नशा : एक घातक दुर्व्यसन

दुर्व्यसनों में यों तो कहने को कई ऐसे है जो छिटपुट रूप में विभिन्न वर्गों में प्रचलित है, पर जन साधारण तक दो ही प्रमुखतः पहुँच पाए है। ये है तमाखू एवं शराब। छिटपुट में अफीम, गाँजा, चरस हशीश, कोकीन, एल. एस. डी. एवं अन्य मादक औषधियों का दुरुपयोग आता है। जितना अधिक विरोधी प्रचार एवं हानियों का वर्णन तमाखू सेवन का किया गया है सम्भवतः किसी अच्छी लाभदायक वस्तु का विधेयात्मक रूप में भी न किया गया होगा। फिर जन मानस में इसकी जड़ें कितनी गहरी है इसका एक अनुमान कुछ आँकड़े देते हैं।

भारत में कुल लाख हजार हेक्टेयर भूमि में तम्बाकू की खेती होती है एवं सरकारी आँकड़ों के अनुसार हमारे यहाँ प्रति वर्ष साढ़े पाँच लाख टन तम्बाकू पैदा की जाती है। लाख व्यक्ति इसके उत्पादन में सक्रिय रूप से लगे हैं, एवं २० लाख अन्य इस उद्योग के माध्यम से रोजी कमाते हैं। भारत की तम्बाकू की पैदावार सारे विश्व की तम्बाकू की कुल आठ प्रतिशत है। भारत में १७ करोड़ सिगरेटों एवं ४४ करोड़ बीड़ियों का उत्पादन प्रतिदिन होता है। सारे विश्व में २३ खरब ८२ अरब सिगरेट प्रतिवर्ष एवं भारत में ७० अरब सिगरेट प्रतिवर्ष तैयार की जाती है। इनकी खपत भी इतनी तेजी से होती है कि फैक्ट्री में इनकी माँग सतत बनी रहती है। जब एक सैम्पल सर्वे विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक टीम द्वारा किया गया तो पता चला कि एक दो लाख की आबादी वाले भारतीय शहर में करोड़ ७० लाख सिगरेटों एवं करोड़ १२ लाख बीड़ियों की खपत प्रतिदिन विक्रेताओं के माध्यम से होती है। यह सब उस वैधानिक चेतावनी के बावजूद है जो, हर सिगरेट के पैकेट पर अंकित रहती है कि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

एक पौण्ड तम्बाकू में निकोटीन नामक जहर की मात्रा लगभग २२.८ ग्राम होती है। इसकी मात्रा १/३८०० गुनी मात्रा (करीब मिलीग्राम) एक कुत्ते को तीन मिनट में मार देती है। प्रेक्टिशनर पत्रिका के अनुसार कैंसर (श्वाँस संस्थान का) से मरने वालों की संख्या ११२ प्रति लाख उनकी है जो धूम्रपान करते है। जो इस दुर्व्यसन के आदी नहीं, इनमें से कैंसर से मरने वालों की संख्या प्रति लाख मात्र १२ है। आय. सी. एम. आर. की एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार मुँह एवं गले के कैंसर के रोगी भारत में अन्य देशों की अपेक्षा ५० गुनी अधिक है। इसका कारण है- तम्बाकू का विभिन्न रूपों में प्रयोग। ज्ञातव्य है कि भारत में तम्बाकू न केवल बीड़ी सिगरेट के रूप में अपितु सुरति, नसवार, हुक्का आदि अनेकानेक रूपों प्रचलित है। एक अनुमान है कि भारत की शहरी आबादी (करीब १३.५ करोड़) में से करीब करोड़ विभिन्न रूपों में तम्बाकू, जर्दा, चुरुट, सिगरेट, बीड़ी एवं ग्रामीण आबादी (करीब ५४.५ करोड़) में से करीब १५ करोड़ व्यक्ति, जिनमें खेत पर काम करने वाली मजूर स्त्रियाँ व १२ वर्ष के छोटे बच्चे भी शामिल हैं- बीड़ी, सुरति, हुक्का आदि के रूप तम्बाकू से जुड़े हुए हैं। आश्चर्य इस बात का है कि इतनी बड़ी संख्या जो कि भारत की जनसंख्या का करीब एक तिहाई हैं, एक ऐसे नशे के चंगुल में है जो धीरे- धीरे उनकी सम्पत्ति, तन्दुरुस्ती एवं खुशहाली को अपने चंगुल में लेता चला जा रहा है, फिर भी किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती।

राष्ट्रीय अर्थ नीति ने भी तम्बाकू को एक कैश क्राप माना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की राय के विरुद्ध अमेरिका के खाद्य संगठन ने तम्बाकू की खेती को काफी बढ़ावा दिया है। अकेले विकासशील राष्ट्रों में १९७९- १९८० वर्ष में इससे होने वाली आय अरब ६४ करोड़ रुपये थी।

ब्रिटिश अमेरिकी टोबेको कम्पनी की रिपोर्ट के अनुसार तम्बाकू की खपत प्रतिवर्ष आठ प्रतिशत बढ़ रही है। गत वर्ष का एक रोचक आँकड़ा है कि सिगरेट कम्पनियों ने विज्ञापन पर ४२ करोड़ २० लाख डालर खर्च किये जबकि कैंसर सोसायटी को शोध कार्य के लिए एक सिगरेट विरोधी अभियान के लिए मात्र करोड़ डालर का अनुदान मिला। चूँकि सिगरेट नाम काफी बदनाम हो गया है, पाश्चात्य जगत में स्मोकलेस टोबेको को हानि रहित का जामा पहानाकर नसवार एवं सुरति की खपत काफी हो रही है।

यह सभी भली- भाँति जानते है कि नशे न किसी प्रकार के पोषक टानिक हैं न ही मानसिक क्षमता बढ़ाने वाले। ये तो एक प्रकार के हलके विष है जो तात्कालिक स्फूर्ति एवं क्षणिक मानसिक उत्तेजना मात्र देते हैं। इसी को आधार मानकर व इसी लाभ के गुण गाकर थकान मिटाने, बोरियत भगाने के नाम पर इनका सेवन किया जाता है। यहाँ तक कि इसे प्रगतिशीलता का चिन्ह मान लिया गया है। जहाँ- जहाँ सम्पत्ति बढ़ी है एवं औद्योगीकरण, शहरीकरण बढ़ता चला गया है, ये दुर्गुण कई गुने बढ़े हैं। नशेबाज धन खोता है, जीवनी शक्ति खोता है। दरिद्रता उससे आ लिपटती है एवं बीमारियाँ पीछा नहीं छोड़ती। मनोबल, दूरदर्शिता, बुद्धि कौशल, धैर्य, साहस जैसी मानसिक विशेषताएँ बेतरह नष्ट होती चली जाती है। परिवार अस्त- व्यस्त हो जाते हैं एवं इसका प्रभाव पूरे समाज राष्ट्र पर पड़ता है। विकृत एवं गई गुजरी परिस्थितियों में पड़े व्यक्ति समाज में जो विग्रह उत्पन्न करते हैं, उससे अपराध, अनाचारों की ही वृद्धि होती है। इसीलिये नशेबाजी जैसी समस्या से इस राष्ट्र का हर व्यक्ति जुड़ा हुआ है क्योंकि वह भी समाज का एक अंग है।

यदि वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय हानियों के आर्थिक एवं स्वास्थ्य परक पक्ष को ही फैलाया जाए तो मात्र तम्बाकू जैसे दुर्व्यसन से ही होने वाली हानि को देखकर आँखें चकाचौंध हो जाती है। सर्वेक्षण बताते हैं कि भारत में धूम्रपान करने वालों में ७२ प्रतिशत बीस वर्ष की अवस्था से पूर्व ही धूम्रपान शुरू कर देते हैं जिस पर न्यूनतम २० रुपये से लेकर अधिकतम १०० रुपये मासिक खर्च होता है। यदि भारत की कुल जनसंख्या में से करीब २५ प्रतिशत को तम्बाकू का किसी रूप में सेवन करते मान लिया जाये, जैसा कि पूर्व वर्णित आँकड़ों में उद्धत है, तो करीब १७ करोड़ व्यक्ति औसतन ६० रुपया प्रतिमाह मात्र विभिन्न रूपों में तम्बाकू खरीदने में खर्च करते हैं। यह राशि कुल मिलाकर खरब अरब रुपये प्रति माह आती है। इस राशि को उस राशि से अलग माना जाना चाहिये जो कि इस उद्योग में पूर्व से ही लगी हुई है। प्रतिवर्ष इस प्रकार करीब सवा बारह खरब रुपया नशे की होली में फूँक दिया जाता है। इस राशि को यदि उपयोगी उद्योगों में लगा दिया गया होता तो देश में चारों ओर खुशहाली दिखाई देती। इस राशि से यदि भारत के पौने दो करोड़ बेरोजगारों के लिए काम के अवसर निकाल लिए गये होते तो इतनी बड़ी जनशक्ति का अपव्यय न हुआ होता।

तम्बाकू सेवन का स्वास्थ्य सम्बन्धी एक पक्ष ऐसा भी है जो अपनी स्थूल प्रतिक्रियाओं के रूप में प्रत्यक्ष सामने दिखाई देता है। करीब डेढ़ लाख व्यक्ति प्रतिवर्ष धूम्रपान अन्य रोगों से ग्रसित हो जाते हैं। इनकी बीमारी पर यदि प्रति व्यक्ति चिकित्सा, आहार, सेवा सुश्रूषा का अन्दाज लगाया जाए तो करीब १५ करोड़ रुपया राष्ट्र का प्रति वर्ष इसी में नष्ट हो जाता हैं। इन बीमारियों के कारण १०,००० पलंग अस्पतालों में हमेशा घिरे रहते हैं एवं सैकड़ों मजदूरों को व्याधि के कारण काम तथा कल कारखानों पर अनुपस्थिति से देश को २७० करोड़ रुपये प्रतिवर्ष हानि उठानी पड़ती है।

भारत की एक सिगरेट पीने वाले की आयु में मिनट कम कर देती है। २० सिगरेट अथवा १५ बीड़ी प्रतिदिन पीने वाला एवं करीब ग्राम सुरती, खैनी आदि के रुप में तम्बाकू खाने वाला व्यक्ति अपनी आयु में से १० वर्ष कम कर लेता है। जितने भी वर्ष वह जीता है असंख्य व्याधियों से ग्रस्त होकर समाज के लिए एक भार बनकर ही जीता है। एक माह में यदि वह औसतन पचास रुपये इस व्यसन के लिए खर्च करता है तो उसकी शेष आयु में से उसकी व्याधि चिकित्सा पर होने वाला खर्च अनुमानतः १०० रुपये प्रति माह आता है जो उसको समाज को एवं राष्ट्र को वहन करना पड़ता है।

सिगरेट- बीड़ी पीने से मृत्यु संख्या न पीने वालों की अपेक्षा ५० से ६० वर्ष की आयु वाले व्यक्तियों में ६५ प्रतिशत अधिक होती है। यही संख्या ६० से ७० वर्ष की आयु में बढ़कर १०२ प्रतिशत हो जाती है। सिगरेट- बीड़ी पीने वालों को होने वाली मुख्य व्याधियाँ जिनके कारण या तो वे शीघ्र ही मृत्यु की गोद में जाते हैं अथवा धीमी मौत मरते हुए लाश जैसा जीवन जीते हैं जैसे मुँह, श्वास नली, फेफड़ों का कैंसर, क्रानिक बोंकाइटिस एवं दमा, फेफड़ों की टी.बी. (क्षयरोग), रक्त कोशिकावरोध (बर्जर डीसिज) जिसके कारण १० प्रतिशत रोगियों की प्रारम्भ में अथवा आगे पैरों को कटवाना पड़ता है, दृष्टि सम्बन्धी दोष, हृदय रोग एवं जल्दी ही आ जाने वाला बुढ़ापा।

भारत में मुँह का, जीभ का एवं ऊपरी श्वाँस तथा भोजन नली (नेजोफेरिंक्स) का कैंसर सारे विश्व की तुलना में अधिक पाया जाता है। इसका कारण बताते हुए एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका लिखता है कि यहाँ तम्बाकू चबाना, पान में जर्दा, बीड़ी अथवा सिगरेट को उल्टी दिशा से पीना (रिवर्स स्मोकिंग) एक सामान्य बात है। तम्बाकू में विद्यमान कार्सिनोजेनिक दर्जन से भी अधिक हाइड्रोकार्बन्स जीवकोषों की सामान्य क्षमता को नष्ट कर उन्हें गलत दिशा में बढ़ने को विवश कर देते हैं जिसकी परिणति कैंसर की गाँठ के रूप में होती हैं।

जिस समय तक ऐसा रोगी विशेष कर ग्रामीण जनसंख्या का जो करीब ५४ करोड़ है, का एक अंग चिकित्सक के पास तब पहुँचता है, जब स्थिति काबू के बाहर हो जाती है। प्रतिवर्ष कैंसर निदान केन्द्रों में ऐसे लाख ७० हजार रोगियों का निदान किया जाता है जिनमें से लाख पता लगने के वर्ष के भीतर ही मृत्यु की गोद में चले जाते हैं। इसके अतिरिक्त तम्बाकू के धुएँ से निकोटीन जहर के कारण होने वाली व्याधि जब फेफड़ों के कैंसर को जन्म देती है तो निदान के माह के भीतर ही व्यक्ति मौत की गोद में चला जाता है। फेफड़ों के कैंसर में पिछले १५ वर्षों में ११३ प्रतिशत वृद्धि आँकी गई है।

कैंसर के बाद दूसरा मुख्य रोग है क्रानिक बोंकाइटिस, एम्फीजिमा एवं दमा। तीनों ही परस्पर सम्बन्धित हैं। इन रोगों का बाहुल्य विशेषकर पिछले वर्षों में देखने में आया है। ४५ वर्ष से ६५ वर्ष की उम्र की वय सीमा वाले व्यक्तियों में इस एक शताब्दी में ही दमे की ४०० प्रतिशत वृद्धि हुई है। इस रोग से मरने वाले धूम्रपान से मरने वालों की तुलना में गुने अधिक हैं। जब ऐसे व्यक्तियों के फेफड़ों की कार्य क्षमता का अध्ययन किया गया तो ज्ञात हुआ कि इनमें इन सभी मानकों का अनुपात काफी कम होता है।

धूम्रपान छोड़ने से प्रतिमाह औसतन १०० से ३०० की अतिरिक्त बचत के अलावा खोये स्वास्थ्य की प्राप्ति, मानसिक प्रसन्नता कुछ ऐसे अनुदान है जिनकी जानकारी हर धूम्रपान प्रेमी को करानी चाहिए। नित्य प्रतिक्षण होने वाली हानि की जानकारी एवं इसके निवारण हेतु उठाये गये कदम व्यक्ति को किस प्रकार लाभ पहुँचा सकते हैं, यह जानना बहुत जरूरी है।

इसी प्रकार टी. बी. (क्षयरोग), बर्जरडीसिज, दृष्टिदोष, हृदय रोग ऐसी व्याधियाँ है जो अन्ततः मारक ही सिद्ध होती है अथवा ऐसा अपंग पराश्रित बनाकर छोड़ती हैं कि उसे प्रत्यक्ष नारकीय जीवन ही कहा जाना चाहिये।

मात्र यही पक्ष नहीं कुछ तथ्य और भी ऐसे हैं जो समाज को सीधे प्रभावित करते हैं। खेत से काटी गई तम्बाकू की कच्ची पत्तियाँ पहले आग में सुखाकर कड़क बनाई जाती हैं। हर ३०० सिगरेटों की तम्बाकू को पकाने के लिये एक भरा- पूरा पेड़ जलाकर राख कर दिया जाता है। एकड़ की तम्बाकू की फसल को पकाने के लिये प्रति वर्ष एक एकड़ का हरा- भरा जंगल जलाकर धुँआ कर दिया जाता है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका अनुसार ३,६३,९०० टन प्रतिवर्ष तम्बाकू उत्पादन हेतु १२ लाख ८६ हजार भूमि में विद्यमान जंगलों को मात्र भारत में वृक्ष विहीन कर दिया गया। जैसे- जैसे सिगरेटों की खपत बढ़ी वैसे जंगल नष्ट किये जा रहे हैं, जिसका वर्तमान ऊर्जा संकट के समय में न केवल एक गरीब के चूल्हे की लकड़ी को चुराती है अपितु प्रदूषण वृद्धि पर्यावरण असन्तुलन में योगदान देकर उसके स्वास्थ्य, धन एवं परिवार की प्रसन्नता को भी चौपट कर देती है।

जब तक इस प्रचलन के विरोध में एक व्यापक आन्दोलन खड़ा न किया जायेगा, इसके प्रति लोगों के मन में घृणा उत्पन्न करना दुष्कर ही लगता है। बीड़ी विरोधी जुलूस प्रदर्शन के साथ धूमधाम से उसकी होली जलाना, व्यक्ति से जन समूह के समक्ष प्रतिज्ञा करवाना, बुराइयों की जानकारी हेतु व्यापक प्रचार- प्रसार करना जैसे कुछ ऐसे माध्यम हैं, जिनका उपयोग कर समाज सेवी संगठन इस कार्य में निश्चित ही सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

सिगरेट कम्पनियों के एकमन विरोध व सरकार को तम्बाकू व टैक्स से प्राप्त असीम आमदनी के बावजूद एक विशाल जनमत पिछले दिनों अमेरिका में तैयार किया गया। समाज सेवी संगठनों द्वारा संचालित इस आन्दोलन ने ऐसा व्यापक स्वरूप लिया कि अन्ततः सरकार को झुकना पड़ा। वहाँ उत्पादन पर नियन्त्रण लगा दिया गया हैं एवं इनके किसी भी प्रकार से विज्ञापन पर (टी.वी., सिनेमा, समाचार पत्र आदि) प्रतिबन्ध भी है। यह तो सरकार द्वारा लिये गये कदमों का एक सशक्त स्वरूप हुआ। पर इसके लिये जनशक्ति को भी आगे आना होगा। मनुष्य को यह जानना होगा कि अर्थ श्रम, कौशल, शिक्षा, स्वास्थ्य का एक समग्र स्वरूप ही व्यक्ति की आन्तरिक एवं बाह्य सम्पन्नता का निर्धारण करता है। यदि दुर्व्यसनों से मुक्ति न पाई गई तो ये सभी छिनते चले जायेंगे एवं अन्त बुरा ही होगा।

मानसिक गिरावट स्वास्थ्य के लिये हानि, आर्थिक घाटा, सन्तान पर घातक प्रभाव, परिवार एवं समाज पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव तथा पर्यावरण में असन्तुलन ये सभी पक्ष आँकड़ों के साथ इसी तथ्य का समर्थ प्रतिपादन करते हैं कि तम्बाकू सेवन जैसे व्यसन से समाज को निश्चित ही मुक्त किया जाना चाहिए। इसके लिये लोक शिक्षण, जन प्रचार, प्रदर्शनी आदि जो भी माध्यम अपनाये जायें, प्रयुक्त होना चाहिए। भारत की एक सिगरेट पीने वाले की आयु में मिनट कम कर देती है। २० सिगरेट अथवा १५ बीड़ी प्रतिदिन पीने वाला एवं करीब ग्राम सुरती, खैनी आदि के रुप में तम्बाकू खाने वाला व्यक्ति अपनी आयु में से १० वर्ष कम कर लेता है। जितने भी वर्ष वह जीता है असंख्य व्याधियों से ग्रस्त होकर समाज के लिए एक भार बनकर ही जीता है। एक माह में यदि वह औसतन पचास रुपये इस व्यसन के लिए खर्च करता है तो उसकी शेष आयु में से उसकी व्याधि चिकित्सा पर होने वाला खर्च अनुमानतः १०० रुपये प्रति माह आता है जो उसको समाज को एवं राष्ट्र को वहन करना पड़ता है।

सिगरेट- बीड़ी पीने से मृत्यु संख्या न पीने वालों की अपेक्षा ५० से ६० वर्ष की आयु वाले व्यक्तियों में ६५ प्रतिशत अधिक होती है। यही संख्या ६० से ७० वर्ष की आयु में बढ़कर १०२ प्रतिशत हो जाती है। सिगरेट- बीड़ी पीने वालों को होने वाली मुख्य व्याधियाँ जिनके कारण या तो वे शीघ्र ही मृत्यु की गोद में जाते हैं अथवा धीमी मौत मरते हुए लाश जैसा जीवन जीते हैं जैसे मुँह, श्वास नली, फेफड़ों का कैंसर, क्रानिक बोंकाइटिस एवं दमा, फेफड़ों की टी.बी. (क्षयरोग), रक्त कोशिकावरोध (बर्जर डीसिज) जिसके कारण १० प्रतिशत रोगियों की प्रारम्भ में अथवा आगे पैरों को कटवाना पड़ता है, दृष्टि सम्बन्धी दोष, हृदय रोग एवं जल्दी ही आ जाने वाला बुढ़ापा।

भारत में मुँह का, जीभ का एवं ऊपरी श्वाँस तथा भोजन नली (नेजोफेरिंक्स) का कैंसर सारे विश्व की तुलना में अधिक पाया जाता है। इसका कारण बताते हुए एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका लिखता है कि यहाँ तम्बाकू चबाना, पान में जर्दा, बीड़ी अथवा सिगरेट को उल्टी दिशा से पीना (रिवर्स स्मोकिंग) एक सामान्य बात है। तम्बाकू में विद्यमान कार्सिनोजेनिक दर्जन से भी अधिक हाइड्रोकार्बन्स जीवकोषों की सामान्य क्षमता को नष्ट कर उन्हें गलत दिशा में बढ़ने को विवश कर देते हैं जिसकी परिणति कैंसर की गाँठ के रूप में होती हैं।

जिस समय तक ऐसा रोगी विशेष कर ग्रामीण जनसंख्या का जो करीब ५४ करोड़ है, का एक अंग चिकित्सक के पास तब पहुँचता है, जब स्थिति काबू के बाहर हो जाती है। प्रतिवर्ष कैंसर निदान केन्द्रों में ऐसे लाख ७० हजार रोगियों का निदान किया जाता है जिनमें से लाख पता लगने के वर्ष के भीतर ही मृत्यु की गोद में चले जाते हैं। इसके अतिरिक्त तम्बाकू के धुएँ से निकोटीन जहर के कारण होने वाली व्याधि जब फेफड़ों के कैंसर को जन्म देती है तो निदान के माह के भीतर ही व्यक्ति मौत की गोद में चला जाता है। फेफड़ों के कैंसर में पिछले १५ वर्षों में ११३ प्रतिशत वृद्धि आँकी गई है।

कैंसर के बाद दूसरा मुख्य रोग है क्रानिक बोंकाइटिस, एम्फीजिमा एवं दमा। तीनों ही परस्पर सम्बन्धित हैं। इन रोगों का बाहुल्य विशेषकर पिछले वर्षों में देखने में आया है। ४५ वर्ष से ६५ वर्ष की उम्र की वय सीमा वाले व्यक्तियों में इस एक शताब्दी में ही दमे की ४०० प्रतिशत वृद्धि हुई है। इस रोग से मरने वाले धूम्रपान से मरने वालों की तुलना में गुने अधिक हैं। जब ऐसे व्यक्तियों के फेफड़ों की कार्य क्षमता का अध्ययन किया गया तो ज्ञात हुआ कि इनमें इन सभी मानकों का अनुपात काफी कम होता है।

धूम्रपान छोड़ने से प्रतिमाह औसतन १०० से ३०० की अतिरिक्त बचत के अलावा खोये स्वास्थ्य की प्राप्ति, मानसिक प्रसन्नता कुछ ऐसे अनुदान है जिनकी जानकारी हर धूम्रपान प्रेमी को करानी चाहिए। नित्य प्रतिक्षण होने वाली हानि की जानकारी एवं इसके निवारण हेतु उठाये गये कदम व्यक्ति को किस प्रकार लाभ पहुँचा सकते हैं, यह जानना बहुत जरूरी है।

इसी प्रकार टी. बी. (क्षयरोग), बर्जरडीसिज, दृष्टिदोष, हृदय रोग ऐसी व्याधियाँ है जो अन्ततः मारक ही सिद्ध होती है अथवा ऐसा अपंग पराश्रित बनाकर छोड़ती हैं कि उसे प्रत्यक्ष नारकीय जीवन ही कहा जाना चाहिये।

मात्र यही पक्ष नहीं कुछ तथ्य और भी ऐसे हैं जो समाज को सीधे प्रभावित करते हैं। खेत से काटी गई तम्बाकू की कच्ची पत्तियाँ पहले आग में सुखाकर कड़क बनाई जाती हैं। हर ३०० सिगरेटों की तम्बाकू को पकाने के लिये एक भरा- पूरा पेड़ जलाकर राख कर दिया जाता है। एकड़ की तम्बाकू की फसल को पकाने के लिये प्रति वर्ष एक एकड़ का हरा- भरा जंगल जलाकर धुँआ कर दिया जाता है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका अनुसार ३,६३,९०० टन प्रतिवर्ष तम्बाकू उत्पादन हेतु १२ लाख ८६ हजार भूमि में विद्यमान जंगलों को मात्र भारत में वृक्ष विहीन कर दिया गया। जैसे- जैसे सिगरेटों की खपत बढ़ी वैसे जंगल नष्ट किये जा रहे हैं, जिसका वर्तमान ऊर्जा संकट के समय में न केवल एक गरीब के चूल्हे की लकड़ी को चुराती है अपितु प्रदूषण वृद्धि पर्यावरण असन्तुलन में योगदान देकर उसके स्वास्थ्य, धन एवं परिवार की प्रसन्नता को भी चौपट कर देती है।

जब तक इस प्रचलन के विरोध में एक व्यापक आन्दोलन खड़ा न किया जायेगा, इसके प्रति लोगों के मन में घृणा उत्पन्न करना दुष्कर ही लगता है। बीड़ी विरोधी जुलूस प्रदर्शन के साथ धूमधाम से उसकी होली जलाना, व्यक्ति से जन समूह के समक्ष प्रतिज्ञा करवाना, बुराइयों की जानकारी हेतु व्यापक प्रचार- प्रसार करना जैसे कुछ ऐसे माध्यम हैं, जिनका उपयोग कर समाज सेवी संगठन इस कार्य में निश्चित ही सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

सिगरेट कम्पनियों के एकमन विरोध व सरकार को तम्बाकू व टैक्स से प्राप्त असीम आमदनी के बावजूद एक विशाल जनमत पिछले दिनों अमेरिका में तैयार किया गया। समाज सेवी संगठनों द्वारा संचालित इस आन्दोलन ने ऐसा व्यापक स्वरूप लिया कि अन्ततः सरकार को झुकना पड़ा। वहाँ उत्पादन पर नियन्त्रण लगा दिया गया हैं एवं इनके किसी भी प्रकार से विज्ञापन पर (टी.वी., सिनेमा, समाचार पत्र आदि) प्रतिबन्ध भी है। यह तो सरकार द्वारा लिये गये कदमों का एक सशक्त स्वरूप हुआ। पर इसके लिये जनशक्ति को भी आगे आना होगा। मनुष्य को यह जानना होगा कि अर्थ श्रम, कौशल, शिक्षा, स्वास्थ्य का एक समग्र स्वरूप ही व्यक्ति की आन्तरिक एवं बाह्य सम्पन्नता का निर्धारण करता है। यदि दुर्व्यसनों से मुक्ति न पाई गई तो ये सभी छिनते चले जायेंगे एवं अन्त बुरा ही होगा।

मानसिक गिरावट स्वास्थ्य के लिये हानि, आर्थिक घाटा, सन्तान पर घातक प्रभाव, परिवार एवं समाज पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव तथा पर्यावरण में असन्तुलन ये सभी पक्ष आँकड़ों के साथ इसी तथ्य का समर्थ प्रतिपादन करते हैं कि तम्बाकू सेवन जैसे व्यसन से समाज को निश्चित ही मुक्त किया जाना चाहिए। इसके लिये लोक शिक्षण, जन प्रचार, प्रदर्शनी आदि जो भी माध्यम अपनाये जायें, प्रयुक्त होना चाहिए।







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