अहमन्यता मिटे; देवत्व, की सदाशयता विकसे

विज्ञान का तात्पर्य प्रकृति के कुछ रहस्यों का उद्घाटन अथवा कुछ उपकरणों का निर्माण कर लेना मात्र नहीं है, वरण् उसकी व्यापकता मानवी दृष्टिकोण को अधिक सुविस्तृत, तथ्यपूर्ण एवं सत्यनिष्ठ बनाने तक चली जाती है। विज्ञान का उपयोग भौतिक सुख- सुविधाओं के संवर्धन अथवा जानकारियों का क्षेत्र बढ़ाने तक सीमित नहीं है वरन् वास्तविक उपयोग यह है कि हम तथ्य और सत्य को प्रश्रय दें। परम्पराएँ कितनी ही पुरानी अथवा बहुमान्य क्यों न हो, यदि वे यथार्थता और उपयोगिता की कसौटी पर सही नहीं उतरती तो उन्हें बदलने के लिए सदा तत्पर रहें। नये या पुराने के झंझट में न पड़कर विज्ञानी सत्य् को ही मान्यता प्रदान करता है।

विज्ञान न केवल एक प्रक्रिया हैं, वरन् एक प्रवृति भी है। जिसका फलितार्थ है साहसपूर्ण विवेचनात्मक एवं तथ्य समर्पित यथार्थवादी दृष्टिकोण। सत्य की खोज के लिए यह आवश्यक हैं कि हम तर्क और तथ्य की कसौटी पर प्रत्येक मान्यता और परम्परा को कसे और उनमें से जो खरी उतरती हो उन्हीं को अंगीकार करे । विज्ञान के इस पक्ष को दर्शन कहा जाता रहा है। वस्तुत: दोनों के समन्वय से ही एक पूर्ण विज्ञान की प्रतिष्ठापना होती है।

मान्यता पुरानी है या नई । इस व्यामोह से निकल कर जो तथ्य है उसी को स्वीकार करने की बात यदि मन में समा जाय तो समझना चाहिए कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण मिल गया। यथार्थवादी चिन्तन और औचित्य का अवलम्बन जिन्होंने अपनाया उन्हें विचार क्षेत्र का वैज्ञानिक ही कहना चाहिए । दूसरे शब्दों में उसे दार्शनिक भी कह सकते है।

भौतिक विज्ञान की अपनी सीमा और उपयोगिता है वह पदार्थ की स्थिति और गति का विवेचन करता है और वस्तु की मूलभूत सूक्ष्म सत्ता का पता लगाता है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम तक पहुँचने के लिए निरन्तर आकुल- व्याकुल रहता है और अधिकाधिक गहराई तक पहुँचने के लिए अधिकाधिक प्रयास करता है।

चेतना का सूक्ष्मतम स्तर है- सत्यं, शिवम, सुन्दरम। वस्तुओं में लोभ और व्यक्तियों में मोह का दृष्टिकोण बहुत ही स्थूल है। यह अहंता का आरोपण मात्र है। जिस सम्पत्ति को हम अपने अधिकार के अन्तर्गत मानते है वह हमें प्रिय लगती है और जिन व्यक्तियों को अपने परिवार के मान लेते है उनमें आसक्ति बढ़ जाती है । इसी ‘प्रिय’ परिधि की समीपता सुहाती है और उसे बढ़ाने तथा रखने की ललक लगी रहती है। आमतौर से सुख सन्तोष की परिधि उतने ही क्षेत्र में अवरुद्ध होकर रह जाती है। जो किया और कहा जाता है वह उसी सीमा में बँधा रहता है। यह अहंता की प्रतिध्वनि मात्र है इसमें वस्तु के मूल सौन्दर्य का दर्शन हो ही नहीं पाता और व्यक्ति लोभ और मोह के अँवर- डँवर देखता हुआ बाल कौतुकों में उलझा रहता है ।

कला, काव्य एवं सौन्दर्य को भावनात्मक संवेदना तथा चिन्तन की सूक्ष्मतर परिधि कह सकते है। नृत्य गायन कला नहीं, कला का आवरण है। उस माध्यम से अन्त:करण में जो उल्लास पूर्ण प्रस्फुरण उमंगता है वह संवेदना ही कला है। काव्य किन्हीं तुकबंदी या छन्द विन्यास को नहीं कहते। शब्दों का आवरण उठा कर विशिष्ट स्तर के भावोद्रेक को सजाया भर जाता है। उन शब्दों के अन्तरंग में जो कोमलता झाँकती हैं और चेतना में गुदगुदी पैदा करती है वह कविता है। सौन्दर्य वस्तुओं की सज्जा, दृश्यों की शोभा एवं व्यक्तियों के अंग गठन पर निर्भर नहीं है, वह तो प्रकृति की मृदुल सुषमा एवं आत्मा की कोमल कान्त संवेदनशीलता को अपने अन्तरंग चित्रपट पर कलात्मक तूलिका के साथ चित्रण कर सकने की कलाकारिता है। सुन्दरता को दूसरे शब्दों में दिव्यानुभूति कह सकते है। जो भाव भरे अन्त:करणों में अपनी विशिष्टता के अनुरूप उमँगती, उभरती रहती है। उसका किसी की अंग संगठन से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है ।

द्रौपदी और लैला बिलकुल स्याह काले रंग की थी साथ ही कुरूप भी, पर उनके प्रेमी प्राण- प्रिय मानते थे। इसमें विशेषता उन महिलाओं के अंग गठन की अथवा हाव- भावों की नहीं, उन प्रेमियों द्वारा आरोपित की गई संवेदनाओं की थी। इस आरोपण में श्रेय देखने वाले के अपने दृष्टिकोण को महत्व जितना दिया जायेगा उतना प्रिय पात्र को नहीं।


संभव है वनस्पति शास्त्री को कोंपलों और कलियों में मात्र रासायनिक प्रक्रिया का कोई अमुक क्रम विकास भर दिखाई पड़े। भौतिकी का शोधकर्ता प्रभातकालीन अरुणोदय की प्रकाश किरणों को नेत्र गोलकों के साथ जुड़े हुए प्रभाव- प्रत्यावर्तन मानकर सन्तुष्ट हो सकता है। किसी की आँखों से टपकते आँसुओं को रसायन- वेत्ता कुछ क्षार, श्लेष्मा, प्रोटीन, पानी आदि का सम्मिश्रण बताकर अपना समाधान कर सकता है। खगोलज्ञ के लिए ग्रह- तारकों की दूरी, परिधि, कक्षा आदि जानना पर्याप्त लग सकता है, पर जिनके दृष्टिकोण में संवेदनाओं की कोमलता विद्यमान है उसे पुष्प को, प्राकृतिक सौन्दर्य को, अरुणोदय की पुण्य बेला को, किसी करुणाद्र के अश्रु- प्रवाह को, झिलमिलाते तारकों वाली दिशा को देखकर जो अनुभूति होती है वह अपने स्थान पर अत्यधिक महत्वपूर्ण है । कला, कविता एवं सौन्दर्य की परख वस्तुत: संवेदनशील धाराएँ हैं, जो भावना क्षेत्र को अनेकानेक भाव लहरियों की थिरकन के साथ आन्दोलित करती हैं । इन्हें दार्शनिक उपलब्धियाँ कहा जा सकता है। अंत:करण का विकाश कोमल संवेदनाओं के क्षेत्र में न हो सके तो उसका शारीरिक पिछड़ापन अन्य प्राणियों से भी गई- गुजरी स्थिति में खड़ा कर देगा।

भौतिक विज्ञान को असंस्कृत समझने का कोई कारण नहीं, क्योंकि उसका उद्देश्य न केवल अणु- सत्ता का विवेचन एवं उपयोग जानना है, वरन् चेतना के साथ जुड़ी हुई कोमल संवेदनाओं को उभार कर अन्त:करण की भाव भरी रसानुभूति प्रदान करना भी है । इन दोनों प्रयोजनों को साथ लेकर चलने से ही विज्ञान की पूर्णता बनती है, अन्यथा भौतिकी को ही विज्ञान मान लेने पर तो वह सचमुच ही असंस्कृत बन जायगा। तब उसे लंगड़े, काने- कुबड़े, नकटे, बूचे की संज्ञा दी जा सकेगी, वह वस्तुत: कुरूप एवं कर्कश ही बन जायगा ।

विज्ञान और दर्शन का क्षेत्र पृथक रखा जाय तो दोनों ही अपूर्ण रह जायेंगे। वस्तुत: वे दोनों दो हैं भी नहीं। एक ही तथ्य के दो पूरक पक्ष हैं। भौतिक जड़ पक्ष को सम्भालता है और ब्रह्मविद्या चेतना को सुसंस्कृत बनाती है। तथ्यों की उपेक्षा करके मात्र चिन्तन की कलाबाजी का खेल खड़ा करते रहने वाला दर्शन भ्रांतियों का भंडार बन जायेगा, वह हमें अवास्तविक कल्पनाओं की उड़ान में उड़ते रहने वाला, दिवास्वप्र देखते रहने वाला मात्र बना कर रख देगा। इसी प्रकार जड़ पदार्थों की क्षमता पर निर्भर होते- होते हम स्वयं हृदयहीन मशीनी मनुष्य मात्र बनकर रह जायेंगे। विज्ञान को दर्शन के साथ और दर्शन को विज्ञान के साथ अपना ताल- मेल बिठाना पड़ेगा। यद्यपि आज यह बहुत कठिन दिखता है पर एक दिन इसकी अनिवार्यता अनुभव की जायेगी। सत्य और तथ्य का समन्वय करने से ही सर्वतोमुखी प्रगति के दोनों पहिये गतिशील हो सकेंगे ।

विज्ञानी को कलाकार बनना चाहिए और कलाकार को विज्ञान के साथ अपना मेल- जोल बढ़ाना चाहिए। दर्शन और विज्ञान को मिलाकर उभय- पक्षीय आवश्यकताओं की पूर्ति करना चाहिए। दोनों को दो धाराओं में बहते हुए भी एक लक्ष्य पर पहुँचाना चाहिए। पिछली कितनी ही मान्यताएँ, परम्पराएँ, परिभाषाएँ और आकांक्षाएँ अब अवास्तविक और असामयिक ठहरा दी गयी है। किसी समय उनका औचित्य रहा होगा, पर अब उनके साथ चिपके रहना केवल उपासास्पद ही बना सकता है। ठीक इसी प्रकार यदि विज्ञानी बिना हित अनहित का विचार किये घातक आविष्कार करता रहा और विलास वृद्धि में आविष्कारों का उपयोग होता रहा, तो मनुष्य अपनी कलाकारिता को अनावश्यक समझने लगेगा और उसकी सौंदर्यानुभूति समाप्त हो जायेगी। यदि ऐसा हुआ तो विज्ञान की प्रगति सचमुच बहुत मंहगी पड़ेगी।

विज्ञान के सम्पर्क में दर्शन की सत्ता को खतरा उत्पन्न हो जायगा, इस प्रकार सोचना तभी उचित है जब वह अवास्तविक आधारों को लेकर चल रहा हो। अब बुद्धिवादी युग आ गया। क्यों और कैसे की कसौटी पर कसे बिना अगले दिनों किसी भी प्रचलन को स्वीकार न किया जा सकेगा। यथार्थता की परीक्षा से यदि दर्शन भागेगा तो उसका यह भगोड़ापन ही उसकी कच्चाई समझ ली जायेगी और दंभी बताकर समय का प्रवाह उसका साथ छोड़ देगा, तब उसे बेमौत मरना पड़ेगा। इससे अच्छा यहीं है कि वह समय रहते आत्म- निरीक्षण करके इस योग्य बना ले, कि तथ्यों का सामना करने में उसे डरने की तनिक भी आवश्यकता न रहे। दर्शन का गौरव इसी में है। विज्ञान को अपना क्षेत्र जड़ की परिधि से अधिक विस्तृत करके उसे चेतना तक विकसित करना होगा। चेतना जड़ की प्रतिकृति, प्रतिच्छाया नहीं ।। पदार्थ का उपभोग करना मात्र ही उसकी तुष्टि का आधार नहीं है। आत्मा में कुछ ऐसा भी है जिसे अलौकिक, अद्भुत और सरस कह सकते है। प्रत्यक्ष को ही मात्र कसौटी मानकर चेतना की सत्ता को झुठलाया जा सकता है, पर इससे काम कहाँ चलेगा। भावनाओं का अपना स्थान है और अपना स्तर। उनकी अपनी गरिमा है और अपनी संवेदनात्मक दिव्यता। यदि ऐसा न होता तो उसकी चेतना एक विकसित कम्प्यूटर जितनी होकर रह जाती।

ईश्वर जीव और प्रकृति की व्याख्या, विवेचनना में निरत रहने की पुरानी आदत अब दर्शन को बदल देनी चाहिए। यह गुत्थियाँ बहुत ही उलझी हुई है। मानव बुद्धि का क्रमिक विकास इन्हें समयानुसार ही सुलझा सकेगा। लाखों वर्षों से इन्तजार करते रहे हैं तो अभी कुछ समय और प्रतीक्षा कर सकते है। कल्पना को तथ्य बताने की पद्धति से भी कोई समाधान नहीं निकला है। मनीषी अपने- अपने ढंग से इन समस्याओं का समाधान इतने अधिक और इतने परस्पर विरोधी प्रकारों से कर चुके है, कि उनसे मनुष्य की जिज्ञासा को भ्रांतियों में बदलने और एक दूसरे को मिध्यावादी बताने के अतिरिक्त और कुछ परिणाम नहीं निकला है। दर्शन को उतावली नही करनी चाहिए और येन- केन प्रकारेण अपनी नाक बचाने के लिए कुछ भी कह गुजरने का वाक् विलास बन्द करना चाहिए। जब इतनी अधिक और इतनी सामयिक समस्याएँ उलझी पड़ी है, तो हमें उन्हीं पर अपना ध्यान क्यों नहीं केन्द्रित करना चाहिए ??



दर्शन का एक निश्चित लक्ष्य होना चाहिए। अन्त:करण की सौंदर्यानुभूति की कलाकारिता को जगाना सत्य के प्रति नम्रता और निष्ठा उत्पन्न करना। इसके लिए हमें चिन्तन के साथ रसानुभूति की काव्य प्रकिया को समन्वित करना पड़ेगा। मस्तिष्क को जगाना स्कूली शिक्षा का काम है। दर्शन की भावनाएँ उभरनी चाहिए और मनुष्य को इतना संवेदनशील बनना चाहिए कि वह अपने दुखों के प्रति जितना दुखी होता है, उससे अधिक दूसरों का दुख देखकर द्रवित होने लगे। अपने सुखोपभोग में जितनी प्रसन्नता होती है उससे अधिक दूसरों को सुखी बनाने में होने लगे। दार्शनिक दृष्टिकोण वह है जो हर व्यक्ति और हर पदार्थ में सत् चित् और आनन्द की अनुभूति को ढूंढ और जगा सके। घृणा, विद्वेष के स्थान पर करुणा, ममता और सेवा, सहायता की प्रतिष्ठापना करना ही वस्तुत: दर्शन का प्रमुख प्रयोजन है। इस अवलम्बन के सहारे व्यक्ति अधिक पवित्र और परिस्कृत बन सकता है। अधिक उदार और अधिक स्नेह सिक्त भी।

विवेचन, विचारणा और विवेकशीलता के बिना मनुष्य केवल भ्रान्तियों में ही उलझा रह सकता है। दर्शन हमारे चिंतन को प्रखर, सत्यान्वेषी, यथार्थवादी और नीर- क्षीर विवेकी बना सकता है। सत्य के समीप हम इसी आधार को अपनाकर पहुँच सकते है। भौतिक विज्ञान का आराध्य सत्य है। वह परखा नहीं करता कि अब से पहले क्या कहा, माना जाना रहा है। वह बिना किसी प्रकार का दबाव या संकोच किये जो तर्क संगत और तथ्य समर्पित प्रतीत होता है उसे प्रस्तुत करता है। दर्शन में भी इतना साहस होना चाहिए कि परम्पराओं का अनावश्यक दवाब या आग्रह मानने से इनकार कर दे और केवल उसी का समर्थन करे जो सत्य के समीप है, हितकारी है।

भूतकालीन चिन्तन और उसके प्रस्तुतकर्ताओं के प्रति पूर्ण आदर रखते हुए भी सत्यान्वेषण की प्रक्रिया को जारी रखा जा सकता है। आखिर इन पूर्वजों ने भी तो अपने पूर्वजों के चिन्तन में अधिक तेजस्वी प्रकाश का समन्वय किया था। अभी वह समय नही आया कि उस क्रमिक अग्रगमन का पटाक्षेप कर दिया जाय। अभी हमारे लिए सोचने और सुधारने की दिशा में बहुत चलना बाकी है। पूर्णता की प्राप्ति तक हमारे चरण अनवरत गति से आगे बढ़ते रहने चाहिए।

विज्ञान की उपलब्धियों ने इस भूखण्ड के निवासियों को अत्यन्त समीप ला दिया है। द्रुतगामी वाहनों ने दूरी को दूर कर दिया है। संचार साधनों से हम दूरभाषण और दूर दर्शन की आवश्यकता क्षण भर में पूरी कर लेते है। समाचार पत्र हमें संसार भर की खबरे अगले दिन बता देते है। रेडियो के माध्यम से उपयोगी ज्ञानवार्ता और विनोदपूर्ण गुदगुदी घर बैठे मिलती रहती है। विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई दुनियाँ अब एक गांव में रहने वाले लोगों की तरह इकट्ठी हो गई है। दूरी क्रमश: द्रुतगति से निरस्त होती जा रही है। यह भौतिक उपलब्धियाँ, भौतिक विज्ञान द्वारा प्रदान की गई है ।। दर्शन को, मनों की दूरी दूर करनी चाहिए और अन्त:चेतना की इकाई को घटाना चाहिए। किलोमीटरों की दूरी विज्ञान ने निरस्त कर दी और दर्शन का काम है कि व्यक्तिवाद की संकीर्णता को हटाने और आत्मवत् सर्वभूतेषु की- विश्व मानव एवं विश्व परिवार की उदात्त मनस्थिति को विकसित करने में अपने समस्त प्रयासों को केन्द्रित कर दिखाये।

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