काया को रुग्ण और दुर्गतिग्रस्त न बनायें

सृष्टा ने इस संसार में जितने भी प्राणी बनाये हैं, उन सभी को ऐसा शरीर, ऐसा अवसर एवं ऐसा साधन भी प्रदान किया है कि वे सभी सुख शान्ति पूर्वक रह सकें और जितना आयुष्य मिला है, उसे पूरी अवधि तक निरोग रह कर जी सकें। अपवाद तो सर्वत्र देखे जाते हैं, पर सामान्य नियम यही है। इस आधार पर प्राणियों के अपने संसार चल रहे है।

आश्चर्य इस बात का है कि मनुष्य ही क्यों इस सृष्टि व्यवस्था से अलग हटकर रह रहा है, जबकि उसे अपेक्षाकृत और भी प्रसन्न और बलिष्ठ होना चाहिए था। जिन्हें मात्र प्रकृति प्रेरणा और उपलब्ध साधनों से ही गुजारा करते हुए काम चलाना पड़ता है, उनकी तुलना में मनुष्य की स्थिति कहीं अधिक अच्छी है। अन्यान्यों की अपेक्षा उसकी शरीर संरचना में विलक्षणता है। ऐसे सुनियोजित हाथ किसी को नहीं मिले, जिनमें इतनी अँगुलियाँ, इतने मोड़, इतने जोड़ हों। खड़े होकर चलना किसी को नहीं आता। इसके अतिरिक्त बोलने और सोचने के तन्त्र भी ऐसे हैं, जिनकी समता और किसी प्राणी के साथ नहीं होती। सहकारिता का, आदान- प्रदान का ऐसा विलक्षण स्वभाव उसे मिला है, जिसके सहारे वह परिवार बसाने और समाज बनाने में समर्थ हो सके। प्रगति क्रम में इतना आगे बढ़ सकने की सुविधा उसे निजी पुरुषार्थ से ही नहीं मिली है, ईश्वर प्रदत्त ऐसे उपहार, अनुदान भी उसके साथ है, जो एकांकी उसी के हिस्से में आये हैं। ऐसी विलक्षण काया हस्तगत न हुई होती, तो कदाचित वह भी अपने तथा कथित पूर्वजों की श्रेणी में ही रह रहा होता। चिंपांजी, गोरिल्ला जैसे वनमानुषों की तरह आदिम काल जैसी स्थिति में रहकर ही किसी प्रकार दिन व्यतीत कर रहा होता।

सृष्टा के अनुदानों का उसने भौतिक सुविधा- साधन बढ़ाने में समुचित उपयोग भी किया है। प्रकृति की उसने विनम्र मनुहार भी की है और लड़- झगड़ कर अधिक हथियाने की चेष्टा भी। उसके अंचल में छिपे अनेकानेक रहस्यों को उसने इस उस खिड़की में से ताक- झाँक लगाकर आश्चर्य जनक मात्रा में समेट- बटोर लिया है। आज बिजली भाप, गैस जैसे सामान्य साधनों से होकर ईथर तरंगों, लेसर किरणों, अणु विकिरणों जैसे रहस्यों तक उसकी पहुँच दौड़ी है। फसल उगाने, खनिजों को खोद निकालने, जल, थल और नभ में द्रुतगामी वाहनों पर दौड़ लगाने, दूर श्रवण, दूर दर्शन जैसी सिद्धियों का अधिष्ठाता बनने की सफलताएँ देखते ही बनती है। कला और साहित्य में उसकी प्रगति अद्भुत है। आजीविका कमाने, सुविधा सम्पन्न निर्वाह करने, समाज बनाने, शासन करने, युद्ध में प्रवीण होने जैसे अनेकानेक कौशल भी हस्तगत किये हैं। शिक्षा, चिकित्सा, परिधान जैसे अगणित सुविधा- साधनों के रहते मनुष्य अन्यान्य प्राणियों की तुलना में अधिक खिन्न विपन्न रहे, तो समझना चाहिए कि कही कोई मौलिक भूल हो रही है, अन्यथा कोई सामान्य कारण ऐसा हो नहीं सकता, जिसके कारण सृष्टि का मुकुटमणि समझा जाने वाला इस प्रकार दीन- हीन मनःस्थिति और खिन्न- विपन्न परिस्थिति में पड़े रहकर दिन गुजारे।

आरोग्य प्रकृति प्रदत्त ऐसा अनुदान है, जो सभी प्राणियों को समान रूप से उपलब्ध है। मनुष्य के पाश- बन्धन में जो प्राणी नहीं बँधे है, उन्हें छोड़कर सभी पशु- पक्षी निरोग रहते और कलोल करते है। नियत समय पर मौत बुढ़ापा तो सबको आता है। दुर्घटनाग्रस्त भी कारण वश होना पड़ता है, पर आये दिन बीमार पड़ने जैसा त्रास किसी को भी नहीं सहना पड़ता। सभी गहरी नींद सोते, प्रसन्न वदन उठते और दिन भर कुदकते- फुदकते जिन्दगी का आनन्द लूटते हैं। एक मनुष्य ही है जो आये दिन कराहता कलपता है। दर्द, सूजन, जकड़न, तनाव, अपच, अवरोध उभार जैसी अनेकानेक शिकायतें लेकर हकीमों और दवाखानों में झक मारता फिरता है। दवा- दारु बेचारी क्या करे। उनकी औकात ही कितनी है। कुछ क्षण जादू चमत्कार दिखाने के अतिरिक्त उनमें से किसी में भी ऐसी क्षमता नहीं है, जो रोग की जड़ तक पहुँच सके और मूल कारण यथावत बना रहने पर भी रोग मुक्ति का वरदान दे सके। यही कारण है कि अस्पतालों, डॉक्टरों और नये- नये औषधि विज्ञापनबाजी के होते रहने पर भी सर्वसाधारण का आरोग्य दिन दिन क्षीण होता चला जा रहा है। हर नया दिन पुरानों से बुरा बीतता है। हर पीढ़ी पुरानी से कमजोर होती है।

स्वास्थ्य संवर्धन के निमित्त सरकारों से लेकर वैज्ञानिकों तक को बहुत चिन्ता है। बलवर्धक टॉनिकों के चमत्कारी गुण बता कर विज्ञापन बाज करोड़पति बन गये, किन्तु यथार्थता सर्वथा नंगी है। इस आधार पर किसी को भी खोया स्वास्थ्य वापिस लौटाने का अवसर नहीं मिला। टॉनिक कैप्सूल निगलते रहने पर भी किसी का कोई भला नहीं हुआ। अन्ध विश्वासों में बुरे किस्म की मूढ़ मान्यताएँ यह है कि दवाओं के सहारे खोया स्वास्थ्य पाया जा सकता है। इसी में एक कड़ी और भी जुड़ सकती है कि बीमारियों का कारण ग्रह- नक्षत्र, भूत- पलीत या विषाणु- कीटाणु है। यदि वे ही कारण रहे होते तो फिर किसी का भी उनसे बच निकलना कठिन था। वे इतने समर्थ हैं कि किसी को भी दबोच सकते हैं और किसी का भी कचूमर निकाल सकते हैं। उनके सामने बेचारी दवा- दारु की क्या बिसात? किस बलबूते पर वे विषाणुओं को मारें, वात, पित्त, कफ़ से निपटें और ग्रह नक्षत्रों के विरुद्ध किस प्रकार मोर्चा ठानें। यदि वस्तुतः बीमारियों के कारण, शरीर से बाहर अन्यत्र रहे होते और वे आक्रमण करके रोगी बनाते तो निश्चय ही उनकी पकड़ से एक भी पशु- पक्षी एवं जीव- जन्तु न बचा होता। जब आठ- गाँठ कुम्यैत, चतुरता में कौए और चीते को मात देने वाले मनुष्य पर वे घात लगा सकती है तो बुद्धिहीन, साधन हीन जीव जन्तुओं को वे क्यों बख्शती। सबसे पहले वे उन्हीं का सफाया करके अपना पेट भरती, इसके बाद मनुष्य से लोहा लेने की मोर्चा बन्दी करती। इस रणनीति से तो बीमारियों समेत हर कोई परिचित है कि पहले दुर्बल पर हमला करना चाहिए। सरल काम में हाथ डालना चाहिए। बीमारियों को इतना भी पता न हो यह हो ही नहीं सकता। ऐसी दशा में विचारणीय यह है कि बीमारियाँ मात्र मनुष्य पर ही हमला क्यों करती है, अन्य जीव- जन्तुओं को दबोचने में उनकी रुचि क्यों नहीं?

तथ्यों तक पहुँचना हो तो आज या हजार वर्ष बाद इसी निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि प्रकृति, अनुशासन के प्रति विद्रोह करके मनुष्य ने अपने सिर पर आफत मोल ली है। प्रकृति किसी को नहीं बख्शती। वन विनाश होगा तो वह अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूक्षरण, महामारी का दण्ड देगी। जीवनी शक्ति का ह्रास होगा तो प्रकृति का ब्रह्मास्त्र सीधे प्रतिकूलताओं से मोर्चा लेने वाली रण सेना पर पड़ता है और उनके कमजोर पड़ते ही बीमारियाँ आ घेरती हैं। जीवाणु तो हमारे अपने अन्दर भी है। फिर वे क्यों आफत नहीं मचाते। जब- जब भी उनसे छेड़खानी की जाती है परावलम्बन पर जी रहे, पर मनुष्य के सहयोगी बनकर बसे हुए ये जीवाणु घातक एण्टीबायोटिक दवाओं से नष्ट होते हुए विकृति को जन्म दे जाते हैं। ऐसी व्याधियाँ विकास क्रम में अत्यन्त घातक बन जाती है और धीरे- धीरे मनुष्य को अपना गुलाम बना लेती है। आज की परिस्थितियों में जी रहे मनुष्य ने तो सचमुच मूर्खता वश इन बीमारियों को न्योत बुलाया है और आव भगत के साथ उन्हें अपना मेहमान बनाया है। मनुष्य कितना ही चतुर क्यों न हो पर वह चतुरता ऐसी नहीं हो सकती जो प्रकृति को चकमा दे सकने में सफल हो सके। मनुष्य कितना ही बड़ा क्यों न हो, वह प्रकृति व्यवस्था से बड़ा नहीं हो सकता। मनमानी आपस में तो की जा सकती हैं, दुर्बलों को भी सताया जा सकता है, पर प्रकृति को परास्त करने में उस मनमानी को सफलता नहीं मिल सकती। इसी को कहते है राई का पर्वत होना, चिनगारी का दावानल के रूप में प्रकट होना, बीज का वृक्ष बनना और खड्ड में गिरने का मजाक करते ही बेमौत मरना।

मनुष्य ने अनेकानेक आविष्कार किये है और वे सभी एक से एक बढ़कर अद्भुत है। उनमें से चकित करने वाला बहुत बड़ा आविष्कार है, बीमारियों को जन्म देना और उन्हें अपनी ही काया में पाल पोसकर दैत्य जितनी बलिष्ठ बनाना। यह आविष्कार वहाँ से आरम्भ होता है जहाँ अपने निर्वाह क्रम में से प्रकृति की विधि- व्यवस्था को तोड़- फोड़ कर फेंक देने का दुस्साहस संजोया जाता है, आहार विहार के क्षेत्र में जानबूझ कर पग- पग पर अतिक्रमण उत्पन्न किया जाता है।

इसे दुर्बुद्धि का प्रथम दौर ही कहा जा सकता है, जिसके अनुसार मनुष्य सोचता है कि शरीर खिलौना है और उसके साथ किसी भी प्रकार खिलवाड़ की जा सकती है। उसे औंधा- सीधा किसी भी प्रकार झुनझुने की तरह बजाया जा सकता है, और गेंद की तरह कहीं भी उछाला, पटका जा सकता है, ठोकर मारकर कहीं से कहीं पहुँचाया जा सकता है। यह समझना भूल है कि काया को प्रकृति अवस्था से छीनकर पूरी तरह अपना बना लिया गया है और उसके साथ कैसा ही व्यवहार करते रहने की छूट मिल गई है। यह अहमन्यता एक सीमा तक ही निभ सकती है। जब पेट में हवा भर कर बैल बनने के प्रयास करने वाले मेढ़क जैसा दुस्साहस अपनाया जायेगा तो निश्चय ही उसका बुरा नतीजा होगा। प्रकृति अनुशासन की उपेक्षा करके शरीर के साथ मनमानी करने धींगामुश्ती बरतने में मनुष्य ने पाया कम और खोया अधिक है। अच्छा होता वह तथ्य को समझता, भूल अनुभव करता, वापस लौटता और निर्वाह क्रम ऐसा बनाये रहता जैसा कि संसार के समस्त प्राणी शालीनता पूर्वक अपनाते और सुख शान्ति के साथ दिन बिताते हैं।

प्रकृति अनुशासन ऐसे नहीं है जिन्हें सीखने पढ़ने के लिये किसी कॉलेज में भर्ती होना पड़े या अभ्यास के लिये उस्तादों का शागिर्द बनना पड़े। वह अन्तःचेतना के साथ जुड़े हुए है। प्रकृति प्रेरणा इसी को कहते है। इसे हर जीव जन्तु भली प्रकार अनुभव ही नहीं, पालन भी करते हैं। ईश्वर उदार है वह भक्त जनों के साथ पक्षपात करता और प्रार्थना करने पर क्षमा करता भी सुना जाता है, किन्तु प्रकृति अनुशासन में इस प्रकार के व्यतिरेक की कही कोई गुंजाइश नहीं है। मनुष्य हो या देवता जो भी उसकी अवज्ञा करेगा, करनी का फल भुगतेगा और औंधे मुँह गिरेगा। मनुष्य की कायिक दुर्गति का यदि एक मात्र कारण इसी दुर्बुद्धि को कहा जाय तो उसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी।

शरीर मनुष्य को उपभोग करने भर के लिये मिला है। उसके साथ निर्धारित नियमों का उल्लंघन करने की मनमानी नहीं की जा सकती। धरोहर पर मालिक का भी अधिकार बना रहता है। सही उपयोग करने की शर्त पालन करने तक ही वह अधिकार अक्षुण्ण रहता है। किरायेदार मकान को तोड़- फोड़ करने लगे, ऑफिसर सरकारी खजाने को अपने काम लाने लगे तो मुसीबत खड़ी होगी कि नहीं? मोटर अपनी होने पर भी ड्राइवर निर्धारित विधि- व्यवस्था तोड़े तो दुर्घटना होनी निश्चित है। शरीर के सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती है। इस तथ्य को भली भाँति समझ लेना चाहिए।

यह काया सही उपयोग करके सही लाभ उठाते रहने भर के लिये अमानत के रूप में दी गयी है। उस पर शत- प्रतिशत अपनी मालिकी नहीं है। इतनी तो स्त्री- बच्चों पर भी नहीं हो सकती। उन्हें अनुचित रीति से सताया नहीं जा सकता। पशुओं तक पर निर्दयता बरतने के विरुद्ध कानून है और वैसा करने पर राजकीय कोप का भाजन बनना पड़ता है। लोक भर्त्सना तो होती ही है। शरीर के सम्बन्ध में इतना तो सोचा ही जाना चाहिए कि वह प्रकृति व्यवस्था से सर्वथा मुक्त नहीं है। उसे सही रूप मे सही समय तक बनाये रहना यदि सचमुच ही अभीष्ट हो तो फिर इतना और गाँठ बाँधना चाहिये कि प्रकृति- मर्यादाओं को पालन करने के लिये इच्छा या अनिच्छा से बाधित होना ही पड़ेगा।

अपना मन क्या कहता है? आदत क्या पड़ गई है? प्रचलन क्या है? इन सब बातों को ताक में रख कर इतना ही सोचना होगा कि इन समस्त अड़ंगेबाजी की तुलना में प्रकृति का अनुशासन बड़ा है। अराजकता मचाने पर शासकीय प्रताड़ना सहनी पड़ती है। असामाजिक आचरण करने वाले अपराधी आततायी अपनी करनी का फल भुगतते हैं। प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध ताल ठोकने वाले भी चट्टान से टकरा कर सिर फोड़ने का उदाहरण बनते हैं।

स्वास्थ्य की उपयोगिता जिन्हें विदित हो, जिन्हें निरोग रहना अच्छा लगता हो, जिन्हें अकाल मृत्यु से जल्दी मरने की उतावली न हो, उनको इतनी समझदारी का भी परिचय देना चाहिये कि प्रकृति अनुशासन ऐसा उपक्रम है जिसे जानने, अपनाने और पालने में ही भलाई है। इस संदर्भ में सभी प्राणियों ने अपना आचरण ऐसा बनाया है जिसमें न तो व्यतिरेक का दोष उन पर लगे, न अराजकता, उच्छृंखलता अपनाने पर प्रताड़ना का भाजन बनना पड़े। विष खाने पर न विद्वान बन सकता है न मूर्ख। आग में हाथ डालने पर जलने में न धनी बन सकता है न निर्धन। उस क्षेत्र में राजा, रंक सभी को एक पंक्ति में खड़ा होना पड़ता है।

आहार और विहार की मर्यादाएँ ऐसी है, जो हर किसी को पालनी चाहिए। वे क्या हो सकती है इसके लिये न वैज्ञानिकों से पूछताछ करनी है, न विशेषज्ञों के पास जाना है, और न पंडितों से धर्म शास्त्रों के अभिवचन जानने है। यह कार्य इस सृष्टि के छोटे से छोटे जीव−जन्तु द्वारा अपनाई जाने वाली गतिविधियों का निरीक्षण करके भी सरलता पूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है। मनुष्य के पास ऐसा कुछ नहीं है, जिसे सृष्टि के अन्य प्राणी सीखें और अपना सुधार करने की बात सोचे। जीव जगत के हर सदस्य के पास ऐसा बहुत कुछ है जिसे तथा कथित प्रगति की डींग हाँकने वाले मनुष्य में से प्रत्येक को सीखना समझना चाहिये और गलतियों को सुधारने की दूरदर्शिता अपनानी चाहिये। आहार विहार में औचित्य का समावेश करते ही वह राजमार्ग मिल जाता है जिस पर चलते हुये अविच्छिन्न आरोग्य का लाभ मिल सके। निरोग, बलिष्ठ और दीर्घ जीवन का लाभ मिल सके।

यहाँ यह तथ्य और भी स्मरण रखने योग्य है कि प्रकृति विपर्यय अपनाने में अहित ही अहित है। दुर्बुद्धि हर क्षेत्र में दुर्गति में परिणत होती है। आहार- विहार की प्रकृति विरोधी नीति अपनाये रहने पर हमें अनन्तकाल तक काया को निरोग रखने के लिये ठहरना और तरसना पड़ेगा। औषधि नहीं प्राकृतिक जीवन क्रम ही एक मात्र वह सम्बल है, जो मनुष्य में प्राण शक्ति सतत फूँकता रहता है। इसी के अभाव में व्यक्ति ओज हीन, तेज हीन होते देखे जाते हैं। प्राण शक्ति का संचय आहार विहार के नियमों का पालन करने पर ही संभव है, इसे एक अकाट्य तथ्य मान कर चलना चाहिए।







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