नारी का पिछड़ापन : एक त्रासदी भरी विडम्बना

नारी के पिछड़ेपन का सारा लाभ नर ने उठाया है। इसी तथ्य का दूसरा पक्ष यह है कि सबसे अधिक हानि भी उसी को उठानी पड़ी है।पालतू पशुओं के जीवित रहने का सारा लाभ उनके मालिकों को मिलता है। वे तो बेचारे किसी प्रकार जीवित भर रह लेते है। बैल, घोड़े, गधे अपने मालिकों के लिए श्रम करते है। गाय, भैंस, बकरी को उन्हीं के लिए दूध देना पड़ता है। वे जो बच्चे जनती है, उन पर अधिकार उनका नहीं पालने वाले मालिकों का होता है। भेड़ों की ऊन का लाभ गड़रिये को मिलता है। कुत्ते मालिक की रखवाली करते है। इस प्रकार उनकी जीवन सम्पदा से पूरी तरह पालने वाले ही लाभान्वित होते हैं। चूँकि यह लाभ पाने के लिए उन्हें जीवित रखना आवश्यक है, इसलिए चारे भूसे का, निवास आच्छादन का प्रबन्ध तो करना ही पड़ेगा। यह उदारता वश या न्याय बुद्धि से नहीं वरन् इस विवशता के कारण करना पड़ता है कि इतना भी न करने पर वे जीवित न रहेंगे और लाभ देने वाले स्रोत बन्द हो जायेंगे इतना प्रबन्ध तो मुर्गी, मछली पालने वाले भी करते हैं।


नारी के जीवित रहने का लाभ उसे कितना मिला और उसके मालिकों ने कितना लाभ उठाया, इस पर निष्पक्ष और न्याय दृष्टि से विचार करने पर असंदिग्ध रूप से यह स्वीकार करना पड़ता है कि उसकी स्थिति कुल मिलाकर पालतू पशुओं से अधिक अच्छी नहीं है। यह तुलना यदि अखरती हो तो सामन्तवादी युग से चल रही दास- दासी प्रथा के समतुल्य इस स्थिति को कहा जा सकता है। दास- दासी हाट बाजारों में खरीदे बेचे जाते थे। मालिकों का उनके शरीर पर पूरा अधिकार होता था। दासों को उचित- अनुचित की समीक्षा करने का अधिकार न था, उनके लिए आज्ञा पालन ही एक मात्र विकल्प था। इस दास धर्म का पालन किये बिना उनके लिए और कोई मार्ग न था। जीवित न रहना हो तो ही वे अवज्ञा कर सकते थे, अन्यथा प्राण मोह के रहते मालिकों की आज्ञा पालने में ही उनकी गति थी। उनके श्रम का लाभ उन्हें भी मिलना चाहिए अथवा उनकी इच्छा एवं आवश्यकता को भी महत्त्व मिलना चाहिए। ऐसा सोच सकना उन दिनों न दास- दासियों के लिए सम्भव था और न उनके मालिक ही वैसी आवश्यकता अनुभव करते थे।

कहने सुनने में बात बड़ी अटपटी और कडुई लग सकती है कि आज भी औसतन नारी की स्थिति पालतू पशुओं अथवा दास- दासी स्तर से कुछ अधिक अच्छी नहीं है। उसे अपने पालने वालों के लिए श्रम करना पड़ता है, उनकी इच्छानुरूप ढलना पड़ता है, हर घड़ी ध्यान रखना पड़ता है कि पालने वाले कहीं नाराज न हो जाये। इसमें कितना उचित, कितना अनुचित है, उसे सोचने की कहीं गुंजायश नहीं दीखती।

नर को रोटी, कपड़े के मूल्य पर रसोई दारिन, चौकीदारिन, धोबिन आदि की आवश्यकता पूरी करने वाली चौबीस घण्टे की नौकरानी मिलती है। क्रीड़ा विनोद का लाभ भी बिना मूल्य मिलता है। अहंकार प्रदर्शित करने के लिए अन्यत्र कही अवसर न मिले तो न सही, पर नारी तो उसके लिए ऐसा उपयुक्त माध्यम है ही, जिससे प्रतिरोध की भी सम्भावना नहीं है। पितृ गृह से भी वह विवाह के दिन से लेकर मरने तक कुछ न कुछ लाती जमा करती ही रहती है। यह सारे लाभ नर के पक्ष में जाते है, नारी तो गृह प्रवेश से लेकर दम तोड़ने तक अपना शरीर व स्वास्थ्य जलाती ही रहती है। मन घुटते- घुटते टूटता और बैठता ही चला जाता है। शिक्षा जो बचपन में मिली थी, वह विस्मृति के गर्त में चली जाती है। पिंजड़े की कैद में अनुभव बढ़ाने के अवसर ही कहाँ है? काम का दबाव ही अहर्निश छाया रहता है, फिर मनोरंजन की इच्छा उठे भी तो उसका क्या महत्त्व? अवसर न मिलने से वह उमंग भी असमय में ही मर जाती है। नीरसता स्वभाव का अंग बन जाती है। न उत्साह, न उमंग, ढर्रे का मशीनी जीवन किसी प्रकार लाश की तरह ढोना और उतने में ही सन्तोष करना यही है उसका भाग्य विधान, जिस पर इच्छा अथवा अनिच्छा से गुजर करनी पड़ती है।

उपरोक्त कथन में अत्युक्ति नहीं है। औसत भारतीय नारी को इसी में गुजारा करना पड़ता है। इसे उसकी विशेषता कहकर सराहा भी जा सकता है और विवशता कहकर आँसू भी बहाया जा सकता है। यह स्थिति स्वाभाविक नहीं है। प्रकृति ने नर और नारी को हर दृष्टि से समान बनाया है। गाड़ी के दो पहियों की तरह दोनों की उपयोगिता भी एक जैसी है। क्षमता में न कोई किसी से आगे है और न पीछे। शरीर में दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो कान, दो नथुने, दो होठ होते हैं। दोनों में से न कोई वरिष्ठ होता है और न कनिष्ठ। परस्पर सहयोग से वे एक दूसरे के पूरक रहते हैं और मिल जुलकर अपनी उपयोगिता सिद्ध करते है। नर नारी की स्वाभाविक स्थिति यही है। इसी में औचित्य, न्याय और ईश्वरी व्यवस्था का परिपालन है।

नर और नारी के बीच सम्बन्धों का यह वह पक्ष है, जिसमें नर को लाभान्वित होते देखा जा सकता है। अब तस्वीर का दूसरा पहलू देखा जाय, इस पर गम्भीरता पूर्वक दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि अनीति के इस कुचक्र में नारी को जितनी क्षति उठानी पड़ी है, नर की हानि उससे कम नहीं वरन् अधिक ही हुई है। तात्कालिक लाभ के लोभ से उसने जो पाया है, उसकी तुलना में खोया अधिक है। हर रोज सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी का पेट चीर कर सारे अण्डे एक ही दिन में निकाल लेने वाले लालची मालिक ने जो घाटा उठाया था, उससे भी अधिक नारी को शोषण का शिकार बनाने के प्रलोभन में नर को उठाना पड़ा है। इस दुरभिसन्धि में उसने पाया कम और खोया अधिक है।

अशक्त पक्ष समर्थ पक्ष के लिए भार बनकर रहता है। एक पैर लँगड़ा हो तो उसके बदले का दबाव दूसरे पर पड़ता है। एक हाथ को लकवा मार जाये तो दूसरे हाथ को ही उसके बदले का भी काम करना पड़ेगा। एक पहिया टूट जाय तो दूसरे पहिये पर ही उसका वजन आवेगा। इस दबाव से स्वस्थ अंग भी जल्दी जरा जीर्ण होता है और अपनी सामर्थ्य गँवा बैठता है। नारी यदि शिक्षित, सुयोग्य, समर्थ हो तो अपने बुद्धि, बल, कौशल, अनुभव से पूरे परिवार को लाभान्वित कर सकती है। कठिन समय में कुछ उपार्जन भी कर सकती है और घर की आर्थिक स्थिति सुधारने में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सकती है। अविकसित नारी तो अपंग की तरह है। उसका किसी महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने में, किसी जटिल समस्या के सुलझाने में कोई योगदान नहीं हो सकता। उल्टे कठिन समय में रोने- धोने, घबराने, हैरान होने और परेशान करने की बात ही उससे बन पड़ती है। वयस्क होते हुए भी बालकों जैसी मनःस्थिति में रहने वाली नारी न स्वयं जीवन का लाभ ले पाती है और न उससे परिवार का कोई विशेष हित साधन हो पाता है। जबकि उसके सुविकसित होने पर उसके परिवार की प्रगति में चार चाँद लग सकते थे।

नर को प्रायः १२- १४ घण्टे घर में रहना पड़ता है। विश्राम, नित्यकर्म आदि सब कार्य वही सम्पन्न होते हैं। यदि घर का वातावरण स्नेहपूर्ण शालीन सुव्यवस्थित, उत्साह वर्धक, आनंदयुक्त रहे तो फिर उसे छोटे दायरे में रह कर स्वर्ग जैसे सुख सन्तोष की अनुभूति हो सकती है। यदि वहाँ द्वेष, मनोमालिन्य, कटुता, अव्यवस्था, फूहड़पन की कुरूपता छाई होगी तो उसकी प्रतिक्रिया उद्विग्नता ही उत्पन्न करेगी। सुविधा साधन रहते हुए उस घर के निवासी खिन्न, उद्विग्न और उदास दिखाई पड़ेंगे। इस अवसाद का परिणाम हर किसी की प्रगति पर पड़ता है। कहना न होगा कि परिवार का वातावरण बनाने में नारी की ही सबसे बड़ी भूमिका होती है। इसी से उसे गृहलक्ष्मी कहा जाता है।

बच्चे प्रधानतया माता के संस्कारों से ही सम्पन्न होते है। नौ मास से माता के गर्भ में रहते है और उसी के रक्त मांस से उनका शरीर बनता बढ़ता है। साथ ही वे माता के स्वभाव संस्कार को भी साथ लेकर जन्मते है। जन्म के बाद माता के दूध पर पलते हैं, उसी के साथ सोते, खेलते हैं। इसका प्रभाव निश्चित रूप से संतान पर पड़ता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चा अपने बाल्यकाल का अधिकांश भाग पाँच वर्ष की आयु तक पूरा कर लेता है। यह अवधि उसे अधिकतर माता के सम्पर्क में ही गुजारनी पड़ती है। उसे पाठशाला में जिस स्तर के अनुदान मिलते हैं, बच्चे का भाग्य और भविष्य उसी ढाँचे में ढलता चला जाता है। बच्चों को हम प्यार करते हों, उनका भविष्य उज्ज्वल देखना चाहते हों, उन्हें समुन्नत देखने की लालसा रखते हों तो उसकी आधारशिला जननी समुन्नत स्तर की हो सकती है। नारी को पिछड़ेपन में ग्रसित रखना, बच्चों का स्तर बिगाड़ने के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। यह अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारना है। जिनके हाथों उत्तराधिकार सौंपने की बात सोची जाती है, यदि उनका व्यक्तित्व ऊँचा उठाने के लिए उनकी माता पर ध्यान न दिया गया तो फिर निश्चित रूप से वे घटिया ही बने रहेंगे। शरीर से पुष्ट और बुद्धि से सुशिक्षित बना देने पर भी उनका स्तर हेय और गया गुजरा ही बना रहेगा। वे कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकने के योग्य न बन सकेंगे।

औसत व्यक्ति गुजारे भर के लिए ही कमा पाता है। उसे रोज कुआँ खोदना और रोज पानी पीना पड़ता है। मरने के बाद अपने परिवार के स्थिर गुजारे जैसी सम्पत्ति कोई बिरला ही जमा कर पाता है। दुर्भाग्यवश यदि कमाने वाले की मृत्यु हो जाय और अपने पीछे कई बच्चे छोड़ मरे तो पीछे उस परिवार की कितनी दुर्गति होती है, इसे देखने से छाती फटती। सगे सम्बन्धी कहलाने वाले बचे खुचे साधनों को हड़पने का कुचक्र रचते हैं। बिना कमाने वालों का खर्च अपने ऊपर आया देखकर उनसे पीछा छुड़ाने का प्रयत्न करते हैं। पग- पग पर तिरस्कृत तो होना ही पड़ता है। इस स्थिति से तभी बचा जा सकता था, जब जननी को सर्वप्रथम स्वावलम्बी बन सकने के योग्य बनाया गया होता। जो ऐसी आशंका करते है कि स्वावलम्बन में नारी पंख कटे कबूतर की तरह उनके पूर्ण आश्रित रहने से आनाकानी करेगी, वे उस पर तरह- तरह के बन्धन लगाते है और पूर्णतया पराश्रित बना देते है। ऐसे लोगों की संकीर्णता का दण्ड विपत्ति के समय सभी आश्रितों को भुगतना पड़ता है। मरने की ही बात नहीं, कोई भयंकर रोग हो जाने के कारण उत्पन्न असमर्थता अथवा आकस्मिक विपत्ति भी ऐसी स्थिति पैदा कर सकती है, जिसमें अर्थ उपार्जन में नारी की समर्थता काम आ सके। अपंग बना कर रखने में शान समझने वाले लोग यदि ऐसी विपत्तियों की कल्पना कर सके तो वे पायेंगे कि प्रतिबन्धित एवं पिछड़ी स्थिति में डाले रखने की नीति कितनी अनुपयुक्त है।

देश, धर्म, समाज, संस्कृति एवं विश्व मानवता के प्रति हमारे कुछ कर्तव्य हैं। उनके पूरा करने में प्रथम चरण यह होना चाहिए कि आधी जनता को पिछड़ी स्थिति में डाले रहने वाले प्रतिबन्धों का समर्थन न करें। पददलित वर्ग को समर्थ बनने में सहायता करें। ऐसा करने से जो हार्दिक शक्ति जगेगी उसका लाभ समस्त समाज को मिलेगा। विकसित नारी देश की अर्थ व्यवस्था में, समाज संतुलन में, शिक्षा- शालीनता में, प्रगति- समृद्धि में, कला संस्कृति में उत्साह वर्धक योगदान दे सकती है। उसे पिछड़ी रख कर हम मानवी सुख- शान्ति और प्रगति का मार्ग अवरुद्ध ही करते हैं।

प्रायश्चित के लिए अनिवार्य रूप से परमार्थ करना पड़ता है। सहस्रों वर्षों से नर द्वारा नारी का जो शोषण क्रम चला है, उन संचित पापों को निवृत्ति के लिए वर्तमान पीढ़ी को उसी प्रकार तप करना चाहिए जैसा कि भागीरथ ने अपने पूर्वजों के पाप निवारण करने के लिए किया था।

प्रबुद्ध नर की ही भाँति प्रबुद्ध नारी के कंधों पर भी यही उत्तरदायित्व है। अनीति करने वाले की तरह अनीति सहने वाले को भी दोषी ठहराया गया है। रिश्वत लेने की तरह रिश्वत देना भी अपराध है। अन्याय इसलिए बढ़ता है कि उसके विरोध में सिर उठाने वाला साहस मूक बधिर बना बैठा रहता है। असहयोग, विरोध, संघर्ष के छोटे- बड़े कदमों में से जिससे जो बन पड़े उसका उपयोग करना चाहिए। सहन करने में तो अत्याचारी का साहस बढ़ता है और उसे निश्चिन्त होकर और भी बढ़ी- चढ़ी अनीति करने का साहस मिलता है। संसार में अनीति इसलिए नहीं बढ़ी कि दुरात्माओं की शक्ति अत्यधिक थी। पर उसका विस्तार इसलिए हुआ है कि उत्पीड़ितों में विरोध करने का साहस नहीं रहा। हम पालतू बकरी बन गये, पर हिरनों पर यह प्रयोग सम्भव न हो सका। दोनों की जाति और स्थिति में थोड़ा सा ही अन्तर है। कुत्ते और शृंगाल एक ही वंश के है। बिल्ली और वन बिलाव में नाम मात्र का अन्तर है। एक ने मनुष्य की दासता स्वीकार कर ली। दूसरे ने नहीं की। समर्थ होने के कारण प्राण तो लिए जा सकते है, पर वशवर्ती नहीं बनाया जा सकता है। अस्तु दुष्टों की तरह दुर्बल भी दोषी माने गये हैं। यह बात दूसरी है कि किसी का पाप भारी और किसी का हलका माना जाय।

वर्तमान स्थिति में अशिक्षा, व्यस्तता, आत्महीनता और प्रतिबंध के भार से जकड़ी नारी के लिए इस दशा में थोड़ा सा समर्थन सहयोग दे सकना ही संभव होगा। वह अग्रिम मोर्चा संभाल सकने की स्थिति में कम से कम आज तो है नहीं। इस कार्य में नर को ही आगे रहना होगा। प्रत्यक्षतः अपने घरों की सम्पर्क की नारी ही आगे रखनी होगी। अभियान के सभी कार्यों की पृष्ठभूमि बनाने से लेकर साधन खड़े करने तक के सारे सरंजाम उसे ही जुटाने पड़ेंगे। मोर्चे पर लड़ते तो सैनिक है, पर उनके लिए अस्त्र- शस्त्र, भोजन, वस्त्र, संचार, वाहन, उपकरण, दवा- दारु, प्रशिक्षण, मार्गदर्शन आदि के सारे साधन सरकारी सुरक्षा विभाग जुटाता है। नर को पीछे रह कर अभियान का सूत्र संचालन करना चाहिए और अपने प्रभाव क्षेत्र को नारियों को अग्रिम मोर्चा संभालने का प्रत्यक्ष काम करने के लिए कार्य क्षेत्र में उतरना चाहिए।







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