करने की प्रक्रिया अध्यात्म तत्त्वज्ञान और साधना विधान के सहारे ही सम्भव होती है। उसका आलोक अन्तराल में प्रवेश करता है तो पुण्य- परमार्थ की प्रवृत्तियाँ उभरती हैं। पुण्य अर्थात् आत्मसंयम, परमार्थ अर्थात् सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन में उत्साह। इन्हीं के समन्वय को देवत्व कहते हैं। महामानवों का यही कार्यक्षेत्र है। उसकी विचारणा एवं तत्परता इन्हीं दो प्रयोजनों पर केन्द्रित होती है, फलतः वे स्वयं कृतकृत्य होते हैं और अपने सम्पर्क क्षेत्र में शालीनता का वातावरण उत्पन्न करने में चन्दन वृक्ष का उदाहरण बनते हैं। यह अध्यात्म क्षेत्र ही देवमानवों की, नर- रत्नों की खदान है। इस विद्या का जब जितना प्रचलन- विस्तरण होता है, तब उसी अनुपात से वैयक्तिक प्रखरता और सामूहिक समर्थता की अभिवृद्धि होती है। सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त होता है। चेतना में उत्कृष्टता का स्तर बढ़ने से स्वल्प साधनों को मिल- बाँटकर खाया और सन्तोष पूर्वक रहा जा सकता है, जबकि इसकी कमी पड़ने पर लोग आपस में टकराते और नारकीय दुष्प्रवृत्तियों से सर्वत्र अशान्ति उत्पन्न करते हैं, भले ही सम्पदा के पर्वत इर्द- गिर्द ही क्यों न खड़े रहें।

इन तथ्यों पर ध्यान देने से अध्यात्म तत्त्वज्ञान और साधना विधान की व्यावहारिक गरिमा प्रकट होती है। यह प्रतिफल ऐसे हैं जिन्हें अपनाए जाने पर मनुष्य में देवत्व का उदय होना निश्चित है। जहाँ सज्जनता बढ़ेगी वहाँ अपनी इसी धरती पर स्वर्ग जैसा वातावरण बिखरा- बिखरा फिरेगा। यही है अध्यात्म की विभूतिवान परिणति, जिसके लिए उसे विचारशीलों द्वारा असाधारण महत्त्व दिया गया है और उसके माहात्म्यों का वर्णन आलंकारिक आकर्षणों सहित व्यक्त किया गया है।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि चेतना को नरक से उबारकर स्वर्ग में पहुँचाने वाली इस विद्या को जादूगरी- बाजीगरी की पंक्ति मे बिठा दिया गया है। प्रचलन में अध्यात्म का अर्थ कौतुक- कौतूहल, चमत्कार जैसा माना जाता है और उस आधार पर छुट- पुट सी हेरा−फेरी करने पर विपुल सम्पदाएँ, मनमानी सफलताएँ पाने का सपना देखा जाता है। अकर्मण्य लोग पुरुषार्थ के बल पर वैभव खोदने में सफल नहीं होते तो इन हथकण्डों के सहारे सम्पत्तिवान और यशस्वी बनने की बात सोचते हैं। कइयों को चित्र- विचित्र दृश्यों के देखने की बाल- सुलभ उत्सुकता रहती है। कोई देवी- देवता के अपने इर्द- गिर्द नाचने- कूदने का दृश्य देखना चाहते हैं। कुछ को कुण्डलिनी सर्पिणी की फुफकार सुनने, आँखों के आगे आज्ञा चक्र घूमने, आकाश से पुष्प वर्षा होने जैसे कौतूहलों का मजा लूटने की इच्छा रहती है। कुछ हवा में हाथ मारकर इलायची, जलेबी आदि मँगाने और उन मुफ्त की वस्तुओं का स्वाद चखना चाहते हैं। संक्षेप में यही है ऋद्धि- सिद्धि का कौतुक- कौतूहल, जिसके आधार पर किसी को गड़ा- दबा खजाना बताने का प्रलोभन और किसी को मारण- मोहन का भय दिखाकर उँगली के इशारे पर नचाया जाता है। कुछ देवताओं के सोल एजेण्ट बनते हैं और कुछ भविष्यवक्ता भाग्य विधान होने का दावा करते हुए अपने को सिद्ध पुरुष के रूप में चमत्कारी घोषित करते हैं। अब अणिमा महिमा जैसी हवा में उड़ने, पानी पर चलने और अदृश्य बनने जैसी करामातों के दावेदार तो नहीं रहे, पर बाजीगरों की तरह वालों में से बालू निकालने वालों की अभी भी कमी नहीं है। आश्चर्य होता है कि यह सारा भ्रम जंजाल अध्यात्म के साथ कैसे जुड़ गया देवता से मलीनता का यह अम्बार किस प्रकार चिपक गया

अध्यात्म क्षेत्र के साधकों को जहाँ दूरदर्शी विवेकवान होना चाहिए था, तथ्य और सत्य की परख में रस लेना चाहिए था, संयमी और परोपकारी जैसी प्रवृत्ति से उन्हें विभूतिवान रहना चाहिए था, वहाँ मुफ्त की मनोकामनाएँ पूरी कराने और कौतूहल देखने की ललक से उनका मनःक्षेत्र किस कारण इतना दिग्भ्रान्त और कलुषित हो गया? पुरातन उदाहरणों में अध्यात्म क्षेत्र के साधक और प्रवक्ता ऋषि स्तर के ही दीख पड़ते हैं। उन्हें ऋषितुल्य जीवन यापन करते और अहर्निश लोकसेवा में प्राणपण से निरत पाते हैं। पर आज तो सब कुछ उलटा है। तथाकथित साधु- सन्तों की मनःस्थिति और परिस्थिति को कसौटियों पर कसने से प्रतीत होता है कि महानता के स्थान पर प्रवञ्चना और विडम्बना ने बुरी तरह आधिपत्य जमा रखा है।

चमत्कार की घुसपैठ इस क्षेत्र में कैसे हुई? इसका आधार तपश्चर्या के आधार पर उपलब्ध होने वाली अतीन्द्रिय क्षमता के साथ जुड़ता- सा दीखता है। अन्तराल की गहन परतों में साधना के आधार पर प्रवेश करने वाले निस्सन्देह अतीन्द्रिय क्षमताएँ अर्जित करते हैं। अतिमानस का निखार होने पर व्यक्ति अतिमानव बनता है। ऐसों के पास देवोपम स्तर की क्षमताएँ होनी चाहिए। होती भी हैं। पर प्रश्न यह है कि उनका प्रदर्शन कौतुक- कौतूहल प्रदर्शित करने के लिए क्यों हो? क्यों न उस विशिष्टता के आधार पर लोकमंगल की सामयिक एवं महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं को पूरा किया जाय? पुरातन काल की ऋषि परम्परा यही थी। आत्मबल के धनी एक- एक महामानव ने अपने उपार्जन को सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन से लिए प्रयुक्त किया है। किसी को चमत्कार तमाशे नहीं दिखाए। फिर आज उस प्रदर्शन की आवश्यकता क्यों पड़ गई?

यह तथ्य है कि किसी क्षेत्र में असाधारण पुरुषार्थ करने पर उसकी असाधारण उपलब्धियाँ भी हस्तगत होती हैं। सामान्यतया स्थूल शरीर ही व्यवहार में आता है और उससे सम्बन्धित बलिष्ठता, सम्पन्नता, प्रतिभा जैसी सम्पदाएँ उपार्जित की जाती हैं। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के क्षेत्र और भी अधिक महत्त्वपूर्ण विभूतियों से भरे पड़े हैं। उनमें स्रष्टा का समस्त वैभव बीज रूप से प्रतिष्ठित है। प्रयत्नकर्त्ता उस सम्पदा को कुरेदने, उभारने और बटोरने में समर्थ हो सकते हैं। अतीन्द्रिय क्षमता का भण्डार हस्तगत कर सकते हैं और देवमानव स्तर के चमत्कारी सिद्ध पुरुष बन सकते हैं। अध्यात्म क्षेत्र के वरिष्ठों में ऐसी ऋद्धि- सिद्धियों के समय- समय पर दर्शन होते भी रहते हैं। इसमें इतना तो सिद्ध होता है कि तपश्चर्या एवं योग साधना के सहारे सूक्ष्म शरीर और कारण शरीरों की क्षमता को देवोपम स्तर तक उभारा- उठाया जा सकता है।

इतना जानने वालों को इतना और भी जानना चाहिए कि जिनके पास ऐसी विभूतियाँ होती है, वे उनका प्रदर्शन कौतुक- कौतूहल दिखाने जैसी आत्मश्लाघा एवं बालक्रीड़ा में कभी भी न करेंगे और न ठगों की चापलूसी से प्रभावित होकर कुपात्रों की मनोकामना के निमित्त लुटाने की भूल करेंगे। उन्हें ध्यान रहता है कि इस उपार्जन का सदुपयोग मात्र लोकमंगल एवं सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के निमित्त ही हो सकता है। ऐसी दशा में कौतुक- कौतूहल देखने वालों और मुफ्त का वरदान बटोरने वालों का पक्ष हेय रहने से उन्हें निराश रहना पड़ता है। अध्यात्म क्षेत्र के सुसम्पन्नों में से प्रत्येक का स्तर एवं प्रयास यही रहा है। उनका उच्चस्तरीय उपार्जन व्यक्ति विशेष को इन्द्र- कुबेर बनाने का नहीं वरन् मात्र लोकमंगल के लिए नियोजित रहा है। पुरातन काल के ऋषियों से लेकर तत्कालीन बुद्ध, शङ्कर, समर्थ रामदास, परमहंस, गाँधी जैसे सन्त अध्यात्मवादी अपनी शक्ति को महान् प्रयोजन में ही निरत रखे रहे हैं। सत्प्रयोजनों के लिए ही उनने अपनी सम्पत्ति के अनुदान हस्तान्तरित किए हैं। किसी भी लुटेरे की दाल उनके आगे नहीं गली। व्यक्तिगत सम्पन्नता पाने और गुलछर्रे उड़ाने के लिए कोई भी धूर्त उनकी जेब काट लाने में कुछ भी विडम्बना रचकर सफल नहीं हो सका। सन्त सामान्य जनों की मनोदशा मोड़ते और सुधारते हैं। सस्ती चापलूसी के बदले अपने बहुमूल्य भण्डारों को कुपात्रों को लुटाने या चित्र- विचित्र करामातें दिखाने की भूल सन्तों अध्यात्मवादियों में से आज तक किसी ने भी नहीं की है। जिनकी जेब खाली है, उन्हें ही करोड़पति जैसी शेख बघारने और विडम्बना रचने में संलग्न देखा जाता है। विभूतिवान जिस घोर तप साधना से सिद्धियों को अर्जित करते हैं, उसी जिम्मेदारी के साथ उसका उपयोग भी फूँक- फूँककर करते हैं। लुटाने का पाखण्ड रचने वालों में से शत प्रतिशत ढपोलशंख ही होते हैं।

अतीन्द्रिय क्षमताओं की ऋद्धि- सिद्धि ऋषि स्तर के विशिष्ट व्यक्ति के पास ही होती है और उसका प्रयोग विशिष्ट प्रयोजनों के लिए ही होता है। सर्वजनीन सिद्धियाँ तीन हैं- १. आत्मसन्तोष २. जन- सहयोग ३. दैवी अनुग्रह। इन्हें अध्यात्मवादी हाथोंहाथ प्राप्त करता है और उनके महत्त्वपूर्ण प्रतिफल का रसास्वादन करते हुए अपने आपको कृतकृत्य अनुभव करता है। यह सिद्धियाँ ऐसी हैं जिन्हें पारस, कल्पवृक्ष और अमृत की उपमा निस्सन्देह दी जा सके।

सामान्य जन आत्मसन्तोष के लिए ही दिन- रात श्रम करते और भले- बुरे कार्यों में हाथ डालते हैं। सम्पन्नता, बुद्धिमत्ता, प्रतिभा कितनी ही अधिक अर्जित करें, पर उनका लाभ शरीर भर को मिलता है। आत्मा की क्षुधा- पिपासा आन्तरिक उत्कृष्टता एवं उदार सेवा साधना से ही तृप्त होती है। सच्चे अध्यात्मवादी को इन्हीं दो प्रयत्नों में सर्वतोभावेन निरत होना पड़ता है। फलतः असीम मात्रा में आत्मसन्तोष मिलता है। जड़ें मजबूत एवं गहरी होने से ही वृक्ष सुविकसित होता है। आत्मा के समर्थन एवं आशीर्वाद से ही व्यक्तित्व की महानता उभरती है। फलतः साहस, उत्साह और सङ्कल्प की कमी नहीं रहती। आत्मसन्तोष और आत्मबल अन्योऽन्याश्रित हैं। जहाँ एक होगा, वहाँ दूसरा भी रहेगा। अन्तर्द्वन्द्व ही आत्मबल को नष्ट करते हैं। जहाँ आत्मा और परमात्मा की, व्यक्ति और आदर्श की एकता है, वहाँ हर घड़ी प्रसन्नता बनी रहेगी और उल्लास भरी उमंगें उठती रहेंगी।

आत्मबल संसार का सबसे बड़ा बल है। वह जहाँ होता है, वहीं अन्य बल भीतर से उपजते, बढ़ते भी हैं और बाहर से खिंचते भी चले आते हैं। आत्मसम्पदा के धनी लोगों को भौतिक सम्पन्नता की भी कमी नहीं रही। जहाँ क्षुद्रता से घिरे लोग कुकर्म करते और हेय स्तर अपनाने पर भी दरिद्र, उद्विग्न बने रहते हैं, वहाँ आत्मबल के धनी बुद्ध, गाँधी की तरह हर स्तर की विभूतियों से घिरे रहते हैं। यह बात दूसरी है कि क्षुद्रजनों की तरह अपना पराया सब कुछ उदरस्थ ही नहीं करते रहते, वरन् उसे सत्प्रयोजन के निमित्त भगवान के खेत में बोते रहते हैं ताकि अदृश्य स्तर की दिव्य विभूतियों से उनका कोष हजारों गुना बढ़ता रहे। जिसे खिलाने में मजा आया वह खाने में कटौती करता है और ईश्वरचंद्र विद्यासागर की तरह दूसरों को खिलाता रहता है। शबरी इसी आधार पर कृतकृत्य हुई थी। गोपियों ने यही नीति अपनाकर भगवान को ललचाया और आँगन में नचाया था। क्षुद्र जन खाना ही खाना जानते हैं जबकि महान खिलाने का आनन्द लूटते और आत्मसन्तोष आत्मबल के धनी बनते हैं।

अध्यात्म क्षेत्र की दूसरी सिद्धि है- लोक सम्मान, जन सहयोग। हर किसी की इच्छा जन सहयोग पाने की होती है। सज- धज, ठाट- बाट में ढेरों समय और धन इसीलिए लगता है कि लोगों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न हो, वरिष्ठता स्वीकारें, प्रभावित हों और वाह- वाह कहने लगें। इस ललक की पूर्ति के लिए मनुष्य निरन्तर लालायित रहता है। स्टेटस बनाना, स्टेण्डर्ड मेन्टेन करना इसी को कहते हैं। इस विडम्बना में मनुष्य का अधिक चिन्तन, श्रम एवं उपार्जन खप जाता है। फिर भी पल्ले कुछ नहीं पड़ता, वरन् उलटे ईर्ष्या का शिकार होना पड़ता है। अपव्ययजन्य तंगी और उसकी पूर्ति के लिए अनीति अपनाने का एक कुचक्र अलग ही चल पड़ता है।

अध्यात्मवादी की आत्मपरिष्कार और लोक मंगल में संलग्न सत्प्रवृत्तियाँ जन- जन का मन जीत लेती हैं, सहज श्रद्धा उत्पन्न करती हैं। श्रेष्ठता को सदा वरिष्ठता मिलती है और उसे हार्दिक स्नेह सम्मान मिलता है। शत्रु भी प्रशंसा करते हैं। इसी आधार पर मनुष्य प्रामाणिक बनता है। जो प्रामाणिक है, उसे भरपूर सम्मान मिलता है। यह तथ्य भी स्मरण रखने योग्य है कि सम्मान के साथ सहयोग भी जुड़ा हुआ है। जो जिसकी इज्जत करेगा, उसका अनायास ही सहयोग करेगा। सहयोग ही वह आधार है जिसके सहारे बहुमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर होना किसी के लिए सम्भव होता है। महामानवों को सफलताएँ इसी आधार पर सम्भव हुई हैं। उन्होंने अपनी टाँगों से छलांग नहीं लगाई वरन् लोगों ने कन्धों पर बिठाकर उन्हें ऊपर उठाया और सफल बनाया है। इस स्तर की सफलता भले ही आँखों से तत्काल प्रत्यक्ष न दीखती हो, पर उसकी परोक्ष परिणति को तनिक सी गहराई में उतरने पर सहज ही जाना जा सकता है। इस स्तर की सफलताओं को सच्चे अर्थों में सिद्धि कहा जा सकता है। इससे अपना ही नहीं, दूसरे असंख्यों का भी भला होता है। आश्रितों को अनुकरण की प्रेरणा मिलती है और वातावरण में उत्कृष्टता का पक्ष उभर कर आता है।

दैवी अनुग्रह तीसरी सिद्धि है। सत्प्रयोजन में आमतौर से सर्व साधारण का व्यंग्य, उपहास, असहयोग, विरोध ही रहता है। प्रचलन के विपरीत कदम बढ़ाने वालों के मार्ग में लोग पग- पग पर अड़चनें अटकाते, निरुत्साहित करते और विपरीत परामर्श देते हैं। ऐसी दशा में श्रेय पथ के पथिक को आत्मविश्वास के सहारे एकाकी आगे बढ़ना होता है। स्पष्ट है कि विरोध में सारा वातावरण और प्रयास में साधनरहित एकाकी, फिर सफलता कैसे मिली? इस सन्दर्भ में परा दैवी शक्तियाँ सहायता करती और प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलती देखी गयी हैं। इन्हीं के समर्थन से आदर्शवादी संकल्प को स्थिर रखने एवं साहस बनाए रहने में समर्थ होता है। आदर्शवादियों की सफलता का यही परोक्ष इतिहास है। उन्हें दैवी अनुग्रह के सहारे ही भँवरों को पार करते हुए पार पहुँचने का सौभाग्य मिला है। इतना ही नहीं, उनने अपनी नाव खेते हुए अगणित अन्यान्यों को भी पार उतारा है।

अणिमा, महिमा, लघिमा आदि सिद्धियाँ सम्भव हैं या नहीं? चमत्कार दिखाने और निहाल बनाने की जादूगरी का अध्यात्म से कोई सम्बन्ध है या नहीं? इसका निर्णय हर विज्ञ जन को अपने विवेक से करना चाहिए। किन्तु इस तथ्य को निश्चित रूप से गिरह बाँध लेना चाहिए कि अध्यात्म मार्ग का अवलम्बन करने पर व्यक्तित्व में उत्कृष्टता की सामर्थ्य का जो लाभ मिलता है, उसके सहारे आत्मसन्तोष, जन सहयोग, दैवी अनुग्रह की अजस्र वर्षा निश्चित रूप से होती है।







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