हरे और सूखे का अन्तर लगभग वैसा ही है जैसा जीवित और मृतक का। खाद्य- पदार्थों में हरेपन का, गीलेपन का होना उनकी रसता का, जीवित होने का चिह्न है। पानी सूखने के साथ- साथ उनकी कोमलता, स्वादिष्टता ही नष्ट नहीं होती, अनेक उपयोगी तत्व भी चले जाते हैं। हरी घास और सूखे भूसे के अन्तर को पशु भी समझते है। घास खाने वाले पशु मोटे तगड़े रहते है और भूसों पर गुजारा करने वाले थक जाते है, कम परिश्रम कर पाते हैं और कम दूध देते हैं। आहार के बारे में भी यही बात है। जड़ों द्वारा भूमि से निकाला हुआ और पेड़ों की नस- नाड़ियों में घूमता हुआ रस अनेक उपयोगी रासायनिक पदार्थों से युक्त होता है। सूखने के बाद उनकी यह उपयोगिता चल जाती है और जो कुछ शेष रहता है वह काम चलाऊ भर होता है।
आहार स्वाद तृप्ति और पेट की जलन मिटाने भर के लिए नहीं है, वरन् उसका वास्तविक उद्देश्य शरीर की क्षति को पूरा करना और उसके विकास में योग देना है। यदि यह बात समझ ली जाय तो आहार के गुणों पर ध्यान देना होगा। मनुष्य शाकाहारी है, वनस्पतियों की जड़े, पत्ते फूल- फल खाकर ही वह गुजारा करता है। स्पष्ट है कि वनस्पतियाँ तभी तक अपने गुणों से भरपूर रहती हैं जब तक वे हरी रहती हैं। अस्तु प्रयत्न यह करना चाहिए कि उन्हें हरे रूप में ही कच्ची खाया जा सके। यदि पाचन की सुविधा और स्वाद परिवर्तन की दृष्टि से पकाना, उबालना ही पड़े तो उसे मन्द आग पर कम से कम मात्रा में ही अग्नि सम्पर्क करना चाहिए। वस्तुएँ जितनी सूखी पुरानी, भूनी, तली होंगी उतना ही उनका गुण घटता जायेगा और उनसे पोषण भी उसी अनुपात से कम मिलेगा।
आज के प्रचलन में अन्न को प्रधानता मिली है। वही सुलभ और सस्ता पड़ता है। फल उत्पादन में भूमि बहुत घिरती है और शाक देर तक सुरक्षित नहीं रह सकते। फिर स्वाद की दृष्टि से दूसरी चीजें बाजी मारने लगी है, ऐसी दशा में फल, शाकों की ओर से उपभोक्ता और उत्पादनकर्त्ता दोनों की ही उपेक्षा होगी वह घटेगा ही। यही हुआ भी है। हमें अन्न पर निर्भर रहना पड़ता है। प्रयत्न यह करना चाहिए कि उसमें जितना कुछ पोषक अंश है कम से कम उसका उपयोग तो पूरी तरह कर लिया जाय।
इन दिनों होता यह है कि हर अनाज का छिलका फेंक दिया जाता है और उसका सूखा हुआ गूदा आटे के रूप में काम आता है। छिलकों में कसैलापन होता हैं और वे कड़े होने के कारण पकाने, चबाने में उतने सरल नहीं होते, इसी के कारण वे हटा दिये जाते हैं और पशुओं के काम आते हैं। रासायनिक दृष्टि से देखा जाय तो बीजों का सबसे महत्वपूर्ण और उपयोगी अंश इस छिलके में ही होता है, जीवन और शक्ति का सबसे बड़ा भाग इन्हीं में होता है किन्तु अज्ञानवश उन्हें निर्दयता पूर्वक फेंक दिया जाता है।
सूर्य की किरणों से ही प्रत्येक प्राणी एवं वनस्पति को जीवन मिलता है। किरणें बीज और फलों के ऊपरी हिस्से से टकराती है और सबसे अधिक पोषक तत्व जमा होते रहते हैं। विटामिन बी, विटामिन डी जैसे जीवन तत्व आमतौर से अनाज के छिलके में ही पाये जाते हैं। कमजोर व्यक्तियों को शक्तिदायक औषधियों के रूप में डाक्टर लोग अक्सर विटामिन बी का सेवन कराते हैं। औषधि रूप में उसका बहुत थोड़ा अंश पच जाता है शेष पीला पेशाब बनकर बाहर निकल जाता है। गेहूँ के छिलके में विटामिन बी की उतनी ही मात्रा रहती है जितनी कि मनुष्य का पेट आसानी से पचा सके। साथ ही दूसरे तत्व भी उसे पचाने में मदद करते हैं। गूदे में रहने वाले कैल्शियम आदि पदार्थ उसके शक्कर भाग को पचा देते हैं, किन्तु अकेली चीनी उतनी सफलता से नहीं पचती। यही अन्तर गेहूँ के छिलके में रहने वाले विटामिन बी और बाहर से खाये कैपसूल में रहता है। छिलका युक्त गेहूँ खाया जाय तो डाक्टरों द्वारा सुझाये हुए कीमती टानिकों से अधिक लाभ हो सकता है। पर हम है जो भूसी छान कर देते है और उसका गूदा भर काम में लेते हैं। यह तो ऐसा ही हुआ जैसे कोई चाय का रस निकाल कर फेंक दे और जो लुगदी बचती है उसी को सब कुछ समझ कर काम में लाये।
जिन अन्नों के छिलके आसानी से खाये जा सकते हैं उन्हें बिना छाने ही खाना चाहिए। जौ जैसे कुछ ही अनाज ऐसे होते हैं जिनका छिलका कड़ा और दुष्पाच्य होता है उसे निकालना पड़ता है। शेष सभी अनाज आसानी से छिलके सहित खाये जा सकते हैं। दाल छिलके समेत ही खानी चाहिए। दो दाल वाले अनाजों को दालों की संज्ञा में गिना जाता है। उनके जोड़ पर एक निशान चोंच जैसा उभार होता है, तोड़ने पर उस जगह एक गाँठ मिलती है। इसी केन्द्र को उनका सार भाग समझना चाहिए। चना मूंग आदि पूरे घुनकर खोखले हो जाएँ पर उनका पहला जोड़ चोंच वाला भाग ठीक रहे तो बोने पर अंकुर अवश्य उगेगा। इसके विपरीत यदि यह केन्द्र नष्ट हो जाये और पूरा दाना यथावत बना रहे तो उसके उगने की कोई संभावना नहीं है। इससे स्पष्ट है कि यह केन्द्र कितना महत्वपूर्ण है। इसे अलग कर देने पर आधे से अधिक सार तत्व गँवा दिया जाता है। दालें दो टुकड़े करके पकाने की अपेक्षा यदि साबुत ही खाई जाये तो वे कहीं अधिक पोषक सिद्ध होगी।
चावल का प्रचलन बहुत है पर दुर्भाग्य से उसके ऊपर की कीमती परत जो भूरे रंग की होती है हटाकर अलग कर दी जाती है। मिल का पालिश किया हुआ चावल आमतौर से ऐसा ही होता है। धान का छिलका तो चावल का डिब्बा भर है उसे तो नारियल के खोखले की तरह हटाना ही पड़ेगा पर चावल की ऊपरी भूरी पर्त अलग नही की जानी चाहिए। देखने में भले ही भात उतना सफेद सुन्दर न लगे तो भी वह परत वाला चावल बहुत गुणकारक होगा। बाजार में ऐसा चावल न मिले तो धान समेत खरीद कर उसे घर में ओखली में कूट लेना चाहिए और छिलका हटाने के बाद परत समेत चावल पकाना चाहिए।
यहाँ एक बात और स्मरण रखने की है कि आटा पीसने की चक्की को स्वास्थ्य दायिनी देवी की तरह घर- घर में प्रतिष्ठित रखा जाय। हृदय, फेफड़ा, जिगर, पेट, पेडू, कंधे, हाथ आदि अति महत्वपूर्ण अवयवों का सन्तुलित व्यायाम चक्की पीसने के अतिरिक्त और किसी प्रकार नहीं हो सकता। आहार की तरह ही व्यायाम का भी स्वास्थ्य रक्षा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। स्त्रियों को भोजन बनाने, झाड़ू लगाने जैसे काम तो ढेरों करने पड़ते है पर उनसे बड़े व्यायाम की आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती। इस कमी के कारण धड़ के भीतर रखा हुआ इन्जन खराब होने लगता है, अपच रहता है और गर्भाशय जैसे कोमल अंगों की पुष्टि नहीं हो पाती। धड़ के भीतर वाले अंगों की मजबूती के लिए उनका व्यायाम भी आवश्यक है। इसकी पूर्ति जितनी अच्छी तरह चक्की पीसने से हो सकती है उतनी और किसी उपाय से नहीं। यों कपड़े धोना, दही मथना भी पुराने जमाने में कई व्यायाम थे, पर उनका प्रचलन भी घट गया है और कम परिश्रम में इन कामों को कर देने वाले उपकरण निकल आये हैं। मशीन की चक्कियों ने हाथ चक्की का भी पत्ता काट दिया है। यह कम से कम स्वास्थ्य की दृष्टि से तो बुरा ही हुआ है।
जहाँ स्वास्थ्य का महत्व समझा जा रहा हो वहाँ हाथ चक्की का प्रचलन करने पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। आजकल शारीरिक श्रम करने वालों को छोटा और आराम तलब लोगों को बड़ा माना जाता है। परिश्रम में बेइज्जती और आराम में खुशहाली समझी जाती है। यह मान्यता दरिद्रता की निशानी और स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही अहितकर है। यह मान्यता बदली जानी चाहिए और पैसा बचाने की दृष्टि से न सही, स्त्रियों के लिए सर्वोत्तम व्यायाम मानकर ही पीसने का कम से कम थोड़ा बहुत अभ्यास तो जारी रखना ही चाहिए। घर की सभी महिलाएँ यदि इस दिशा में उत्साह दिखायें तो फिर नव वधुओं को भी इसमें अपमान और दबाव अनुभव न होगा।
हलका, सन्तुलित एवं उत्पादक व्यायाम चक्की पीसने से बढ़कर दूसरा कोई कदाचित ही हो सके। इसमें पैसे की बचत प्रत्यक्ष है। मशीन की चक्की पर अनाज पहुँचाना, वापिस लाना, पिसाई का पैसा देना, छीजन के नाम पर कटौती का आटा कम मिलना आदि काफी मँहगा पड़ता है। मँहगे अनाज में सस्ता मिला देने और तराजू में हेरा- फेरी करके कम तौलने में भी कोई- कोई चक्की वाले अपनी उस्तादी दिखाते हैं। उस समय और पैसे की बर्बादी को हाथ की चक्की सहज ही बचा सकती है। मशीन की चक्कियाँ तेजी से पीसती है और आटा आग जैसा गरम हो जाता है। इस अनावश्यक गर्मी से आटे के बहुत सारे गुण नष्ट हो जाते हैं। हाथ की चक्की धीरे- धीरे पीसती और उसका ठण्डा आटा गुणों की दृष्टि से कहीं अधिक अच्छा रहता है।
सूखे अनाजों को पुनः हरा करने का अच्छा तरीका यह है कि उन्हें अंकुरित कर लिया जाय। पानी में एक दिन भिगोये रखा जाय, दूसरे दिन भीगे तौलिये में उन्हें बाँधकर हवा में लटका दिया जाय, तो एक दो दिन में उनमें से अंकुर फूट आता है। इस स्थिति में अनाज भी हरे अन्न की तरह ही हो जाता है और उसे कच्चा अथवा उबाल कर खाया जा सकता है। जिनके पेट कमजोर हैं वे प्रायः कच्चे अन्न ठीक से पचा नहीं पाते, उन्हें उबाल कर दिया जा सकता है अथवा तवे पर हलकी आग से गरम किया जा सकता है। सूखने से पूर्व अन्न जब तक हरे रहते हैं, तब तक उनकी उपयोगिता और भी अधिक बढ़ी- चढ़ी होती है। मक्का, ज्वार, बाजरा, चना, मटर, गेहूँ की दालें तथा भुट्टे भूनकर किसान लोग बड़ी रुचि पूर्वक खाते हैं। इनमें से कुछ चीजें बाजार में भी बिकने आ जाती हैं। मक्के के भुट्टे और मटर के दाने तो फसल पर अक्सर सब्जी वालों की दुकान पर मिलते हैं। जिन्हें इस प्रकार का अन्न मिल सके उपयोग में लाने का प्रयत्न करना चाहिए। इनमें से हरे चना, मटर तो शाक भाजी के काम भी आ सकते हैं।
सूखे फलों में छुहारे की अपेक्षा खजूर, किशमिश की अपेक्षा अंगूर, सूखी नारियल गिरी से उसका पानी और कच्चा गूदा, सूखे अंजीर से हरे अंजीर इसीलिए अच्छे माने जाते है कि उनमें समूचे पेड़ का प्राकृतिक रस विद्यामन रहता है। सूखे अमचूर की अपेक्षा कच्ची आम की चटनी में अधिक जान रहती है। यही बात सूखे आँवले, पुदीना, धनियाँ, मिर्च, अदरक आदि पर भी लागू होती है। यह चीजें सुखाई हुई भी बाजार में बिकती है, पर हरी के जितने गुण उनमें शेष नहीं रहते।
हमारा आहार समय और धन तो काफी खर्च करा लेता हैं, पर उसमें पोषक तत्व नहीं रहते, फलतः कुपोषण के कारण जन साधारण का स्वास्थ्य गिरा हुआ रहता है, दुर्बलता और उदासी छाई रहती है। तनिक भी सर्दी- गर्मी या प्रतिकूलता उत्पन्न होते ही बीमारियाँ धर दबोचती हैं। बच्चों के शरीर की वृद्धि तेजी से होती है और पेट कमजोर होते हैं, अस्तु उन्हें अधिक सन्तुलित एवं पोषक तत्वों से युक्त आहार की आवश्यकता पड़ती है। हम लोग इस सम्बन्ध में न तो आवश्यक जानकारी ही रखते हैं और न जानकार लोग ध्यान देते हैं। फलतः बच्चों का विकास आरम्भ से ही रूक जाता है,। दुर्बलता एवं रुग्णता बचपन से ही उनके साथ हो लेती है और जिन्दगी भर तंग करती है।
यदि हमारी स्वाद, रुचि एवं निर्माण विधि में थोड़ा सा परिवर्तन किया जा सके, तो उतने भर से कुपोषण से उत्पन्न स्वास्थ्य संकट का समाधान निकल सकता है। आवश्यक नहीं कि बहुत कीमती खाद्य- पदार्थ ही खरीदे जायें। जो खाते है उसी को सऊर सलीके से थोड़े हेर- फेर के साथ पकाने खाने लगें तो उतने भर से जमीन- आसमान जितना अन्तर हो सकता है, हमारी गिरती हुई तन्दुरुस्ती संभल सकती है और बलिष्ठता की दिशा में बढ़ सकती हैं।
चटोरेपन पर अंकुश लग सके, मिर्च, मसाले, मिठाई, खटाई की भरमार रुक सके और खाद्य- पदार्थों के स्वाभाविक स्वाद में रुचि एवं सन्तोष का समावेश हो सके, तो पेट पर अनावश्यक भार लदना बन्द हो जायेगा और स्वाद में ठूँस- ठूँस कर खाने के कारण जो अपच उत्पन्न होती है, उसके कहीं दर्शन भी न होंगे। अपच पर काबू पाया जा सके, तो तीन चौथाई बीमारियों का अन्त हुआ ही समझना चाहिए।
पकाने की विधि में तेज आग का प्रयोग बन्द किया जाय और भाप से हलकी आग पर पकाने की प्रक्रिया अपनाई जाय। भाप से पकाने वाले स्टीम कुकर किसी भी नगर में मिल सकते हैं। यह प्रायः तीन चार डिब्बे के होते हैं। नीचे छोटी से अंगीठी रहती है। इन डिब्बों में दाल, चावल, शाक थोड़ा पानी डालकर पकने रख दिये जाते हैं और वे धीमे- धीमे हलकी आग पर दो तीन घन्टे में पककर तैयार हो जाते हैं। ये वस्तुएँ स्वादिष्ट भी होती हैं और उनके जीवन तत्व भी नष्ट नहीं होने पाते, अब प्रेशर कुकर भी चल पड़े हैं ।। इनमें दबाव और गर्मी अधिक रहने से भोजन जल्दी पक जाता हैं, स्वादिष्ट भी रहता है, किन्तु दबाव तथा गर्मी की अधिकता के कारण उतनी सरसता सुरक्षित नहीं रह पाती जितनी भाप की मन्द गति से, मन्दी आग पर पकान वाले पुराने ढंग के स्टीमकुकरों में बनी रहती है। बनाने की दृष्टि से भी वह सुविधा जनक रहते हैं। प्रेशर कुकर में पकने का समय पूरा हो जाने पर भी यदि उसे आग पर रखा रहने दिया जाय तो जलने फूटने का खतरा हैं, किन्तु स्टीम कुकर में थोड़े से कोयले डाल देने और वस्तुएँ चढ़ा देने के बाद निश्चिन्त रहा जा सकता है। वह पक तो दो तीन घन्टे में ही जायेगा, पर वैसे ही चार, छः घन्टे के लिए बिना देखभाल के छोड़ा जा सकता है। उतनी देर बाद भी भोजन गरम स्वादिष्ट और यथावत निकलेगा।
बड़े स्टीम कुकर अपने हाथों थोड़ी सी लुहार की मदद लेकर आसानी से बनाये जा सकते हैं। इनमें रोटी तो नहीं पक सकती, पर डबल रोटी, बाटी किस्म की कुछ चीजें पकाने की तरकीबें निकाली जा सकती हैं। सब मिलाकर रसोई घर का एक अनिवार्य उपकरण यह भाप कुकर बनना चाहिए और इसका प्रचलन, प्रशिक्षण सर्वत्र होना चाहिए। इसके सहारे पकाते समय भोजन का सार तत्व जो बहुत बड़ी मात्रा में नष्ट होता रहता है, सरलता पूर्वक बचाया जा सकता है। अब तो प्रेशर कुकर क्रान्ति घर- घर पहुँच चुकी है। चाहे कोयले की अंगीठी पर धीरे- धीरे भाप से पकाने की प्रक्रिया हो अथवा चूल्हें पर आधुनिक प्रेशर कुकर से पकाने की विधि अपनायी गयी हो, दोनों के ही अपरिमित लाभ हैं। आहार क्षेत्र में यह क्रान्ति किसी भी स्थिति में लायी ही जानी चाहिए।
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