प्रगति का प्रथम सोपान स्वास्थ्य संवर्धन

स्वस्थ शरीर एवं स्वस्थ मन दोनों का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। दोनों के सही रहने पर दुर्बलता और रुग्णता से पीछा छूटता है और मनुष्य कोई कहने लायक पुरुषार्थ कर सकने में समर्थ होता है। इस दृष्टि से जो गई गुजरी स्थिति में रहेगा, वह अपने तथा दूसरों के लिए भार बनकर रहेगा। असमर्थ व्यक्ति दूसरों के सहारे अपनी नाव चलाता है या पिछड़ेपन से ग्रसित रहकर किसी प्रकार दिन काटता है। ऐसों से देश, धर्म, समाज, संस्कृति के लिए पुण्य- परमार्थ के लिए कुछ कर सकने की आशा नहीं की जा सकती। आत्मरक्षा, स्वावलम्बन, पराक्रम, प्रगति से लेकर परमार्थ साधनों तक में से एक भी उद्देश्य स्वस्थ शरीर रखे बिना बनता नहीं। दुर्बल और रुग्ण शरीर के विचार भी निषेधात्मक पतनोन्मुख रहते हैं, ऐसा व्यक्ति न केवल स्वयं दुःख पाता है, वरन् दूसरों को भी दुःख देता है। समाज व्यवस्था की दृष्टि से पिछड़ापन एक अभिशाप हैं, भले ही वह शारीरिक, मानसिक, आर्थिक किसी भी स्तर का क्यों न हो।

लोक हित की दृष्टि से जन साधारण को बलिष्ठ, निरोग बनाने के लिए परमार्थ परायणों को, सृजन शिल्पियों को निरन्तर प्रयत्न करने चाहिए। यह प्रयास समय- समय पर अन्यान्य महामानवों ने भी किए हैं। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र के हर गाँव में महावीर मन्दिर स्थापित किए थे और उनके साथ शरीरों को बलिष्ठ बनाने वाली व्यायामशालाओं को, मन को प्रखर बनाने वाली कथा परम्पराओं को समान महत्व दिया था। यही कारण रहा कि शिवाजी को उस क्षेत्र से सैनिकों, शस्त्रों और साधनों की प्रचुर उपलब्धि हो सकी और स्वतन्त्रता संग्राम का शुभारम्भ सफल सम्भव हो सका।

गुरु गोविन्द सिंह के एक हाथ में माला- दूसरे हाथ में भाला रखने की नीति ने प्रत्येक शिष्य (सिक्ख) को बलिष्ठ और सशस्त्र रहने का प्रावधान बताया था। प्राचीनकाल में भी ‘अग्रत: चतुरो वेदा: पृष्ठत: सशरं धनु:।’ की परम्परा थी। परशुराम, विश्वामित्र, द्रोणाचार्य आदि ऋषियों ने इस स्तर की प्रखरता स्वयं कमाई और दूसरों को सिखाई थी। योग साधनाओं में शारीरिक समर्थता के लिए आसन और मन को प्रखर बनाने के लिए प्राणायामों का अष्टांग योग का चतुर्थांश निर्धारित किया है।

रोगी की चिकित्सा एक तात्कालिक आवश्यकता है। इस दृष्टि से चिकित्सा उपचार का अपना महत्व है। अस्पतालों चिकित्सकों की इस हेतु आवश्यकता है ही, पर बात इतने भर से कहाँ बनती है। जाना गहराई तक पड़ेगा और निवारण उस मूलभूत कारण का करना पड़ेगा, जिससे लोग दुर्बल होते, रोगी बनते और अकाल मृत्यु के मुँह में जा घुसते हैं। आहार- विहार के असंयम के कारण ही शरीरबल और मनोबल क्षीण होता चला जाता है और अन्तत: चिकित्सा की आवश्यकता पड़ती है। होना यह चाहिए कि चिकित्सा उपचार से भी अधिक स्वास्थ्य सम्वर्धन को महत्व दिया जाय और उस क्षेत्र में बरती जाने वाली उपेक्षा एवं अवांछनीयता को दूर किया जाय। इसके बिना न दुर्बलता घटेगी, न रुग्णता मिटेगी।

स्वास्थ्य शालाओं की आवश्यकता पाठशालाओं से किसी भी प्रकार कम नहीं है। बुद्धि को प्रखर बनाने के लिए जिस प्रकार शिक्षा की आवश्यकता समझी जाती है और उसके लिए हर किसी की इच्छा अपने को, अपनों को अधिकाधिक शिक्षावान सुयोग्य बनाने की रहती है। ठीक उतनी ही उपयोगिता स्वास्थ्य शाला में प्रवेश पाने की भी समझी जानी चाहिए। ज्ञानवर्धन से भी पहली आवश्यकता स्वास्थ्य सम्वर्धन की समझी जाय, यह उचित उपयुक्त है।

इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि पाठशालाओं की ओर जितना ध्यान दिया जाता है, उतना आरोग्य शालाओं की ओर नहीं। कुछ ध्यान दिया भी गया है, तो औषधियों, दवाखानों और चिकित्सकों को बढ़ाने मात्र का प्रयत्न चला है। यह नहीं सोचा गया कि आरोग्य के मूलभूत नियमों का इसी प्रकार व्यतिक्रम चलता रहा, तो उभरने वाली दुर्बलता टॉनिकों के सहारे दूर न की जा सकेगी। उभरती हुई रुग्णता पर इन्जेक्शनों के बलबूते काबू न पाया जा सकेगा। जड़ सींचनी चाहिए। पत्तों पर छिड़काव करने से क्या बनेगा।

स्थापना आरोग्य मन्दिरों की भी होनी चाहिए। विद्या मन्दिरों और उपासना देवालयों से कम महत्व उन्हें भी नहीं मिलना चाहिए। प्राचीन काल में यह प्रबन्ध हर गाँव में था। भले ही पाठशाला न हो पर व्यायामशाला अवश्य होती थी, अखाड़े बने होते थे। उस्तादों की तूती बोलती थी। जो लड़का उसमें नहीं पहुँँचता था, बचकाना या मनचला, आलसी- विलासी समझा जाता था। साथी उसे तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे। यही कारण था कि पहलवानी की प्रतिस्पर्धा ठनी रहती थी। त्योहारों पर जगह- जगह दंगल नियोजित होते थे। उनमें कुश्ती ही नहीं, क्षेत्रीय परम्परा के अनुरूप अनेकों प्रकार की बल प्रदर्शन प्रतियोगिताएँ भी होती थी। कुश्ती और लाठी, गदा, तलवार आदि चलाने की शिक्षा पर उन दिनों अधिक जोर दिया गया, जिन दिनों कि शासकों की आक्रामकता और लूट- खसोट ने बेतहाशा सिर उठाया था। सामान्यतया लड़ने- लड़ाने को कम, बलिष्ठ बनाने की आवश्यकता को ही अधिक महत्व दिया जाता था।

प्राचीन काल में आहार- विहार का संयम सभी बरतते थे। आवश्यकता व्यायाम द्वारा बलिष्ठ बनने की अधिक रहती थी। इसलिए उन दिनों की आरोग्य शालाओं का नाम व्यायामशाला ही रहता था। कार्य पद्धति भी उतने ही उपक्रम तक सीमित रहती थी। आहार, ब्रह्मचर्य आदि का तो व्यायामप्रेमी स्वयं ही ध्यान रखे रहते थे। आज उन प्रयासों को नये सिरे से जमाने एवं बढ़ाने की आवश्यकता है। उनमें पुरातन काल जैसी व्यायाम पद्धतियों की तो प्रमुखता रहे ही, पर बढ़ना एक कदम और आगे पड़ेगा। आहार- विहार के क्षेत्र में जो विकृतियाँ घुस पड़ी हैं, निराकरण उन्मूलन उनका भी करना पड़ेगा। अन्यथा असंयमजन्य खोखले मन के रहते व्यायाम करने की किसी में इच्छा ही न उठेगी, शक्ति ही न बचेगी। थकान और तनाव से जर्जर शरीरों को अपनी लाश ढोना ही भरी पड़ता है फिर व्यायाम की इच्छा और हिम्मत किसके सहारे जगे।

प्रज्ञा अभियान के अर्न्तगत जहाँ अन्त:करण परिष्कार के लिए उपासना का, व्यक्तित्व के निखार के लिए जीवन साधना का और समाज में स्नेह सहयोग की आराधना परम्परा का प्रचलन किया जा रहा है, वहाँँ एक चौथा काम आरोग्य शालाओं की स्थापना का भी किया जाय। जिस प्रकार प्रौढ़ शिक्षा के लिए सर्वत्र रात्रि पाठशालाओं का प्रयत्न किया जा रहा है, उसी प्रकार व्यायामशालाओं की स्थापना पर भी पूरा- पूरा ध्यान दिया जाय। इसके लिए आवश्यक उत्साह उभारने, साधन जुटाने एवं प्रचलन बढ़ाने में भी कुछ उठा न रखा जाय। उनका नाम पिछली परम्परा के अनुरूप व्यायामशाला ही रखा जाय तो भी हर्ज नहीं। ध्यान इतना ही रहना चाहिए कि व्यायाम की प्रधानता रहने पर भी इन स्थापनाओं का उद्देश्य आहार- विहार का समग्र परिष्कार है। अब एकांगी व्यायाम ही पर्याप्त नहीं, उससे पूर्व सर्व साधारण के स्वााव में संव्याप्त आरोग्य की जड़े काटते रहने वाली कुचेष्टाओं के दुष्परिणामों से भी जन- जन को अवगत कराना पड़ेगा। संयम शिक्षा की नींव पर ही पुष्टाई की व्यायाम प्रक्रिया को गतिशील बनाया जा सकेगा।

बढ़ते हुए चटोरेपन ने रसोई घर को एक प्रकार से आरोग्य अनाचार का घर बना दिया है। तलने भूनने, मसाले की भरमार रहने की प्रक्रिया को इन दिनों पाक विद्या का गुण माना जाता है। अनाज, दाल शाक, फल सभी के छिलके उतार फेंके जाते हैं। हल्की आंच पर उबालने भर से तो कहीं काम नहीं चलता। फलत: कोयले स्तर का आहार उदरस्थ करना पड़ता हैं, स्वादिष्टता के नाम पर अभक्ष्य को आवश्यकता से अधिक मात्रा में ग्रहण किया जाता है। फलत: अपच के साथ- साथ दुर्बलता और रुग्णता की जड़े गहरी होती जाती हैं। आवश्यकता चौका क्रान्ति की है, जिसमें अंकुरित अन्न छिलकों को न फेंकना, भाप से पकाना, शाकों, ऋतु फलों, सलादों का उपयोग जैसी अनेकों बातें सिखाई और प्रचलन में लाई जानी चाहिए। यदि आहार संबंधी भ्रान्तियों का निवारण हो सके और बहुसंख्यक जनता उपलब्ध आहार को सही रूप में ग्रहण करने का तत्वदर्शन हृदयंगम कर ले, तो स्वास्थ्य रक्षा संबंधी आधा प्रयोजन तो पूरा हो ही जाता है। अन्यान्य राष्ट्रों में नागरिकों के स्वास्थ्य के इस पक्ष पर बड़ी गहराई से बालक स्तर से ही ध्यान रखा जाता है। यही कारण है कि उनकी जीवनी शक्ति हमारे राष्ट्र के औसत नागरिक की तुलना में कहीं बेहतर हैं। कसे हुए भारी कपड़ों की भरमार, सौन्दर्य प्रसाधन, आभूषण जैसे सज्जा उपकरण आरोग्य की दृष्टि से कितने अहितकर हैं, यह पाठ हमें नये सिरे से पढ़ना होगा। गन्दगी सहन करने की कुरुचि को स्वभाव का अंग नहीं ही बने रहने देना चाहिए। गाँवों के गली कूँचों और पड़ौस के खेतों के मलमूत्र, कूड़े कचरे को उस प्रकार सड़ने नहीं देना चाहिए जैसा कि सर्वत्र इन दिनों दृष्टिगोचर होता है। घरों की नालियाँ गलियारे को किस प्रकार गंदा करती है और रोग कीटाणुओं को किस प्रकार बढ़ाती हैं, इस शिक्षण का शुभारम्भ इस प्रकार करना होगा, मानो हम आदिम काल से आगे बढ़कर सभ्यता के युग में प्रवेश कर रहे हो।

बाल विवाह, ब्रह्मचर्य का अभाव, अनावश्यक प्रजनन, पर्दा प्रथा, दिनचर्या का अनिश्चय जैसे कारण भी उतने ही कष्टकारक हैं, जितने कि गरीबी के कारण अन्न वस्त्रों में कमी पड़ना। मकानों की बनावट में धूप, हवा के लिए स्थान का न रहना सीलन और घुटन का कारण बनता है, और स्वास्थ्य की बर्बादी में किसी अन्य विपत्ति से कम नहीं रहता। ऐसी अनेकों बातें है जो आरोग्य रक्षा के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं। विशेषतया पिछड़े समुदायों को, स्त्री बच्चों को उन अवाँछनीय प्रचलनों से उबारना ही होगा, जिससे वे स्वास्थ्य को धीरे- धीरे गँवाते और अपने तथा अन्यान्यों के लिए भारभूत बनते चले जा रहे हैं।

उपरोक्त प्रशिक्षण और प्रचलनों के अतिरिक्त आरोग्य शालाओं, व्यायाम शालाओं में दृश्यमान प्रत्यक्ष कार्यक्रम- खेलकूदों, व्यायामों को भी हाथ में लेना चाहिए, उसके सहारे प्रत्यक्ष वातावरण बनता और आँखों को कुछ ऐसा लगता है कि मानों स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए कुछ प्रकट प्रत्यक्ष भी किया जा रहा है। इसके लिए नव स्थापित आरोग्यशाला की त्रिविधि कार्य पद्धति रहनी चाहिए, और उस समग्र उत्तरदायित्व को वहन करना चाहिए।

नाम चाहे आरोग्यशाला रहे या व्यायामशाला, उनका एक कार्य होना चाहिए- स्वास्थ्य संरक्षण की समग्र शिक्षा, जिसमें आहार- विहार के क्षेत्र में घुसी विकृतियों का निराकरण और प्राकृतिक जीवन व्यतीत करने के प्रचलन के निमित्त प्रशिक्षण चले। इसकी कक्षाएँ लगनी चाहिए। सत्र नियोजित होने चाहिए तथा प्रचार तन्त्र के अन्यान्य साधनों का उपयोग होना चाहिए। परिष्कार प्रतियोगिताएँ चलनी चाहिए। ऐसा साहित्य भी सर्व साधारण को सुलभ कराया जाना चाहिए।

दूसरा कार्य है व्यायामों व खेल- कूदों का प्रचलन। इन दिनों दण्ड बैठक, कुश्ती उतनी उपयुक्त नहीं पड़ती, जितनी एन. सी. सी. स्तर की कवायदें। उनमें सर्व साधारण के सहन करने योग्य अंग संचालन भी हो जाता है साथ ही सैनिक अनुशासन जैसा अभ्यास भी बनता है। उस दृष्टि से प्रज्ञा अभियान ने कितने ही योगासनों और प्राणायामों का नया निर्धारण किया है। यह सरल होते हुए भी शरीर के प्रत्येक अंग अवयव को बलिष्ठ बनाने की दृष्टि से असाधारण रूप से उपयुक्त है। इसके अतिरिक्त और भी कितने ही खेलकूद हो सकते हैं, जिनमें प्रतिस्पर्धाजन्य कौशल उभरता है। टीम स्प्रिट पनपती है, साथ ही मनोरंजक श्रम साधन भी बन पड़ता है। स्काउट में भी ऐसी कितनी ही व्यायाम पद्धतियाँ सम्मिलित हैं। कई संस्थाओं के स्वयं सेवक दल अपनी- अपनी व्यायाम पद्धतियाँ विकसित करते हैं, उनमें से जो भी उपयुक्त हो उन्हें अपनाया जा सकता हैं।

उपरोक्त व्यायामों का नियमित प्रशिक्षण एवं अभ्यास क्रम चलना चाहिए। उनकी प्रतियोगिताएँ नियोजित होनी चाहिए, ताकि प्रतिस्पर्धा के लिए तैयारी चलती रहे। इन दिनों व्यायाम आन्दोलन बड़े लोगों के हाथ में खिसकता जा रहा है। राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय खेलों को देखने- बढ़ाने की ओर सबका ध्यान है। यह भुला दिया गया है कि हर गाँव में एक व्यायामशाला होनी चाहिए और उनकी प्रतिस्पर्धाओं के लिए स्थानीय क्षेत्रीय आयोजनों की धूम रहनी चाहिए। देहातों में बिखरे भारत के स्वास्थ्य संरक्षण सम्वर्धन की समस्या का समाधान तभी हो सकता है, जब पाठशालाओं की तरह व्यायामशालाओं की स्थापना पर भी विचारशीलों का ध्यान मुड़े और कुछ कहने लायक कारगर कदम उठें

आरोग्य शालाओं का तीसरा कदम है चिकित्सा उपचार। इसके लिए फर्स्टएड जैसी शिक्षाओं का अधिकाधिक प्रचलन होना चाहिए। रोगी परिचर्या, धात्री विद्या का परिचय प्रत्येक वयस्क नर- नारी को होना चाहिए। प्राकृतिक चिकित्सा का निर्धारण ऐसा है, जिसे अपनाकर मिट्टी पानी आदि के सहारे रोग मुक्त बना जा सकता है। आसपास उगने वाली जड़ी- बूटियों के गुणों का सामान्य ज्ञान हो, तो उनके सहारे भी सामान्य रोगों से छुटकारा पाने के लिए अपना इलाज आप कर लेने जैसा अभ्यास रह सकता है। इसके लिए जड़ी- बूटी खेत और औषधि उद्यान लगाने के लिए नये सिरे से उत्साह उत्पन्न किया जा सकता है।

उपरोक्त सभी उपक्रमों का प्रारंभिक प्रशिक्षण शांतिकुंज के कल्प साधना, युगशिल्पी सत्रों में कराया जाता है। यहाँ से प्रशिक्षण प्राप्त परिजन प्रज्ञा संस्थानों में जाकर आरोग्य रक्षा के विभिन्न नियमों की जानकारी अन्य व्यक्तियों को भी क्लास लगाकर देते रह सकते हैं। प्राकृतिक रूप में स्वास्थ्य संवर्धन के ये सभी उपचार ऐसे हानि रहित हैं, जिनका प्रयोग किसी भी अवस्था में किया जा सकता है। वस्तुत: उनकी महत्ता को समझने का भली- भाँति प्रयास अब तक नहीं हुआ। यदि क्रमबद्ध प्रशिक्षण की व्यवस्था जम सके, तो हमारे यही प्रज्ञा संस्थान अपनी निर्धारित दस सूत्री योजना के प्रथम चरण को पूरा कर नये नागरिक ही नहीं, प्रज्ञा अभियान की गतिविधियों में संलग्र नये युग शिल्पी भी तैयार करते देखे जा सकेंगे। उसी आधार पर राष्ट्र के नव निर्माण की कल्पना भी की जा सकती हैं।

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