बच्चों के सहायक बनिए, शासक नहीं

बाल मस्तिष्क अपरिपक्व होता है। प्रत्येक बच्चा जन्म काल से ही निरन्तर उत्कर्ष और परिपक्वता की दिशा में अग्रसर रहता है। अपने बच्चे का विकास प्रत्येक माता- पिता चाहते हैं। लेकिन यह आकाँक्षा उस समय हानिकारक हो उठती हैं, जब वे बच्चे के विकास की प्रक्रिया के समझदार दर्शक न रहकर, अधीर हो उठते है और बच्चे को शीघ्र समझदार बना डालने के लिए बेचैन होकर सीख के नाम पर उस पर शासन करने लगते है। इसका परिणाम विपरीत ही होता है। बच्चे का मस्तिष्क माता- पिता के निर्देशों का अर्थ नहीं समझ पाता और गलत अर्थ लगा लेता है। इससे शिशु के मानसिक विकास को क्षति पहुँचती है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि बच्चे के मस्तिष्कीय विकास में हम सहायक बनें। बच्चे को आत्म- निर्भर बनने दे। उसे समझदार बनाने के फेर में परावलम्बी न बना डालें। आवश्यकता से अधिक निर्देश देने पर बच्चा सदैव माता- पिता की इच्छा ही भाँपता- ताकता रहता है, क्योंकि वह समझता है कि प्रशंसा और पुरस्कार प्राप्ति का यही एक मार्ग है। ऐसे में उसकी स्वतन्त्र निर्णय शक्ति कुन्द होने लगती है।

बालक की सामर्थ्य स्वतः ही विकासशील होती है। आवश्यकता मात्र इस बात की होती है कि उसकी विकास दिशा के प्रति जागरूक रहा जाए और सहायता की जाए। उदाहरण के लिए एक वर्ष का बच्चा जब खड़े होने का प्रयास करता है, तो उसे इतनी बुद्धि नहीं होती कि वह पहले यह अनुमान लगाये कि उसमें खड़े होने की सामर्थ्य आ गई या नहीं वह तो माता- पिता की तरह या बड़े भाई- बहनों की तरह स्वयं भी अपने पाँवों पर खड़ा होना चाहता है। इसके लिए वह सीधे खड़े होने की कोशिश करता है। इस प्रयास में वह बार- बार गिरेगा किन्तु यदि माता- पिता उसके इस प्रयास को देखकर उसे गिरने न देने की चिन्ता से गोदी में उठा लें, तो यह बच्चे के प्रति अन्याय होगा। उसका स्वाभाविक विकास रुक जायेगा। यही बात बच्चों के सीढ़ियाँ चढ़ने पर भी लागू होती है। गेंद आदि खेल रहा बच्चा किसी कुँए के बिल्कुल पास न पहुँच जाये या सड़क पर न चला जाये इतनी भर ही सावधानी पर्याप्त है। उसके दौड़ने, गिरने पड़ने से बहुत परेशान होना अनावश्यक है।

यहाँ माता- पिता को यह ध्यान रखना आवश्यक है, जहाँ बालक को पग- पग पर निर्देश देना हानिकर है, वही उसमें यह बोध भी बने रहने देना जरूरी है कि किसी भी अनावश्यक क्षण में उसे माता- पिता का सहज सहयोग उपलब्ध होगा। क्योंकि यदि बच्चे को मन में यह आश्वासन न रहे तो उसे एक तरह की अपंगता और हीनता का अनुभव होगा तथा उसके विकास में व्यवधान आयेगा। उसे हानिकर चेष्टाओं से विरत रखने के लिए भी अभिभावक की उपस्थिति एवं सतर्कता आवश्यक है।

शिशु के लिए संसार की प्रत्येक वस्तु जिज्ञासा की प्रेरक होती है। उसकी जिज्ञासा का समाधान आवश्यक है। झिड़की, डाँट- फटकार से उसकी जिज्ञासा वृत्ति तो कुण्ठित होगी ही, वह अर्थ का अनर्थ भी कर बैठेगा। उदाहरण के लिए बच्चा किसी पुस्तक या समाचार पत्र से खेलने को उतारू है, तो उसे बताया जाए कि यह पढ़ने की सामग्री है और इसे इस तरह हाथों में थामा जाता है। यदि उत्तेजना वश उसे झिड़क दिया गया तो वह यह समझ सकता है कि पुस्तकें आदि छूने की वस्तुएँ नहीं हैं। इससे उसकी उत्सुकता मन्द पड़ेगी। या फिर आकस्मिक डाँट से वह अभिभावक के पास आने से कतराने लग सकता है।

एक ओर जहाँ अकारण झिड़कना अनुचित है, वहीं अनावश्यक सहयोग भी हानिकारक है। पाठशाला जाने वाले बच्चे का गृह कार्य प्रारम्भ में स्वयं ही कर देने वाले माता पिता या भाई बहन बच्चे का अनिष्ट ही करते हैं। यदि शुरुआत ही इस तरह की हो गई तो बच्चा और बड़ा होने पर भी ऐसी ही अपेक्षा पाले रहेगा और परमुखापेक्षी तथा कातर बना रहेगा।

दूसरी ओर उसकी कठिनाई को न समझने पर तथा डाँट देने पर बालक के मन में उदासीनता घर कर जाएगी। यदि विद्यालय में सीखी बातें न समझ पाने के कारण बच्चा होम वर्क नहीं कर पा रहा है, तो उसे यह कहकर झिड़क देने पर कि स्कूल में क्या सोते रहते हो? उसके मन में कुण्ठा उत्पन्न हो जायेगी, वह होमवर्क को बोझ मान लेगा, पढ़ाई के प्रति उदासीन होने लगेगा और फिर सचमुच स्कूल में सोने लगेगा। उदासीनता की प्रवृत्ति का विकास बच्चे के व्यक्तित्व को अत्यधिक क्षति पहुँचाता है तथा उसे अधिकाधिक आत्म- केन्द्रित बनाता है। ऐसे ही शिशु आगे चलकर अपराधी या असामाजिक तत्वों के हस्तक बन जाते है। अतः बालक को निष्क्रिय एवं आत्म- केन्द्रित कभी भी नहीं बनने देना चाहिए। उसकी शक्ति क्रियाशील तथा रचनात्मक बनी रहे, इसका ध्यान रखना आवश्यक होता है।

बच्चों को डराना धमकाना तो कभी भी चाहिए ही नहीं। क्योंकि इससे उनमें कायरता और हीनता की भावनाएँ पनपती हैं। बालक की इच्छा का सदैव सम्मान करना चाहिए। जिस समय उसके मन में क्रीड़ा की लालसा प्रबल है, उस समय अध्ययन के लिए बैठने को विवश करना उस पर अन्याय है। सही विधि यह है कि उसे खेलने की अनुमति दे दी जाए और स्मरण करा दिया जाए कि इसके बाद पढ़ना है। वह सहर्ष इसे स्वीकार कर लेगा। उल्लास बच्चे में भरपूर होता है, उस उल्लास को कभी भी दबाना नहीं चाहिए। उसका सही उपयोग करना चाहिए। इस सबका यह अर्थ कदापि नहीं कि बच्चे को अनुशासन न सिखाया जाए। यदि बच्चे को खेलने की अनुमति देते समय आपने बाद में पढ़ने को कहा है, तो इस बात का ध्यान रखें कि वह खेल के बाद पढ़ने बैठता है या नहीं? यदि वह खेल के दौरान पढ़ाई वाली बात भूल गया है, तो उसे इसका स्मरण दिला देना चाहिए, यदि इस पर भी वह टालमटोल करता है तो अनुशासन की पद्धति निस्संकोच अपनानी चाहिए।

शिशु के दैहिक विकास की ही भांति, उसके व्यक्तित्व का विकास भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। उस ओर समुचित ध्यान देना अति आवश्यक है। बच्चे अतिशय संवेदनशील होते है और प्रत्येक घटना का उन पर प्रभाव पड़ता है। अतः उसमें विध्वंसात्मक प्रवृत्तियाँ विकसित न हो, इसकी चौकसी जरूरी है। ईर्ष्या- द्वेष, तोड़- फोड़ की भावनाएँ बचपन में ही जड़ जमा बैठती है और बड़े होने पर उनका विकराल रूप सामने आता है। किन्तु इन प्रवृत्तियों को भी मात्र दण्ड द्वारा नहीं सुधारा जा सकता। दमन के स्थान पर मार्गान्तरण का सहारा लेना ही लाभकर होता है। बच्चे की रचनात्मक प्रवृत्तियों के विकास का अधिकाधिक अवसर देने से उसकी विध्वंसात्मक प्रवृत्तियाँ परिमार्जित हो जाती हैं।

बच्चे सरल निश्छल होते हैं। उनकी एक सामान्य रुचि तो होती है, पर विशेष रुचियाँ अभ्यास से ही जगती है। जिस प्रवृत्ति का अभ्यास उन्हें होता जाता है, उसी ओर रुचि जगती जाती है। इसीलिए बालक के प्रत्येक अभ्यास का और उस अभ्यास के प्रति प्रत्येक प्रतिक्रिया का महत्त्व है। गलत आदतें डाँट- फटकार और शासन से नहीं, समझाने- बुझाने से ही छूटती हैं। बच्चे के लिए प्रत्येक बात नई होती है। इसलिए हमारे आदेश, उपदेश सुनते ही वह उनका पालन करने लगेगा, ऐसी अपेक्षा कदापि नहीं करनी चाहिए। उस निर्देश के पालन में उसे मानसिक कठिनाई का अनुभव हो सकता है। उस कठिनाई को सुलझाने में सहयोग देना अभिभावक का कर्तव्य है।

सारांश यह कि बालक निरन्तर ध्यान दिये जाने की अपेक्षा रखता है। उसे निर्देश देकर छुट्टी नहीं पाई जा सकती, अपितु प्यार और प्रत्यक्ष व्यवहार के साथ उसे कार्य विधि सिखानी होती है। इसीलिए तो प्रजनन एक गम्भीर दायित्व है।

बच्चों में अनुशासन और आज्ञा पालन की प्रवृत्ति के विकास के उत्सुक माता- पिता जब अनुशासन सम्बन्धी आदेश- निर्देश रौब दिखाकर या दबाव डालते हुए देते है, उस समय उन्हें स्मरण करना चाहिए कि यह व्यवहार बच्चे में विरोध की भावना जगायेगा या द्वेष बुद्धि उभारेगा। यदि प्रारम्भिक उपेक्षा के क्रम में बच्चे ने अनसुनी कर दी तब तो उत्तेजित माता- पिता मारपीट या चीख चिल्लाहट पर ही उतर आते हैं। इसकी प्रतिक्रिया बच्चे में बहुत तीव्र होती है और उनमें अनुशासनहीनता के बीज अंकुरित हो उठते हैं।

बच्चे की सुकुमारता और संवेदन शीलता को मात्र तीव्रता से प्यार करते समय ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण व्यवहार के समय याद रखना चाहिए। कोई भी आदेश देते समय यह जरूर देखा जाना चाहिए कि उस समय बच्चा कर क्या रहा है और उसकी मनःस्थिति क्या है? उदाहरणार्थ बच्चा किसी रुचिकर खेल में लगा है या एकाग्रता के साथ पढ़ रहा है या किसी हानि रहित चेष्टा में मस्त है, किसी अभिनय या अनुकरण की गतिविधि में विभोर है, तो उस समय उसे कभी कोई आज्ञा नहीं देनी चाहिए। छोटे बच्चों को खेल आदि से विरत कराने के लिए उसे कभी सीधी निषेधात्मक आज्ञा नहीं देनी चाहिए। उनके साथ खेल में कुछ देर स्वयं भी लगकर फिर प्रस्ताव या सुझाव रूप में अपनी बात रखनी चाहिए।

बच्चे को आदेश देने का सर्वोत्तम समय वह होता है जब वह माँ के पास शान्त स्वस्थ मनःस्थिति में होता है। आदेश मुख्यतः विधेयात्मक होने चाहिए, निषेधात्मक नहीं। यह मत करो, वहाँ मत जाना जैसे आदेशों के स्थान पर उन्हें आकर्षक और प्रशंसापूर्ण भाव से आदेश देना चाहिए। हमारा मुन्ना या मुन्नी अमुक काम करेगा या करेगी, अमुक वस्तु लायेगा या लायेगी आदि। आज्ञा देने से पूर्व बच्चे से यह न पूछे कि क्या तुम यह काम करोगे या करोगी? क्योंकि ऐसे पूछने पर ना की ही अधिक सम्भावना है और ना कर देने पर फिर उससे जोर जबर्दस्ती से काम लेने पर प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ेगा। आकर्षक, रचनात्मक शैली में दिये गये आदेश बच्चे की कौतूहल और मनोरंजन की भावना को प्रेरित तथा तृप्त करते हैं।

बच्चे को अनावश्यक रूप में बार- बार टोकना अच्छा नहीं। क्योंकि एक तो बच्चे स्वभावतः चंचल होते है, किसी काम पर अधिक नहीं टिकते, फिर टोकाटाकी से तो उनकी उस थोड़ी बहुत एकाग्रता, तन्मयता में भी विक्षेप पड़ता है। फिर बच्चे के मन पर यदि इस टोकने से उखड़ जाने वाले संस्कार अंकित हो गये तो आगे चलकर वे किसी भी काम पर तन्मय एकाग्र नहीं हो पाते, अपने सामने उपस्थित काम पर न जम पाने की प्रवृत्ति असफलताओं की ओर ही ले जाती है।

बच्चों की सहज अनुकरण बुद्धि को सदा ध्यान में रखना चाहिए। अबोध बच्चों के अन्तर्जगत् पर भी इसका सूक्ष्म प्रभाव पड़ जाता है। बोध रखने वाले बच्चों की तो कौतूहल भावना तीव्र हो उठती है और वे फिर परस्पर वैसा ही करने का प्रयास करते हैं। बच्चों में असमय विकसित यौन भावना तथा यौन अपराधों के विस्तार के लिए माँ- बाप की यही भूल मुख्यतः जिम्मेदार होती है। बच्चों को नंगे ही घूमने फिरने देना भी अच्छा नहीं। इससे भी उनकी यौन भावना समय से पूर्व ही जग जाती है। असमय में उत्पन्न यौन भावना को बच्चे गलत तरीकों से व्यक्त करते हैं। अभिभावकों को इस बात का भी सदा ध्यान रखना चाहिए। सम्मिलित परिवार प्रथा में वयोवृद्ध भी होते हैं। बालकों की चेष्टाएँ देखना, नियंत्रण करना उन्हें समय बिताने का सुन्दर उपाय प्रतीत होता है। इसलिए वे हड़बड़ी में नहीं होते। दुनियाँ देख चुकने के कारण वे छोटी- छोटी बात में अधीर भी नहीं हो उठते, यदि वे सुसंस्कृत हो तो उनमें अन्धा मोह भी नहीं होता। अतः वे बालक को समय भी भरपूर देते हैं, उसे खेल में सीख भी देते रहते है तथा शिशु को शासित बनाने की व्यग्रता भी उन्हें नहीं होती। ऐसे में शिशु का अधिक स्वस्थ विकास होता है। बच्चे को जन्म देने से कई गुनी अधिक जिम्मेदारी उसके व्यक्तित्व विकास में सहायक बनने की होती है। उसके क्रमशः परिपक्व होने में यथेष्ट सहयोग देने की क्षमता होने पर ही नये प्राणी के आगमन की इच्छा करनी चाहिए। बिना समुचित सहयोग के बालक का व्यक्तित्व सही ढंग से विकसित नहीं हो सकता और तब वह एक समस्याग्रस्त बालक बनता जाता है। आवश्यकता उसकी कठिनाइयों को समझने तथा उनके समाधान में सहयोग देने की होती है।

यहाँ यह भी स्मरणीय है कि बच्चों की देख−भाल, पालन- पोषण में जिस चातुर्य तथा योग्यता की आवश्यकता पड़ती है, वह वयस्क, परिपक्व व्यक्ति में ही होती है। इसलिए छोटे बच्चों की देख−भाल के लिये अल्पविकसित, अपरिपक्व बच्चों को जिम्मेदारी सौंप देना सदैव हानिकर होती है। बच्चे को प्रारम्भ में सहानुभूतिपूर्ण समझदारी की जरूरत होती है, कोई अनुभवी व्यक्ति ही ऐसा समझदारी का व्यवहार कर सकने में समर्थ होता है। बच्चों की जिज्ञासाएँ भी बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। बच्चों की जिज्ञासा को समुचित उत्तरों द्वारा शान्त करना आवश्यक होता है क्योंकि इन उत्तरों के द्वारा ही वे अपनी अनुभूतियों का ठीक- ठीक अर्थ समझने का प्रयास करते हैं। यदि उनकी जिज्ञासा की उपेक्षा हुई तो उनमें कुण्ठा पनप जाती है और यदि उत्तर गलत- सलत दिए गये, तो निर्दोष बच्चे उन्हें ही यथार्थ समझकर भ्रान्तियों के शिकार हो जाते हैं। इसलिए बालक के सही विकास के लिए प्रबुद्ध सहयोगी की सतर्क उपस्थिति एवं समीपता सदैव आवश्यक होती है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चे का प्रश्न काल तीसरे वर्ष से छठवें वर्ष तक पूरे जोर पर होता है। अपने प्रश्नों के उत्तरों के आधार पर बच्चा स्वयं अपने बारे में प्रत्यय बनाता है, उसी प्रत्यय के अनुसार वह दूसरों को समझने का प्रयत्न करता है। साथ ही इन्हीं उत्तरों के आधार पर ही बच्चा दृश्यमान वस्तुओं के आकार तथा स्वरूप के संवेदनात्मक बिम्ब ग्रहण करता है। बच्चे की प्रतिक्रियायें इन संवेदना बिम्बों के आधार पर ही होती है।

अतः व्यक्तित्व निर्माण के इस महत्त्वपूर्ण कालखण्ड में उसके सहयोगी अभिभावक की भी विशेष भूमिका रहती है। अपरिपक्व मस्तिष्क बच्चे को ऐसा सहयोग देना प्रत्येक अभिभावक का कर्तव्य हैं।







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