ईश्वर विश्वास लगभग उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना आत्म- विश्वास। आत्म- विश्वास का अर्थ है- अपनी उत्कृष्टता, क्षमता, प्रतिभा एवं सक्रियता की उपस्थिति पर भरोसा करना। जिन्हें सपनों के अन्दर इन विभूतियों की झांकी नहीं होती वे दीन- दुर्बल बने रहते हैं और असफल, असहायों की तरह जिन्दगी गुजारते है। जिन्हें अपनी प्रतिभा और क्षमता पर विश्वास होता हैं वे साहस भरे कदम बढा़ते हैं और प्रगति की दिशा में द्रुतगति से अग्रसर होते चले जाते हैं। ईश्वर विश्वास, आत्म- विश्वास से भी ऊँची अन्त:निष्ठा है। एक उच्चस्तरीय सत्ता का शासन अपने समेत समस्त विश्व पर बने होने की बात जब मन में जम जाती है, तो मनुष्य आत्म- नियन्त्रण की बात सोचता है और व्यवस्थित शासन के सुसंस्कृत नागरिक की भूमिका निभाने के लिए कटिबद्ध होता है। शासन की, समाज की पकड़ से बच निकलने की संभावना देखकर ही आमतौर से उद्दण्डता अपनाई जाती है और अनाचार के लिए हिम्मत पड़ती है। सजग शासन और उसका कठोर नियन्त्रण होने की बात समझ में आ जाय, तो फिर अवाछंनीयताएँ अपनाने के लिए हौसला ही नहीं होता, वरन् सब कुछ शान्तिपूर्वक चलता रहता है।
मनुष्य की मनुष्यता अस्त- व्यस्त होने से न केवल व्यक्तिगत ही, वरन् समाज की शान्ति, सुव्यवस्था एवं प्रगति भी नष्ट हो जाती है। व्यक्तियों का समूह ही तो समाज है। लोग जिस स्तर के होंगे उसी स्तर का समाज बनेगा। समाज से व्यक्ति और व्यक्ति से समाज का संबंध उतना ही अविच्छिन्न है जितना वृक्ष का बीज से दोनों अन्योन्याश्रित हैं। एक की स्थिति डगमगाने लगे तो दूसरे का अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा। ईश्वर विश्वास इन दोनों ही विपत्तियों में रक्षा करता है। सुनियंत्रित सूक्ष्म सत्ता की- ईश्वर विश्वास की मान्यता ही मनुष्य को सच्चे अर्थों में सदाचारी, सज्जन बनाये रह सकती है। अन्य नियंत्रणों को तो यह अपने बुद्धि कौशल से सहज ही झुठला सकता है। पुलिस, कचहरी तथा लोकनिंदा के नियंत्रणों से बच निकलने की अनेकों तरकीबें आदमी को मालूम हैं। सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान किन्तु न्यायकारी परमेश्वर का नियन्त्रण ही सर्वांगपूर्ण है। इस लोक से लेकर परलोक तक, भौतिक सुखों से लेकर आत्मिक शान्ति तक का सारा क्षेत्र ईश्वर की व्यवस्था के अन्तर्गत हैं यह मानने वाला रीति- नीति को सही बनाने के लिए विवश होता है। यह एक बहुत बड़ी बात है। व्यक्तित्व को परिस्कृत करने में यह आधार अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है। आस्तिकता की व्यापक प्रतिक्रिया सभ्य, सुसंस्कृत एवं समुन्नत समाज के रूप में प्रस्तुत होती हैं ।।
प्राचीन भारत के उज्ज्वल इतिहास की पृष्ठभूमि आस्तिकता के तत्त्वज्ञान द्वारा ही सम्पन्न हुई थी। उन दिनों सतयुग का- धर्म राज्य का वातावरण था और हर व्यक्ति में देवत्व की सत्ता जगमगाती थी। वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रगति की अनेकानेक उपलब्धियाँ ऐसे वातावरण में सहज ही उदीयमान रहती हैं। इसी प्रकाश में प्राचीन भारत की गौरव गरिमा का मूल्यांकन किया जा सकता है।
आज भी आस्तिकता का वातावरण तो खड़ा है, पर वह तात्त्विक दृष्टि से खोखला ही नहीं विकृत भी हो गया है। फलत: उसका लाभ मिलने की अपेक्षा सड़ी दुर्गन्ध से हानि ही अधिक उठानी पड़ रहीं है। अब समझा जाने लगा है कि थोड़ी सी पूजा- पत्री करके ईश्वर को वशवर्ती किया जा सकता है और उससे उचित- अनुचित मनोकामनाएँ बिना प्रयत्न पुरुषार्थ के सहज ही पूरी कराई जा सकती है। इस मान्यता ने लोगों को पूजा- पत्री के विधि- विधान अपनाने के लिए तो आकर्षित किया, पर साथ ही उसे पक्षपाती और अंधेरगर्दी बरतने वाला भी ठहरा दिया। पूजा से ही ईश्वर प्रसन्न हो सकता है तो फिर उसका अनुग्रह प्राप्त करने के लिए कठोर कर्तव्यों का पालन कौन करे? आत्मनियंत्रण, व्यक्तित्व का परिष्कार, लोकमंगल के लिए त्याग, बलिदान, योग साधना एवं तपश्चर्या अपनाने की आस्तिक परम्परा सदा से चली आ रही थी, इसे भी तथाकथित भक्ति भावना ने उखाड़ फेंका। जब गंगा स्नान, तीर्थ दर्शन जैसे सुलभ कर्मकांड पाप के दंड प्रतिफल से छुटकारा दिला सकते है तो फिर पाप की खुली छूट का द्वार खुल गया। शासन और समाज की आँखों में धूल झोकने की प्रवीणता लोगों ने पहले ही प्राप्त कर ली थी। एक ईश्वरीय नियन्त्रण की, कठोर कर्मफल की मान्यता ही चरित्र निष्ठा को बनाये रह सकती थी। वह आधार भी टूट गया तो समझना चाहिए उच्छृंखलता के लिए पूरी तरह छूट मिल गई। आज की विकृत आस्तिकता अपने मूल प्रयोजन से भटक ही नहीं गई वरन् ठीक प्रतिकूल दिशा में चल पड़ी है। ऐसी दशा में तथाकथित भक्त लोगों को अपेक्षाकृत अधिक दंभी, दुराचारी एवं अकर्मण्य पाया जाता है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। यह भ्रष्ट तत्त्वदर्शन का प्रतिफल है जिसने कर्म- दुष्कर्म के साथ ईश्वरीय अनुग्रह- विग्रह की पतंग काट दी और कर्मकाण्ड के जादू की छड़ी से ईश्वर को उल्लू बनाकर उससे चाहे जो उचित- अनुचित करा लेने की बात भोली जनता के मन में बिठा दी। वस्तुतः यह आस्तिकता के साथ बलात्कार, व्यभिचार ही हुआ है और उसकी उपयोगिता नष्ट करके अनिष्टकारी मूढ़ मान्यताएँ प्रतिष्ठापित कर दी गई है। इसका दुष्परिणाम भी सामने है। अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा आस्तिकता के क्षेत्र में भ्रष्टता एवं दरिद्रता का बोलबाला अधिक है तदनुसार वे अधिक मात्रा में दुखी रहते और दुखी होते देखे जा सकते हैं।
भ्रष्ट रीति- नीति किसी भी क्षेत्र में अपनाई जाय विपत्ति उत्पन्न करेगी, आस्तिकता का क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं हो सकता था। अस्तु वर्तमान धर्म विडम्बना के आधार पर विशुद्ध तत्व- दर्शन की उपेक्षा नहीं की जा सकती, ईश्वर विश्वास की उपयोगिता अपने स्थान पर सुदृढ़ है। यदि उसका मूल स्वरूप बनाये रखा जाय, तो निश्चित रूप से व्यक्ति और समाज को अधिकाधिक परिष्कृत सुसम्पन्न बनाने का महान लाभ मिलता रह सकता है। ईश्वरत्व मानव जीवन का परम लक्ष्य माना गया है। आत्मा को परमात्मा, अणु को विभु, लघु को महान, पुरुष को पुरुषोत्तम, नर को नारायण बनाने के लिए ही ब्रह्म विद्या का सृजन हुआ है। उसकी चिन्तन प्रक्रिया एवं कर्म व्यवस्था के दोनों पक्ष मनुष्य को अधिकाधिक उदात्त एवं परिष्कृत बनने की प्रेरणा देते है।
ईश्वर की प्राप्ति अर्थात् ईश्वर जैसी सुविकसित मनस्थिति। ईश्वर व्यापक है -हमारी अन्तरात्मा का स्तर भी यही होना चाहिए सब में अपने को और अपने में सबको देखा जाय। यही आत्म विकास है। इस मान्यता का व्यवहार रूप इसी प्रकार बनता है कि अपनी आत्मीयता का सर्वजनीन प्राणिमात्र में विस्तार हो। दूसरों के दुखों से अपने कष्ट जैसी संवेदना अनुभव हो और उन्हें बटाने के लिए आतुरता उमगे, तो समझना चाहिए कि आत्म- विस्तार हो चला। अपने सुख- साधनों को- श्रम, समय एवं चिन्तन को लोकोपयोगी प्रयोजनों में लगाने की आकांक्षा हिलोरें लेने लगें, तो समझना चाहिए आत्म- विस्तार का, आत्म- विकास का, आत्म- साक्षात्कार का लक्ष्य समीप आ गया।
साकार ईश्वर दर्शन विराट् विश्व के- विराट ब्रह्म के रूप में ही हो सकता है। कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा को, राम ने कौशिल्या और काकभुसुण्डि को अपना विराट रूप दिखाया था अर्थात् यह अनुभूति कराई थी कि यह समस्त संसार ही भगवान का दृश्यमान रूप है। भगवान का दर्शन होने पर, उसके सामने आ उपस्थित होने पर सेवा सद्व्यवहार की इच्छा उठेगी। लोक मंगल के प्रयास एक प्रकार से ईश्वर पूजा है। शिवजी का प्राचीन प्रतीक गोलमटोल शिवलिंग के रूप में है। लिंग अर्थात् चिन्ह, स्वरूप, भगवान का कल्याणकारी रूप देखना हो, तो इसे भू- मण्डल के ग्लोब के रूप में देखा जाना चाहिए और उसे अधिक सुंदर समुन्नत बनाने के लिए घोर परिश्रम करते हुए तात्त्विक ईश्वर भक्ति का परिचय देना चाहिए। सालिग्राम की विष्णु प्रतिमा भी शिवलिंग जैसी गोलमटोल पत्थर की बनी होती है। शिव कहें या विष्णु, नामों का ही अन्तर है। ईश्वरीय सत्ता तो एक है। देव मान्यता का आदि प्रतिपादन एक ही ईश्वर की अनेक विशेषताओं को अनेक अलंकारिक रूप में चित्रित करने की कला की अभिव्यक्ति के रूप में हुआ था। पीछे लोगों ने उन्हें परस्पर आकृति- प्रकृति की भिन्न- भिन्न सत्ताओं के रूप में मानना शुरू कर दिया है और निरर्थक बुद्धि भ्रम में उलझा दिया। तत्त्वत: परमेश्वर एक है। उसी को शिव, विष्णु आदि कहते हैं। साकार उपासकों ने उसकी आदि प्रतिमा गोलमटोल शिवलिंग या शालिग्राम के रूप में इसीलिए की थी कि इसे विराट ब्रह्म माना जाय और हर जड़ चेतन के साथ सद्व्यवहार की रीति- नीति अपनाते हुए अपने चिन्तन तथा कर्तव्य को अधिकाधिक उदात्त बनाया जाय।
निराकार ब्रह्म को हमारी अन्त:चेतना दिव्य चेतना के रूप में अनुभव करती है। इसे तीनों शरीरों के साथ स्पर्श करते हुए देखा जा सकता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में से प्रत्येक के साथ दिव्य संवेदनाओं के रूप में ईश्वर की झाँकी कभी भी की जा सकती है, कोई भी कर सकता है। स्थूल शरीर काया से सत्कर्मों के रूप में, सूक्ष्म शरीर- चिन्तन से सद्विचारों के रूप में और कारण शरीर- अन्त:निष्ठा से सद्भावनाओं के रूप में ईश्वर का दर्शन स्पर्श किया जा सकता है।
ईश्वर दर्शन के नाम पर देवी- देवताओं या अवतारों की छाया प्रतिमाओं को देख सकने की ताक में लोग लगे रहते है और स्वप्न में अथवा अर्धतन्द्रित अवस्था में उस तरह की कोई झाँकी मिल जाती है तो फूले नही समाते। यह आत्म प्रवंचना सर्वथा निरर्थक है। ईश्वर का कोई रूप नहीं। सर्वव्यापी ईश्वर जैसी दिव्य सत्ताएँ आकृतिधारी नहीं हो सकतीं। जितनी भी आकृतियाँ ईश्वर की गढ़ी गई है, वे मनुष्य की अलंकारिक कल्पनाएँ भर है। प्रतिमा पूजन का विज्ञान तो इसी प्रकार खड़ा किया हैं जैसे छोटे बालकों को वर्णमाला सिखाते समय क- कबूतर, ख- खरगोश, ग -गनेश, घ- घड़ा आदि पढ़ाकर बालबोध कराया जाता है। ईश्वर की अनेकानेक विशेषताओं के प्रतीक प्रतिबिम्ब ही देवी- देवताओं के रूप में तत्त्वदर्शियों ने प्रस्तुत किये हैं। इनका उपयोग अपनी अन्तश्चेतना को प्रशिक्षित करने के लिए किया जा सकता हैं। श्रद्धा- भक्ति बढ़़ाने का अभ्यास इनके सहारे हो सकता है। ईश्वरीय सान्निध्य की आकांक्षा को देव दर्शन के सहारे उभारा जा सकता है। मनोनिग्रह की दृष्टि से भी उसका उपयोग है। देव मन्दिर- धर्म चेतना के उत्कर्ष एवं परिपोषण के केन्द्र रूप में होते थे- होने चाहिए थे। इन निर्धारणों की कितनी ही उपयोगिताएँ है, जिन्हें ध्यान में रखते हुए निराकार परमेश्वर को देव प्रतिमाओं और देव मन्दिरों के रूप में जन सामान्य की सुविधा एवं लोक मंगल की दृष्टि से विनिर्मित किया गया था। आज तो लोग लकीर के फकीर ही बन गये है और तथ्य को भुलाकर दर्शन में उलझ गये हैं। दर्शन का वास्तविक अर्थ तत्व- दर्शन फिलॉसफी है, लोगों ने उसका उथला अर्थ देखना भर कर लिया है। मूर्तियों को, महात्माओं को देखने भर से पुण्य का मिलना मान लिया जाता है। जबकि चर्मचक्षुओं द्वारा देखना मात्र जानकारी बढ़ाने भर का प्रयोजन पूरा कर सकता है। इसी जंजाल में उलझे हुए व्यक्ति तथाकथित इष्ट देवों के दर्शन मिलने को आत्म साक्षात्कार की संज्ञा देते है। स्वप्न लोक की उड़ानों में कुछ सफलता मिली तो प्रसन्न होते है अन्यथा अपनी भक्ति को असफल मानते हैं। इन पिछड़ी मान्यताओं को अवास्तविक और दयनीय ही ठहराया जा सकता है। ईश्वर दर्शन आत्म साक्षात्कार के रूप से ही हो सकता है। आत्म साक्षत्कार का अर्थ है- आत्मा को ईश्वरीय सत्ता के प्रतीक प्रतिनिधि के रुप में विस्तृत और परिष्कृत देखना। उसे कषाय कल्मष से छुड़ाने और अपनी मूल स्थिति तक पहुचाने की दृष्टि से जो भावनात्मक एवं क्रियात्मक- विधि विधान है उन्हें ही साधना कहते है। साधना सही हो तो तथ्य पूर्ण लक्ष्य के प्राप्त होने की सुनिश्चित सम्भावना है। जीवन की समूची विधि व्यवस्था उच्चस्तरीय बनाने वाली जीवन साधना हमें आत्मदेव का साक्षात्कार कराती है और उनके अजस्र अनुग्रह से- चमत्कारी अनुदान से भरा पूरा बना देती हैं। सिद्धि इसी को कहते हैं।
कर्मफल प्राय: तुरन्त नहीं मिलता। आहार विहार के शरीर स्पर्शी क्रिया- कृत्य ही तात्कालिक अनुभूतियाँ प्रस्तुत करते है। शेष सभी कर्म अपना प्रतिफल उत्पन्न करने में थोड़ा विलम्ब लगा लेते हैं। माली का लगीच, किसान का खेत, विद्यार्थी का अध्ययन, परिपुष्टि- आकांक्षा का व्यायाम, उद्योगी का व्यापार आरम्भ से ही फल नहीं देने लगते है। उसमें समय लग जाता हैं। दूरदर्शी इसे सृष्टि का विधान समझकर धैर्य रखते और उपयुक्त समय आने की प्रतीक्षा करते है। पर बाल बुद्धि के लोग इस विलम्ब को सहन नहीं कर पाते और अधीर होकर अनुपयुक्त सोचने लगते है। विशेषतया कर्मफल तत्काल न मिलने की स्थिति में ऐसी ही हैरानी होती है। बहुधा सत्कर्मों का तत्काल प्रतिफल देखने में नहीं आता और प्रारब्ध वश कष्ट भुगतने की स्थिति में ही पड़े रहते हैं। ऐसी दशा में यह भ्रम होता कि प्रस्तुत कष्ट, सत्कर्मों का ही दुष्परिणाम है। इसी प्रकार कई दुष्कर्म करने वाले सुखी सम्पन्न एवं सफल पाये जाते हैं, इस स्थिति में भी भ्रम होता है कि कलियुग में दुष्कर्मों का फल सुख के रूप में और सत्कर्मों का फल दुःख के रूप में होता है। इसलिए उपासना, साधना आदि सत्कर्मों से दूर रहकर अनीति की रीति अपनाये रहना ही ठीक।