अध्यात्म का लक्ष्य, आधार और प्रयोग

विद्वान् बनने के लिए विद्यार्थी अध्ययन करते हैं। पहलवान बनने के लिए व्यायाम किया जाता है। किसान इसलिए जोतने, बोने, सींचने में लगा रहता है कि समयानुसार फसल कटेगी और कोठे भरेंगे। व्यवसायी, शिल्पी, कलाकार आदि सभी वर्ग के लोग कुछ लाभदायक उद्देश्य सामने रखकर प्रयत्नरत होते हैं। उपलब्धियों की ललक ही उन्हें प्रेरणा देती है और तत्परता- तन्मयता जुटाये रह सकने वाली मनःस्थिति बनती है।

लक्ष्य और प्रयास में संगति होनी चाहिए। कार्य और कारण का तारतम्य बैठना चाहिए। भ्रम हो जाने से प्रयास निरर्थक चले जाते हैं और परिश्रम करने वाले को निराशा, खीझ और थकान पल्ले पड़ती है। ऐसी स्थिति से लक्ष्य या प्रयास की गरिमा उपयोगिता पर से विश्वास उठने लगता है। आवश्यक है कि किसी कार्य में हाथ डालने से पूर्व यह देख लिया जाय कि जो चाहा गया है, उसके लिये यह मार्ग है भी, या नहीं, यह मार्ग जहाँ पहुँचता है, वहाँ हमें जाना है या नहीं। यदि लक्ष्य और प्रयत्न के बीच विसंगति रह रही होगी, तो सफलता की सम्भावना नहीं रहती। भ्रमग्रस्त मनःस्थिति में अपनाया गया उत्साह अन्ततः अनास्था में बदलता है। इसलिये विज्ञ जन यही परामर्श देते रहे हैं कि कार्य और कारण की, लक्ष्य और प्रयास की संगति बिठाते हुए प्रयत्नरत हुआ जाय। भ्रान्तियों और भावुकता से ग्रस्त न रहा जाय। वस्तुस्थिति को समझे बिना अपनाई गई उतावली अन्ततः साहस ही तोड़ देती है। अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करते समय इस प्रकार की भ्रान्तियों से निपट लेना आवश्यक है।

अध्यात्म प्रयोजनों से भौतिक लाभ उपलब्ध होने की बात कही जाती रही है और इस प्रकार के माहात्म्य बताते जाते रहे हैं; उनमें प्राय आदि और अन्त का ही वर्णन दीख पड़ता है। मध्यवर्ती प्रयासों का विस्तृत उल्लेख कदाचित् इसलिए नहीं किया गया है कि जिन दिनों शास्त्र रचे गये अथवा आप्त वचन कहे गये, उन दिनों सर्वसाधारण का चिन्तन और चरित्र उच्चस्तरीय था। यह कहने की आवश्यकता नहीं समझी गई कि इस क्षेत्र के प्रवेश कर्त्ताओं का व्यक्तित्व की दृष्टि से पवित्र एवं प्रखर होना आवश्यक है। इस आरम्भिक शर्त से उन दिनों सभी परिचित थे, अस्तु, उसकी चर्चा विस्तार पूर्वक करने की आवश्यकता नहीं समझी गई और आदि तथा अन्त बताते हुए यह अनुमान लगा लिया गया कि मध्यवर्ती प्रकिया तो सर्वविदित है, उसे तो लोग सामान्य बुद्धि से ही समझ रहे होंगे, फिर किसी को पीसने से क्या लाभ?

बन्दूक का घोड़ा दबाने और लक्ष्य बेधने का आदेश ही कप्तान देते हैं। वे जानते हैं कि इस प्रयोजन के लिये सिपाही कारतूस को बन्दूक में भरने की आवश्यकता से अवगत होंगे ही। इसमें भूल होने की आदेश देने वाले को आशंका नहीं रहती। कोई सिपाही कारतूस भरे बिना ही घोड़ा दबा दे और निशाने पर गोली न लगने पर लक्ष्य, बन्दूक, कप्तान आदि को दोष देने लगे, तो उसका आक्रोश निरर्थक माना जाएगा और कहा जाएगा कि नली में कारतूस डालने का सामान्य ज्ञान क्यों भुला दिया जाय?

औषधि खाने और रोग अच्छा होने की ही आमतौर से चर्चा होती रहती है; निदान, पथ्य, परिचर्या, मात्रा, अनुपान आदि का उस सम्बन्ध से विस्तृत विवेचन नहीं किया जाता, क्योंकि हर कोई जानता है कि इलाज कराना है तो यह बात तो ध्यान में रखनी ही होती है, उनको तो हर हालत में अपनाना ही होता है।

डॉक्टर बनने के लिए मेडिकल कालेज में प्रवेश, इञ्जीनियर बनने के लिए इंजीनियरिंग कालेज में भर्ती के लिए दौड़- धूप होती है। अभिभावक और विद्यार्थी यह जानते हैं की डॉक्टर या इंजीनियर बनने पर धन, यश, पद आदि की दृष्टि से संतोषजनक स्थिति प्राप्त होती है। कॉलेज में दाखिला मिलने पर सदा ध्यान केन्द्रित रहता है। दौड़- धूप होती है और प्रवेश मिलने पर संतोष की साँस ली जाती है। उत्साह से आँखें चमकने लगती हैं। इस माहौल में कोई यह प्रसंग नहीं उभारता कि पाँच वर्ष तक मनोयोग पूर्वक पढ़ना पड़ेगा फीस, पुस्तकें, बोर्डिंग खर्च आदि का प्रबन्ध भी करना होगा। सभी जानते हैं कि यह तो अनिवार्य ही है। सभी करते हैं। इसके बिना तो लक्ष्य पूर्ति का आधार खड़ा ही नहीं होता। सामान्य ज्ञान को भी अकारण दुहराते और समय नष्ट करने की आमतौर से आवश्यकता नहीं पड़ती। कोई सर्वथा अनजान हो तो बात दूसरी है।

उपयुक्त जोड़ी, विवाह निर्धारण और सुखी गृहस्थ जीवन की संगति बिठाते हुए प्रगोजनकर्ता प्रसन्न होते हैं। इसकी मध्यवर्ती एक शर्त भी है कि वर- वधू अपने- अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का नियमित रूप से पालन करते रहें। इसकी उपेक्षा कर तो चयन- निर्धारण कितना ही उपयुक्त क्यों न हो, विवाह सफल नहीं हो सकता और सुखी गृहस्थ की आशा नहीं बँधती। फिर भी विवाह निर्धारण के लिए दौड़−धूप करते समय उपयुक्त चयन ही पर्याप्त मान लिया जाता। इसकी चर्चा नहीं होती कि वे दोनों किस प्रकार गृहस्थ की गाड़ी चलायेंगे। सभी जानते हैं कि वर- वधू इतना तो स्वयं ही समझते होंगे, न समझते होंगे तो परिवार वाले समझा लेंगे। यह सर्वविदित तथ्य है कि गृहस्थ की सफलता विवाह संस्कार पर नहीं, जोड़ी के कर्तव्यपालन पर निर्भर है; पर उस प्रसंग को उस निर्धारण में तूल नहीं दिया जाय। सामान्य ज्ञान की बातों का बतंगड़ कौन बनाता है?

उपरोक्त उदाहरण इसलिए दिये गए हैं कि अध्यात्म क्षेत्र की साधनाओं का स्वरूप और उनका सिद्धि- प्रतिफल बताते समय भी आदि और अन्त का ही वर्णन किया जाता रहा है। इसकी बहुत अधिक चर्चा नहीं की गई कि साधक को उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र और उदात्त व्यवहार अपनाने की शर्त पूरी करने पर ही साधक कहलाने का अधिकार मिलता है। ओछा और घिनौना व्यक्तित्व बनाये रखकर कोई मात्र पूजा- पाठ के, तंत्र- मंत्र के सहारे उन सफलताओं को प्राप्त नहीं कर सकता, जो माहात्म्य- प्रतिपादन से बताई गई है।

योग- साधना का प्रथम सोपान यम और नियम है, जिनका तात्पर्य है- जीवनचर्या में सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों का समुचित समावेश। भक्ति- साधना में ‘नामापराध’ का निर्धारण है। नाम तो जपा जाय, पर चरित्र दोषों से लिप्त रहा जाय तो उस पर भगवान का नाम बदनाम करने का अपराध लगेगा और छद्म करने का दण्ड सहना पड़ेगा। भक्ति- भावना का सत्परिणाम मिलना तो दूर, उलटा भगवान के क्रोध का भागी बनना पड़ेगा। साधनात्मक कर्मकाण्डों की फलश्रुतियों को सुनाते- समझाते समय इस तथ्य के प्रदिपादनकर्ताओं को इतना तो ध्यान रखना ही होगा कि उसे इस प्रयास में दृष्टिकोण में उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता का उच्चस्तरीय समावेश करना है। इसकी उपेक्षा करने पर तो शेखचिल्ली की तरह उपहासास्पद बनना पड़ेगा। वह बेचारा यह तो भूल करता रहा कि आदि और अन्त की बात सोची, मध्यवर्ती क्रिया- प्रक्रिया की उपेक्षा करके रंगीन सपने देखने लगा। यह भूल वे लोग करते हैं, जो मन्त्र- जप मात्र से सम्पदाओं- विभूतियों से घर भर लेने के दिवास्वप्न देखते रहते हैं। सिर और पैर ही सब कुछ नहीं, मध्यवर्ती धड़ की भी उपयोगिता और महत्ता है। इस तथ्य से हर किसी को अवगत होना चाहिए। साधना और सिद्धि के मध्य में चिन्तन और चरित्र की उत्कृष्टता, संयम और सेवा की जीवन- साधना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।

भूल यह होती रही है कि विकृत भ्रमग्रस्तता द्वारा यह समझा या समझाया गया कि देवी- देवता पूजा−पाठ के भूखे बैठे रहते हैं और उतना- सा लालच दिखाकर उन्हें कुछ भी कराने के लिए वशवर्ती किया जा सकता है। उपासना को जादूगरी, बाजीगरी के समतुल्य ठहराया गया और सोचा गया कि उससे कौतुक- कौतूहल देखने- दिखाने वाले दृश्य सामने दौड़ने लगते हैं। मनोकामना सिद्धि के लिए यह सस्ते नुस्खे बाल- बुद्धि को बहुत सुहाये। बिना पात्रता और परिश्रम के ऐसे ही हाथों की हेरा−फेरी, जीभ से कुछ कहते रहने भर से ऋद्धि सिद्धियाँ छप्पर फाड़कर घर में कूदेंगी। ऐसे ही कुछ अनगढ़ सपने तथाकथित साधकों के सिर पर छाये रहते हैं।

इन्हें सच मानने में मनुष्य की वह मनोवैज्ञानिक दुर्बलता सहायता करती है, जिसके अनुसार वह कम परिश्रम में अधिक लाभ कमाने की विडम्बनाएँ रचता रहता है और इस चिन्तन को परिपुष्ट करते- करते दुरभिसंधियाँ- दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए कटिबद्ध हो जाता है। जुआ, सट्टा, लाटरी, गड़ा खजाना आदि की ललक इसी आधार पर उभरती है। उत्तराधिकार में, दान- दहेज में विपुल धन मिलने की लिप्सा भी इसी कारण प्रचंड बनती और लूट- खसोट को अधिकार मानती, उसके लिए हठ करती देखी गई है। एक कदम और आगे बढ़ने पर मनुष्य छल- प्रपंच रचता या अपराध- आक्रमण पर उतारू होता है। मुफ्तखोरी, अनैतिकता अवांछनीयता की जन्मदात्री है। वह जिस कारण भी पनपे, उस पूरे परिकर की निन्दा की जानी चाहिए। योग्यता और श्रमशीलता के आधार पर उचित उपार्जन की ही प्रशंसा होती है। इसके अतिरिक्त जो भी मार्ग रह जाते हैं, वे सभी अनुचित एवं अहितकर है। उन्हें अपनाने से व्यक्ति और समाज की हर प्रकार हानि ही हानि है।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि जिस तत्त्वज्ञान की संरचना, जिस साधना- विधान की निर्धारणा मात्र व्यक्तित्व में पवित्रता और प्रखरता का अनुपात बढ़ाने के लिए हुई थी, उसका आधार ही उलटा जा रहा है। वह बिना मूल्य चुकाये, जिस- तिस प्रकार सम्पदाएँ- सफलताएँ बटोरने के लिए व्यक्ति को प्रोत्साहित करता है। जबकि इससे ठीक उलटा होना चाहिए था। अध्यात्मवादी को अपरिग्रही, स्वल्प और संतोष एवं औसत भारतीय स्तर का निर्वाह अपनाने वाला होना चाहिए था। औचित्य का पक्षधर एवं न्याय नीति का समर्थन करना चाहिए। मनोकामना सिद्धि का तात्पर्य एक ही है- योग्यता और श्रमशीलता की मर्यादाओं को छलाँग कर तुर्त- फुर्त, नैतिक या अनैतिक उपाय से मनचाही सुविधाएँ हस्तगत कर लेना। जहाँ भी ऐसी प्रवृत्ति उभरती हो, समझना चाहिए कि नीतिमत्ता पर कुठाराघात हुआ और साथ ही अध्यात्म तत्त्वज्ञान के आधार को समाप्त कर देने वाला कुचक्र चल पड़ा।

भगवान्, सिद्धपुरुष, धर्मानुष्ठान, साधना विज्ञान सभी इस मर्यादा में बँधे है कि न्याय एवं औचित्य का निर्वाह होता रहे। सत्प्रवृत्तियों को, उच्चस्तरीय निर्धारणों को मान्यता मिलती रहे, उनकी प्रतिष्ठा दिन- दिन गहरी बनती चले। इनके विपरीत यदि वह समुदाय तनिक- तनिक से प्रलोभनों से, मनुहारों से प्रभावित होकर तथाकथित भक्तजनों के साथ पक्षपात बरतने लगे तो समझना चाहिए औचित्य के आदर्श का अन्त होने जा रहा है। भगवान भी यदि ऐसा करेंगे, सिद्ध पुरुष भी यदि इतने ओछे सिद्ध होंगे, तो फिर न्याय- नीति की रक्षा कौन करेगा? औचित्य को संरक्षण कहाँ मिलेगा? यदि रिश्वत और चापलूसी भगवान को भी वशवर्ती कर सकती है; न्याय की, पात्रता की उपेक्षा करके यदि व्यक्तिगत कृपा- अकृपा का सिलसिला चल पड़े, तो फिर सामान्य लोगों को रिश्वत, खुशामद, भाई- भतीजावाद, पक्षपात जैसे अमान्य आधारों से विरत करने की वात कैसे बनेगी?

सामान्य निर्धारण है- उचित मूल्य चुकाकर उचित उपलब्धियाँ प्राप्त करना। यदि आधार उच्चस्तरीय सत्ताओं ने ही निरस्त कर दिया और भक्तजनों को उसकी छूट दे दी, तो फिर समझना चाहिए कि औचित्य के आधार पर कुछ पाने की कष्टसाध्य प्रक्रिया कोई क्यों अपनाता रहता है। तब तपस्या की, संयम पराक्रम की, शोधन- परिष्कार की कष्टसाध्य प्रक्रिया अपनाने की कोई उपयोगिता- आवश्यकता ही न रहेगी। सभी शार्ट- कट ढूँढ़ेंगे। इसकी प्रतिक्रिया का प्रत्यक्ष स्वरूप होगा औचित्य के प्रचलन और अनुशासन का समापन। यदि यह क्रम चल पड़ा तो समझना चाहिए कि पूजा- पाठ और अनौचित्य का ठाठ- बाट यही दो इस संसार में शेष रहेंगे। उस आधार का समापन हो जाएगा, जिसके लिए धर्म- अध्यात्म की, भक्त और भगवान की आवश्यकता अनुभव की गई है।

संकट में एक- दूसरे की सहायता करना- उठाने और बढ़ाने में सहायता करना मानवी गरिमा का एक पक्ष है। उसे यथावत चलना चाहिए। जिनके पास आत्मबल की सम्पदा है, वे उसे सहायता के लिए भी प्रयुक्त करते हैं, पर साथ ही औचित्य का भी ध्यान रखते हैं। जिस- तिस की उचित- अनुचित मनोकामनाओं की पूर्ति में सस्ती वाहवाही के बदले, उसे खर्च करने लगेंगे तो समझना चाहिए कि सिद्ध पुरुष कहलाने की अध्यात्म गरिमा से वे लोग बहुत नीचे आ गये। दाता और याचक के बीच में औचित्य की कसौटी रहती है। उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। तथाकथित भक्तजन और सिद्ध पुरुष मिलकर भी ऐसे भ्रष्टाचार को मान्यता नहीं दिला सकते। विश्व व्यवस्था के कुछ मूलभूत सिद्धान्त हैं और उसमें उचित मूल्य चुकाकर उपलब्धियाँ प्राप्त करने की भी एक परम्परा है। सस्ते मोल महँगे साधन समेट लेना विश्व- व्यवस्था से सर्वथा बाहर की वात है।

सांसारिक सम्पदाओं का सीधा सादा- सा उपाय- उपचार है- योग्यता की वृद्धि, समग्र श्रमशीलता, व्यावहारिक शालीनता एवं सुव्यवस्था। इन आधारों को अपनाकर ही व्यक्तियों और समाजों ने प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँचने में सफलताएँ पायी हैं।

अध्यात्म- विज्ञान के विद्यार्थियों को यह तथ्य गिरह बाँध लेना चाहिए कि यह क्षेत्र चिन्तन एवं चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश करने तथा व्यक्तित्व में पवित्रता- प्रखरता भर देने की ही सुव्यवस्था का है। इस दिशा में जो जितना आगे बढ़ता है, उसकी पात्रता- प्रामाणिकता का स्तर उतना ऊँचा उठता ज्ञाता है, फलतः आत्मबल के रूप में साहस, संकल्प एवं पुरुषार्थ के सत्प्रयोजनों में तत्परतापूर्वक निरत देखा जाता है। सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों से व्यक्तित्व भरा- पूरा दीखता हैं। जहाँ ऐसी स्थिति होगी, वहाँ आत्मिक ही नहीं, भौतिक सम्पदाओं की भी कमीं न रहेगी। जिसे आत्मविश्वास उपलब्ध है, जिसने जन- सम्मान और जन- सहयोग अर्जित कर लिया, उसके लिए भौतिक सफलताएँ एवं सम्पन्नताएँ प्राप्त कर लेने में तनिक भी कठिनाई नहीं रहती। हाँ, साथ ही इतना भी आवश्यक होता है कि अध्यात्मवादी, साधनारत व्यक्ति वैभव का उपभोग नहीं करता। उपार्जन कितना ही क्यों न कर ले, उसमें से औसत नागरिकों जैसा ही निर्वाह स्वीकार करता है। शेष को उदारतापूर्वक उस लोकमंगल के लिए हाथों- हाथ वापिस कर देता है, जिसके कन्धों पर सर्वजनीन सुख- शांति का आधार टिका हुआ है।







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