अध्यात्मवादी मनःशास्त्र की उपयोगिता समझी जाय

आज धर्म को अनुपयोगी इसलिए कहा जाने लगा है कि उसमें पूर्वाग्रह, रूढ़िवादिता एवं साधारण कर्मकाण्डों का अत्युक्तिपूर्ण माहात्म्य भर दिया गया है। निहित स्वार्थों से प्रेरित धर्माचार्यों के अन्धविश्वास के ऐसे तथ्य धर्मक्षेत्र में घुसेड़ दिये हैं, जिनसे उनका व्यक्तिगत लाभ तो खूब होता है पर श्रद्धालु के पल्ले समय और पैसे की बर्बादी के अतिरिक्त और कुछ नही पड़ता, यदि यह दोष निकाल दिया जाय तो धर्म का नैतिक एवं सामाजिक पक्ष अपने असली स्वरूप में आ सकता है, उसका बुद्धिवाद का हर पक्ष एक स्वर से समर्थन कर सकता हैै। मनोविज्ञानी धर्म को मनःचेतना पर अनावश्यक और अवांछनीय भार डालने वाला जब बताते है, तब वस्तुतः उसका मंतव्य उसी धर्म विडम्बना की कटु आलोचना करना होता है जो आज पाखण्ड के रुप में सभी सम्पदाओं ने समान रुप से अपना रखी है।

मनोविज्ञान वेत्ता विनियम जेम्स, डीवे तथा जुङ्ग ने धर्म में नैतिक अनैतिक एवं यथार्थ भ्रान्त तत्त्वों के संशोधन की आवश्यकता पर बल दिया है वे कहते है जब तक धर्म के शुद्ध और अशुद्ध पक्षों का वर्गीकरण न किया जायेगा तब तक उसके पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा जाता रहेगा। उसकी संतुलित विवेचना भी संभव न हो सकेगी और न इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकेगा कि धर्म की उपयोगिता में कितना तथ्य है।

स्पष्ट है कि यह समीक्षा धर्म प्रवंचना की ही है। यदि धर्म तत्त्व अपने मूल रूप से परिष्कृत स्तर का बन सके तो उसे मनोविज्ञान दर्शन के आधार पर भी अनावश्यक एवं भारभूत न ठहराया जा सकेगा।

धर्म के मूलतत्त्वों को भूल कर जो स्थानीय और सामयिक धर्म प्रवर्तकों में खो जाते है, वे ही धर्म को बदनाम करते है। पूर्वजों के कुछ आचरण और निर्देश अपने समय में ठीक समझे और कहे जाते होंगे, पर बदली हुई परिस्थितियों में उनका यथावत् बने रहना संभव नहीं। वास्तव में धर्मतत्त्व का मूल दर्शन ही है। उसके आचारण में अन्तर होते रहते हैं। यदि तथ्य को भुलाकर किसी समय के धर्माचरण को ही मुख्य मान लिया जाय अथवा अमुक धर्म प्रवर्तक की उक्तियाँ अथवा गतिविधियों को सनातन मान लिया जाय, तो फिर धर्म प्रतिगामी ही बन जायेगा और कालान्तर में विकृत होकर विग्रह ही उत्पन्न करेगा।

तत्त्वदर्शियों के अभिवचनों में धर्म शब्द के अन्तर्गत जिस आधार की चर्चा की जाती है उसे उत्कृष्टतावादी चिन्तन और आदर्शवादी कर्तृत्व के अन्तर्गत ही गिना समझा जाना चाहिए। कर्तव्य परायणता का ही दूसरा नाम धर्म है। शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक और सार्वभौमिक जिम्मेदारियों से मनुष्य की उच्छृंखलता को मर्यादित किया गया है। उसे अपने स्तर के अनुरूप सृष्टि संतुलन के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ भी निबाहनी होती है। धर्म का प्रयोजन इसी मानवोचित शालीनता और कर्तव्य निष्ठा को अक्षुण्य बनाये रखना है। संस्कृति और सम्प्रदायों में क्षेत्रीय और सामयिक परिस्थितियों के अनुसार उनमें बार- बार सुधार परिवर्तन करना पड़ता है, पर धर्म के बारे में ऐसी बात नहीं है वह शाश्वत और सनातन है। उसका स्वरूप सदाचार, मर्यादा और लोकहित के रूप में चिर अतीत से ही निर्धारित किया जा चुका हैं ,, उसमें परिवर्तन की आवश्यकता कभी भी किसी को भी नहीं पड़ सकती।

सुख शान्ति के लिए अधिक सुविधा जनक साधनों की खोज में विज्ञान और शासन के प्रयास जुटे रहते है, पर यह भुला दिया जाना चाहिए मनुष्य एक चेतनात्मक परिपूर्ण सत्ता है। आनन्द का उद्गम उसके भीतर है। वही अन्तर्ज्योति जब बाह्य जगत पर प्रतिबिम्बित होती है तो सौन्दर्य, सन्तोष एवं रसानुभूति का अनुभव होता है। विचारणा का स्तर ऊँचा उठाये बिना विपुल साधन सम्पत्ति होने पर भी न आनन्द मिल सकेगा, न उल्लास, न सन्तोष। विचारणा को उत्कृष्टता के स्तर तक उठाने और सुदृढ़ बनाने में धर्म का तत्त्वज्ञान समर्थ हो सकता है। भौतिक विज्ञान इस प्रयोजन की पूर्ति में बहुत अधिक सहायता नहीं कर सकता।

मनोविज्ञान को जिस प्रयोजन के लिए आजकल प्रयोग किया जाता है, वह उसके मूल शब्दार्थ का एक बहुत छोटा भाग ही प्रकट करता है। अँग्रेजी में जिसे साइकोलॉजी कहते है उसका मूल अर्थ है आत्मा का विज्ञान। इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले सन् १५९०में रुडोल्फ गोमेकले ने किया। मूल रूप में यह यूनानी भाषा के साइके और लोंगोस दो शब्दों से मिल कर बना है। साइके का अर्थ है- आत्मा। लोंगोस कहते हैं चर्चा अथवा विज्ञान। जिस संदर्भ में आत्मा की चर्चा या विवेचना की जाय इसे साइकोलॉजी कहा समझा जाना चाहिए। प्लेटो और अरस्तू इसे इसी अर्थ में प्रयोग करते रहे हैं।

आत्मिकी पर आधारित मनःशास्त्र बताता है मन की भोंड़ी परत के नीचे दो और मन है। अतीन्द्रिय मन और समष्टिग मन। अचेतन मन के यह दो भाग कितने महत्वपूर्ण हैं इसे मनस्वी और मनःक्षेत्र की साधना करने वाले लोग ही जान सकते हैं। चेतन मन के स्वरूप और प्रभाव से सभी लोग परिचित हैं। उसे सुयोग्य बनाने के लिए अध्ययन, अनुभव, परामर्श, मनन, चिन्तन आदि को उपयोग में लाया जाना चाहिए। बुद्धिमान बनने के उपायों और परिणामों से सभी परिचित हैं। अचेतन मन की गरिमा और संभावनाओं का पता लगाने के लिए मनःशास्त्री जितने गहरे उतरते जाते हैं, उतना ही यह अनुभव करते हैं कि इस रत्नागार में छिपी बहुमूल्य सम्पदा इतनी अपार और असीम है जिसकी कल्पना तक कर सकना कठिन है।

अतीन्द्रिय मन में वे समस्त संम्भावनाऐं विद्यमान हैं जिनका योगी, तपस्वी तथा सिद्ध पुरुषों के चमत्कारों तथा सिद्धि साधनों के संदर्भ में वर्णन किया जाता है। परोक्ष जगत में जिन अनैतिकताओं और अति मानवी उपलब्धियों की चर्चा होती रहती है, उनका बीज मूल इस अचेतन मन में ही प्रसुप्त स्तर पर पड़ा होता है। जो उसे जागृत कर लेते हैं वे उस अद्भुत को भी प्रत्यक्ष करते रहते हैं, जो साधारण तथा असंभव और अप्रत्याशित समझा जाता है।

समष्टि मन को दूसरे शब्दों में विश्वात्मा कह सकते हैं। प्राणि मात्र में एक ही दिव्य ज्योति विभिन्न रंग रूपों और आकार प्रकारों में जल रही है। सामूहिकता, सद्भावना, प्रेम, उदारता, सेवा, संयम, करुणा, ममता जैसी उच्च प्रवृत्तियाँ इसी स्तर के प्रस्फुरण से विकसित होती हैं। तुच्छ से नरपशु को महामानव के रूप में परिणत कर देने का श्रेय इसी मनःस्तर को है। अनीति की ओर बड़ते कदमों को यही अन्तःप्रेरणा रोकती है। त्याग और बलिदान के लिए साहस इसी स्तर की हलचलों से जागृत होता है। अतीन्द्रिय और समष्टि मन की अन्तःस्फुरणाओं के प्रभाव से ही व्यक्ति ऋषि दृष्टा, तत्त्वज्ञानी, देवदूत एवं अवतारी बनता है। समष्टि मन का प्रभाव ही समाज सेवा, लोक मङ्गल एवं चरित्र निर्माण के रूप में देखा जाता है और अतीन्द्रिय मन की विभूतियों का सौन्दर्य अतिमानवों के, देवदूतों के रूप में यत्र- तत्र बिखरा हुआ देखा जा सकता है।

सच तो यह है कि नैतिक भावनाओं का उन्नयन मन को अत्यन्त सबल एवं उदात्त बना देता है और ऐसे आनन्द सन्तोष से भर देता है, जिसकी तुलना में काम वासना सरीखी पशु प्रवृत्तियों का तुष्टीकरण तुच्छतम ही प्रतीत हो सकता है। अनैतिकत आकांक्षाऐं और कुछ नहीं नैतिक भावनाओं के उत्थान के अभाव में बनी रहने वाली अंधकार भरी रिक्तता ही है। धूप जहाँ नहीं पहुँचती वहाँ सीलन रहती है, प्रकाश जहाँ नहीं होता वहाँ अँधेरा रहता है। ठीक इसी प्रकार समष्टि मन के मूर्छित पड़े रहने पर स्वार्थवादी एवं इन्द्रिय परायण अहंता जग पड़ती है और उसकी ललक वासना, तृष्णा की पशु चेष्टाओं में भटकाती रहती है। फ्रायड सरीखे मनोविज्ञानी इसी भटकाव को मनुष्य की मूल प्रवृत्ति मान बैठे है। वे यह नही सोच सके कि उनके निष्कर्ष मानवी महानता को पतनोन्मुखी बनाने का कितना घातक परिणाम प्रस्तुत करेंगे।

मनःशास्त्री जुङ्ग ने समष्टि मन की क्षमता पर बहुत प्रकाश डाला है उसका कहना है कि इसी की प्रेरणा से वे सभी गतिविधियाँ उत्पन्न होती हैं, जिनके आधार पर मनुष्य और समाज का सराहनीय रूप बनता है। वस्तुतः यही मूल प्रवृत्ति है और इसी ने मनुष्य में विचारशीलता, सहकारिता एवं आदर्शवादिता की प्रवृत्तियाँ विकसित करके उसे आज की समुन्नत स्थिति तक पहुँचाया है। देवत्व यही है। सतोगुण एवं आत्मबल इसी को कहते है। वातावरण की गन्दगी मन पर जमते रहने पर एक अनैतिक परत भी जमती रहती है। पर उसके उन्मूलन में भी दैवी प्रवृत्ति निरन्तर सलंग्न रहती है। समुद्र मन्थन का अन्तर्द्वन्द यही है। सद्गुरु की शिक्षा एवं आत्म- प्रेरणा के रूप में इसी संशोधन परिष्कार को आत्मवेत्ता चित्रित करते रहे है। समष्टिगत आकांक्षाओं के प्रतिकूल उच्छृंखलता एवं अनैतिक आचरण करने वालों को न केवल राजसत्ता द्वारा, सामाजिक घृणा द्वारा दण्ड मिलता है वरन् आत्मताड़ना द्वारा अनेकों शारीरिक मानसिक रोगों की उत्पत्ति भी होती है। यह तथ्य अब दिन- दिन अधिकतम स्पष्ट होते चले जा रहे है। और उच्छृंखलता वादी मनोवैज्ञानिक प्रतिपादनों की निरर्थकता स्वयं सिद्ध होती चली जा रही है।

जिस प्रकार धान के ऊपर अनुपयोगी छिलका चढ़ा होता है उसी प्रकार किसी- किसी के मन की ऊपरी परतें भी ऊबड़- खाबड़ हो सकती है। पर यह आवश्यक नहीं कि सुसंस्कृत वातावरण में जन्में और पले व्यक्ति भी शुद्ध चिन्तन की व्याधि से ही ग्रसित हों। आज के वातावरण में बहुसंख्यक लोगों की मनोवृत्तियों में पशु प्रवृत्तियों का भी बाहुल्य हो सकता है। उन्हीं के आधार पर मनुष्य के स्तर को पाशविक प्रवृत्तियों से ग्रस्त मान बैठना वस्तुतः मानवता के साथ अन्याय करना ही है। संभवतः फ्रायड से यही भूल जान या अन्जान में हुई है। वे मनुष्य को कामुकता की कीचड़ में सड़ते रहने वाले कृमि कीटक मात्र ही समझ सके हैं। वस्तुतः मानवी सत्ता की गरिमा उससे कहीं ऊँची है जैसा कि उनने समझा है।

भौतिक विज्ञान इतना ही मानता है कि मनुष्य का पूर्वपक्ष भूतकाल उसके माता- पिता, पितामह आदि पूर्वजों के साथ जुड़ा है और उत्तर- भविष्य पुत्र पौत्रों के साथ। चेतना की शृंखला की दृष्टि से आत्म विज्ञान मानता है कि जीव का पूर्वज परमात्मा है और उसका भविष्य भी उसी के साथ जुड़ा हुआ है इस दृष्टिभेद की प्रतिक्रियाएँ अत्यन्त दूरगामी होती है। भौतिकता वादी अपने अलावा अपने वंश परिवार की ही सुख समृद्धि सोच सकता है, पर आत्मवादी को परमात्मा के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को निबाहने की बात ध्यान में रखनी पड़ती है। वह समाजनिष्ठ होता है जबकि भौतिकवादी की महत्वाकाँक्षाऐं अपने घर परिवार तक सीमित होकर रह जाती है।

सर ओलीवर लाज, मेडम ब्लवडस्की प्रभृति तत्त्ववेत्ता अतीन्द्रिय विज्ञान की आधुनिक शोध में महत्त्वपूर्ण कार्य कर चुके है। औकल्ट साइन्स, परा साइकोलॉजी, मेटा फिजिक्स के अन्तर्गत इस संदर्भ में शोध कार्य जारी है। दूर दर्शन, दूर श्रवण, परोक्षानुभूति, परिचित विज्ञान, परकाया प्रवेश जैसे कितने ही प्रयोग प्रत्यक्ष प्रयोगशालाओं में होते हैं। मैस्मेरेज्म, हिप्रोटिज्म को अब टोना टोटका नहीं माना जाता वरन् उसके आधार को विज्ञान सम्मत स्वीकार कर लिया गया है। कितने ही ऐसे व्यक्ति समय- समय पर प्रकाश में आते रहते है जो मनुष्य की अलौकिकताओं की संभावना को हर कसौटी पर प्रमाणित कर सकें। यह सारी परिधि अतीन्द्रिय मन की अद्भुत शक्ति सामर्थ्य पर ही प्रकाश डालती है। भूतकाल का इतिहास तो इस ब्रह्म विद्या की महत्ता से ही भरा पड़ा है। वह दिन दूर नहीं जब अतीन्द्रिय विज्ञान के शोधकर्ता मनुष्य की महान महत्ता को सहस्र गुणी अधिक अद्भुत सिद्ध कर सकेंगे। तब प्रकृति के नहीं, चेतना जगत के एक से एक बढ़कर महत्त्वपूर्ण रहस्यों का उद्घाटन मात्र मानवी शरीर एवं मन रूप यन्त्र से ही सरल संभव हो सकेगा।

मनोविज्ञान आज भले ही भ्रान्तियों की उलझन में उलझ गया हो, पर आशा करनी चाहिए यथार्थता अगले दिनों प्राप्त कर ही ली जायेगी और पशु प्रवृत्तियों से ऊँचा उठा कर मनुष्य को देव स्तर तक पहुँचाने में मनःशास्त्र अपनी उचित भूमिका सम्पादन करेगा।







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